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अध्याय इकतीस – भगवान श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना (11.31)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : तब ब्रह्माजी, शिवजी–उनकी प्रेयसी भवानी, मुनियों, प्रजापतियों तथा इन्द्रादि देवताओं सहित, प्रभास आये।

2-3 भगवान का प्रस्थान देखने के लिए चारणों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरों, अप्सराओं तथा गरुड़ के सम्बन्धियों को साथ लेकर पितरगण, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर तथा बड़े बड़े सर्प भी आये। आते समय वे सभी व्यक्ति भगवान शौरी (कृष्ण) के जन्म तथा लीलाओं का कीर्तन और उनकी महिमा का गायन कर रहे थे।

4 हे राजन, उन्होंने आकाश में अपने विमानों की भीड़ लगाकर अत्यन्त भक्ति भाव से फूलों की वर्षा की।

5 अपने समक्ष ब्रह्माण्ड के पितामह ब्रह्माजी को अन्य देवताओं के साथ देखकर जो कि उनके निजी तथा शक्तिशाली अंश हैं, सर्वशक्तिमान प्रभु ने अपने मन को अपने भीतर स्थिर किया और अपने कमलनेत्र बन्द कर लिये।

6 अपने दिव्य शरीर को जलाने के लिए योगिक आग्नेयी ध्यान का उपयोग किये बिना, भगवान कृष्ण अपने धाम में प्रविष्ट हो गये। उनका दिव्य शरीर सारे जगतों का सर्वाकर्षक आश्रय है और समस्त धारणा तथा ध्यान का लक्ष्य है।

7 ज्योंही भगवान श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी को छोड़ा, त्योंही सत्य, धर्म, धृति, कीर्ति तथा सौन्दर्य उनके पीछे पीछे हो लिये। स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और आकाश से फूलों की वृष्टि होने लगी।

8 ब्रह्मा इत्यादि देवता, भगवान कृष्ण को उनके धाम में प्रवेश करते हुए नहीं देख सके क्योंकि भगवान ने अपनी गतिविधियों को प्रकट नहीं होने दिया, अतः सारे देवता अत्यधिक चकित थे।

9 जिस तरह सामान्य लोग बादलों से विलग बिजली के मार्ग को निश्चित नहीं कर सकते, उसी तरह अपने धाम लौटते हुए भगवान कृष्ण की गतिविधियों का पता देवतागण नहीं लगा पाये।

10 किन्तु कुछ देवतागण विशेष रूप से ब्रह्मा तथा शिवजी – यह निश्चित कर सके कि किस तरह भगवान की योगशक्ति कार्य कर रही है और इस तरह वे चकित थे। सारे देवताओं ने भगवान की योगशक्ति की प्रशंसा की और तब वे अपने–अपने लोक को लौट गये।

11 हे राजन, तुम जान लो कि भगवान का प्राकट्य तथा उनका अन्तर्धान होना, जो देहधारी बद्धजीवों के ही सदृश होते हैं, वास्तव में उनकी मायाशक्ति द्वारा अभिनीत खेल हैं जैसा कि कोई अभिनेता करता है। वे इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करके उसमें प्रवेश करते हैं, कुछ काल तक उसके भीतर खिलवाड़ करते हैं और अन्त में समेट लेते हैं। तब भगवान विराट जगत के सारे कार्यों को बन्द करके, अपनी दिव्य महिमा में स्थित रह जाते हैं।

12 भगवान कृष्ण अपने गुरु-पुत्र को सशरीर यमराज के लोक से वापस ले आये और जब तुम अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र द्वारा जला दिये गये थे, तो उन्होंने परम रक्षक के रूप में तुम्हें भी बचाया। उन्होंने मृत्यु के दूतों को भी मृत्यु देनेवाले शिवजी को युद्ध में परास्त किया और जरा शिकारी को मानव शरीर में वैकुण्ठ भेज दिया। क्या कभी ऐसा पुरुष अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो सकता है?

13 असीम शक्तियों के स्वामी भगवान कृष्ण असंख्य जीवों की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के एकमात्र कारण होते हुए भी, इस जगत में अपने शरीर को अब और अधिक नहीं रखना चाहते थे। इस तरह उन्होंने आत्मस्थ लोगों को गन्तव्य दिखलाया और यह प्रदर्शित किया कि इस मर्त्य जगत का अपना कोई मूल्य नहीं है।

14 जो व्यक्ति नियमित रूप से प्रातःकाल भगवान कृष्ण के दिव्य तिरोधान तथा उनके निजी धाम लौटने की महिमा का भक्तिपूर्वक कीर्तन करता है, वह निश्चय ही उसी परम पद को प्राप्त करेगा।

15 द्वारका पहुँचते ही दारुक वसुदेव तथा उग्रसेन के चरणों पर गिर पड़ा और भगवान कृष्ण की क्षति पर शोक करते हुए अपने आँसुओं से उनके चरणों को भिगो दिया।

16-17 दारुक ने वृष्णियों के पूर्ण विनाश का वृत्तांत कह सुनाया और हे परीक्षित, यह सुनकर लोग अपने हृदयों में अतीव किंकर्तव्यविमूढ़ और शोक से स्तम्भित हो गये। वे कृष्ण के बिछोह से विह्वल अपना सिर पीटते उस स्थान के लिए जल्दी जाने लगे जहाँ उनके सम्बन्धी मृत पड़े थे।

18 जब देवकी, रोहिणी तथा वसुदेव ने अपने कृष्ण तथा बलराम पुत्रों को नहीं पाया, तो वे शोक से अचेत हो गये।

19 भगवान के वियोग से आतुर उनके माता-पिता ने उसी स्थान पर अपने प्राण त्याग दिये। हे परीक्षित, तब यादवों की पत्नियाँ अपने अपने मृत पतियों का आलिंगन करके चिताओं पर चढ़ गईं।

20 भगवान बलराम की पत्नियाँ भी अग्नि में प्रविष्ट हुई और उनके शरीर का आलिंगन किया। इसी तरह वसुदेव की पत्नियाँ उनकी चिता में प्रविष्ट हुई और उनके शरीर को चूमा। हरि की पतोहुएँ अपने-अपने पतियों की चिताओं में प्रविष्ट हुईं। रुक्मिणी तथा भगवान कृष्ण की अन्य पत्नियाँ, जिनके हृदय उन्हीं में पूर्णतया लीन थे, उनकी चिता में प्रविष्ट हुईं।

21 अर्जुन अपने सर्वप्रिय मित्र भगवान कृष्ण के बिछोह से अत्यधिक दुखी हुए। किन्तु उन्होंने भगवान के उन दिव्य वचनों का स्मरण करके, जिन्हें उन्होंने गीता रूप में गाया था, स्वयं को सान्त्वना दी।

22 तत्पश्चात अर्जुन ने क्रमशः (मृतकों की आयु के क्रम से) यदुवंश के उन मृतकों का विधिपूर्वक दाहकर्म किया जिनके परिवार में कोई पुरुष सदस्य नहीं बचा था।

23 जैसे ही भगवान ने द्वारका का परित्याग किया, त्योंही, हे राजन, समुद्र ने उसे चारों ओर से घेर लिया और एकमात्र उनका महल ही अछूता रहा।

24 भगवान मधुसूदन शाश्वत रीति से द्वारका में उपस्थित रहते हैं। यह समस्त शुभ स्थानों में सर्वाधिक शुभ स्थान है और इसके स्मरण मात्र से सारे कल्मष नष्ट हो जाते हैं।

25 यदुवंश की बची हुई स्त्रियों, बच्चों तथा बूढ़ों को अर्जुन इन्द्रप्रस्थ ले आये जहाँ उन्होंने अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को यदुओं के शासक के रूप में प्रतिष्ठापित किया।

26 हे राजन, अर्जुन से अपने मित्र की मृत्यु सुनकर आपके बाबा लोगों ने आपको वंश के धारक के रूप में स्थापित कर दिया और इस जगत से अपने प्रयाण की तैयारी के लिए चल पड़े।

27 जो व्यक्ति ईश्वरों के ईश्वर विष्णु की इन विविध लीलाओं तथा अवतारों की महिमाओं का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करता है, वह सारे पापों से मोक्ष प्राप्त करता है।

28 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के सर्वाकर्षक अवतारों के सर्वमंगल पराक्रम तथा उनके द्वारा बाल्यकाल में की गई लीलाएँ इस श्रीमदभागवत तथा अन्य शास्त्रों में वर्णित हैं। जो कोई उनकी लीलाओं के इन वर्णनों का कीर्तन करता है, उसे उन भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति प्राप्त होगी जो समस्त सिद्ध मुनियों के गन्तव्य हैं।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (एकादश स्कन्धके समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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Comments

  • https://youtu.be/FK-mzb-pdqA
    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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