भक्तियोग (11.29)

10895120295?profile=RESIZE_584x

अध्याय उन्तीस – भक्तियोग (11.29)

1 श्री उद्धव ने कहा: हे भगवान अच्युत, मुझे भय है कि आपके द्वारा वर्णित योग-विधि उस व्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं रख सकता । इसलिए आप सरल शब्दों में यह बतायें कि कोई व्यक्ति किस तरह इसे अधिक आसानी से सम्पन्न कर सकता है।

2 हे कमलनयन भगवान, सामान्यतया जो योगीजन मन को स्थिर करने का प्रयास करते हैं, उन्हें समाधि की दशा पूर्ण कर पाने की अपनी अक्षमता के कारण, निराशा का अनुभव करना पड़ता है। इस तरह वे मन को अपने वश में लाने के प्रयास में उकता जाते हैं।

3 इसलिए हे कमलनयन, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हंस सदृश व्यक्ति खुशी-खुशी आपके उन चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, जो समस्त दिव्य आनन्द के स्रोत हैं। किन्तु जिन्हें अपने योग तथा कर्म की उपलब्धियों पर गर्व है, वे आपकी शरण में नहीं आ पाते और आपकी मायाशक्ति द्वारा परास्त होते हैं।

4 हे अच्युत प्रभु, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आप अपने उन सेवकों के पास घनिष्ठतापूर्वक जाते हैं जिन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी है। जब आप भगवान रामचन्द्र के रूप में प्रकट हुए थे, उस अवधि में ब्रह्मा जैसे महान देवता आपके पादपीठ पर अपने मुकुट के ऐश्वर्यशाली सिरे रखने के लिए लालायित रहते थे; तब आपने हनुमान जैसे भक्तों पर विशेष स्नेह प्रदर्शित किया क्योंकि उन्होंने एकमात्र आपकी शरण ले रखी थी।

5 तो भला किसमें साहस है, जो आत्मारूप, पूजा के सर्वप्रिय लक्ष्य तथा सबके परम ईश्वर आपका – जो अपनी शरण लेने वाले भक्तों को सभी सम्भव सिद्धियाँ प्रदान करने वाले हैं, तिरस्कार कर सके? आपके द्वारा प्रदत्त लाभों को जानते हुए भला इतना कृतघ्न कौन हो सकता है? ऐसा कौन है, जो आपका तिरस्कार करके ऐसी वस्तु को भौतिक सुख के लिए स्वीकार करेगा जिससे आपकी विस्मृति होती हो और आपके चरणकमलों की धूलि की सेवा में निरत हम लोगों को किस चीज का अभाव है?

6 हे प्रभु, योगी कवि तथा आध्यात्मिक विज्ञान में पटु लोग आपके प्रति अपनी कृतज्ञता पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर सके यद्यपि उन्हें ब्रह्माजी जितनी दीर्घायु प्राप्त थी क्योंकि आप दो रूपों में–बाह्यत: आचार्य रूप में और आन्तरिक रूप में परमात्मा की तरह देहधारी जीव को अपने पास आने का निर्देश करते हुए उद्धार करने के लिए प्रकट होते हैं।

7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह अत्यन्त स्नेहिल उद्धव द्वारा पूछे जाने पर समस्त ईश्वरों के परम नियन्ता भगवान कृष्ण जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को खिलौने के रूप में मानते हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के तीन रूप ग्रहण करते हैं, सर्व-आकर्षक मुसकान दिखलाते हुए प्रेमपूर्वक उत्तर देने लगे।

8 भगवान ने कहा: हाँ, मैं तुमसे मेरी भक्ति के सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा जिनको सम्पन्न करने से मर्त्य प्राणी दुर्जय मृत्यु पर विजय पा लेगा।

9 मनुष्य को चाहिए कि सदैव मेरा स्मरण करते हुए बिना हड़बड़ी के मेरे प्रति अपने सारे कर्तव्य पूरा करे। उसे चाहिए कि वह मुझे मन तथा बुद्धि अर्पित करके मेरी भक्ति के आकर्षण में अपना मन स्थिर करे।

10 मनुष्य को उन पवित्र स्थानों में जाकर शरण लेनी चाहिए जहाँ सन्त स्वभाव वाले मेरे भक्तगण निवास करते हैं। उसे मेरे भक्तों के आदर्श कार्यकलापों से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। ये भक्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों के बीच प्रकट होते हैं।

11 मेरी पूजा के लिए विशेष रूप से नियत पर्व, त्यौहार तथा उत्सव (यथा–एकादशी, जन्माष्टमी आदि) को मनाने के लिए, अकेला या सामूहिक जलसों में गायन, नृत्य तथा अन्य ठाट-बाट के आयोजन की व्यवस्था करे।

12 मनुष्य को चाहिए कि शुद्ध हृदय से सारे जीवों और स्वयं के भीतर मुझको परमात्मा रूप में देखे कि मैं किसी भौतिक वस्तु द्वारा अकलंकित हूँ और सर्वत्र उपस्थित हूँ जिस तरह सर्वव्यापक आकाश होता है।

13-14 हे तेजस्वी उद्धव, जो व्यक्ति सारे जीवों को इस भाव से देखता है कि मैं उनमें से हर एक में उपस्थित हूँ और जो इस दिव्य ज्ञान की शरण लेकर हर एक का सम्मान करता है, वह वास्तव में बुद्धिमान माना जाता है। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण और निम्न जाति का आदिवासी, चोर तथा ब्राह्मण संस्कृति के दानी संवर्धक, सूर्य तथा अग्नि की क्षुद्र चिनगारी, सदय तथा क्रूर को समान रूप से देखता है।

15 जो व्यक्ति समस्त जीवों में मेरी उपस्थिति का निरन्तर ध्यान करता है उसके लिए स्पर्धा की कुप्रवृत्तियाँ, ईर्ष्या तथा तिरस्कार एवं उसी के साथ मिथ्या अहंकार तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।

16 मनुष्य को चाहिए कि वह अपने संगियों के उपहास की परवाह न करते हुए, देहात्म बुद्धि त्याग दे। उसे कुत्तों, चाण्डालों, गौवों तथा गधों तक के समक्ष भूमि पर दण्ड के समान गिरकर नमस्कार करना चाहिए।

17 जब तक मनुष्य सारे जीवों के भीतर मुझे देख पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं कर लेता, तब तक उसे चाहिए कि वह अपनी वाणी, मन तथा शरीर के कार्यों द्वारा इस विधि से मेरी पूजा करता रहे।

18 सर्वव्यापी भगवान के ऐसे दिव्य ज्ञान से मनुष्य परम सत्य को सर्वत्र देख सकता है। सारे संशयों से इस प्रकार मुक्त होकर वह सकाम कर्मों का परित्याग कर देता है।

19 निस्सन्देह मैं मन, वाणी तथा शरीर के कार्यों को प्रयोग करके सारे जीवों के भीतर मेरी अनुभूति करने की विधि को आध्यात्मिक प्रकाश की सर्वश्रेष्ठ सम्भव विधि मानता हूँ।

20 हे उद्धव, चूँकि मैंने स्वयं इसकी स्थापना की है, इसलिए मेरी भक्ति की यह विधि दिव्य है। निश्चय ही इस विधि को ग्रहण करने से भक्त को रंचमात्र भी क्षति नहीं उठानी पड़ती।

21 हे सन्त शिरोमणि उद्धव, भयावह स्थिति में सामान्य व्यक्ति रोता है, डर जाता है और शोक करता है यद्यपि ऐसी व्यर्थ की भावनाओं से स्थिति में कोई परिवर्तन आने से रहा। किन्तु निजी अभिप्रेरण के बिना जो कार्य मुझे अर्पित किये जाते हैं, वे बाहर से व्यर्थ होते हुए भी, वास्तविक धर्म-विधि के तुल्य हैं।

22 यह विधि सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि इसका पालन करने से मनुष्य इसी जीवन में मुझ नित्य सत्य को पाने में नश्वर (शरीर) तथा असत्य (अपनी सम्पत्ति--माया) का उपयोग कर सकता है।

23 इस तरह मैंने तुम्हें, संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में, परम सत्य विषयक विज्ञान का पूर्ण संकलन बता दिया। यह विज्ञान देवताओं के लिए भी समझ पाना अत्यन्त कठिन है।

24 मैं बारम्बार तुमसे स्पष्ट तर्क सहित यह ज्ञान बता चुका हूँ। जो कोई इसे ठीक से समझ लेता है, वह सारे संशयों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।

25 जो कोई तुम्हारे प्रश्नों के इन स्पष्ट उत्तरों पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, वह वेदों के शाश्वत गुह्य लक्ष्य – परम सत्य – को प्राप्त करेगा।

26 जो व्यक्ति उदारतापूर्वक इस ज्ञान को मेरे भक्तों के बीच फैलाता है, वह परम सत्य का देने वाला है और मैं उसे अपने आपको दे देता हूँ।

27 जो व्यक्ति इस स्पष्ट तथा शुद्ध बनाने वाले परम ज्ञान का जोर-जोर से वाचन करता है, वह दिन प्रतिदिन शुद्ध बनता जाता है क्योंकि वह दिव्य ज्ञानरूपी दीपक से अन्यों को मुझे उद्घाटित करता है।

28 जो कोई इस ज्ञान को श्रद्धा तथा ध्यान के साथ नियमित रूप से सुनता है और साथ ही मेरी शुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह भौतिक कर्म के फलों के बन्धन से कभी नहीं बँधता।

29 हे मित्र उद्धव, क्या अब तुम इस दिव्य ज्ञान को भलीभाँति समझ गये? क्या तुम्हारे मन में उठने वाले मोह तथा शोक दूर हो गये?

30 तुम इस उपदेश को ऐसे व्यक्ति को मत देना जो पाखण्डी, नास्तिक या बेईमान हो या जो श्रद्धापूर्वक न सुनता हो, जो भक्त न हो या जो विनीत न हो।

31 यह ज्ञान उसे दिया जाय जो इन दुर्गुणों से मुक्त हो, जो ब्राह्मणों के कल्याण-कार्य के प्रति समर्पित हो तथा जो प्रेमी हो, सन्त स्वभाव का हो और शुद्ध हो और यदि सामान्य श्रमिकों तथा स्त्रियों में भगवान के प्रति भक्ति पाई जाय, तो उन्हे भी योग्य श्रोताओं के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

32 जब जिज्ञासु व्यक्ति इस ज्ञान को समझ लेता है, तो उसे और जानने के लिए कुछ भी नहीं रहता। आखिर, जो सर्वाधिक स्वादिष्ट अमृत का पान कर लेता है, वह कहीं प्यासा रह सकता है?

33 वैश्लेषिक ज्ञान, कर्मकाण्ड, योग सांसारिक कारोबार तथा राजनैतिक प्रशासन द्वारा लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में प्रगति करना चाहते हैं। तुम मेरे भक्त हो अतः जो कुछ इन नाना विधियों से प्राप्त किया जा सकता है, उसे तुम आसानी से मेरे भीतर पा सकोगे।

34 जो व्यक्ति सारे सकाम कर्म त्याग देता है और मेरी सेवा करने की तीव्र उत्कण्ठा से स्वयं को पूर्णरूप से मुझे सौंप देता है, वह जन्म-मृत्यु से मोक्ष पा लेता है और मेरे ऐश्वर्य के भागी के पद पर उन्नत हो जाता है।

35 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा : भगवान कृष्ण द्वारा कहे गये इन वचनों को सुनकर तथा इस प्रकार सम्पूर्ण योगमार्ग दिखलाए जाने पर, उद्धव प्रेम से विव्हल हो गए और अश्रुपूरित नेत्रों के साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गए। उद्धव का गला रुँध गया जिससे वे कुछ भी नहीं कह पाये।

36 प्रेम से अभिभूत हुए अपने मन को स्थिर करते हुए उद्धव ने यदुवंश के महानतम वीर भगवान कृष्ण के प्रति अतीव कृतज्ञता का अनुभव किया। वे भगवान के चरणकमलों का स्पर्श करने के लिए झुके और फिर हाथ जोड़कर बोले।

37 श्री उद्धव ने कहा: हे अजन्मा आदि भगवान, यद्यपि मैं मोह के गहन अंधकार में गिर चुका था, किन्तु आपकी दयामयी संगति से अब मेरा अज्ञान दूर हो चुका है। वस्तुतः शीत, अंधकार तथा भय उस पर किस तरह अपनी शक्ति दिखा सकते हैं, जो तेजवान सूर्य के निकट पहुँच गया हो?

38 मेरे तुच्छ आत्म-निवेदन के बदले, आपने अपने सेवक मुझ पर दयापूर्वक दिव्य ज्ञान के प्रदीप का दान दिया है। इसलिए आपका कौन भक्त जिसमें तनिक भी कृतज्ञता होगी, आपके चरणकमलों को त्यागकर अन्य स्वामी की शरण ग्रहण करेगा?

39 दाशार्हों, वृष्णियों, अंधकों तथा सात्वतों के परिवारों के प्रति मेरे स्नेह की दृढ़ता से बँधी हुई रस्सी – वह रस्सी जिसे आपने अपनी सृष्टि को उत्पन्न करने हेतु अपनी माया से आरम्भ में मेरे ऊपर डाल रखा था – अब दिव्य आत्मज्ञान के हथियार से कट गई है।

40 हे महायोगी, आपको नमस्कार है। मुझ शरणागत को आप उपदेश दें कि मैं किस तरह आपके चरणकमलों के प्रति अनन्य अनुरक्ति पा सकता हूँ।

41-44 भगवान ने कहा : हे उद्धव, मेरा आदेश लो और बदरिका नामक मेरे आश्रम जाओ। तुम वहाँ के पवित्र जल को, जो मेरे चरणकमलों से निकला है, स्पर्श करना तथा उसमें स्नान करके अपने को शुद्ध करना। तुम पवित्र अलकनंदा नदी के दर्शन से समस्त पापों से अपने को मुक्त करना। तुम वृक्षों की छाल पहनना और जंगल में जो कुछ मिल सके उसे खाना। इस तरह तुम संतुष्ट और इच्छा से मुक्त, समस्त द्वैतों के प्रति सहिष्णु, उत्तम स्वभाव के, आत्मसंयमी, शान्त तथा आध्यात्मिक ज्ञान एवं विज्ञान से समन्वित हो सकोगे। अपना ध्यान एकाग्र करके मेरे द्वारा दिये गये उपदेशों का निरन्तर मनन करना और इनके सार को आत्मसात करना। अपने वचनों तथा विचारों को मुझ पर स्थिर करना और मेरे दिव्य गुणों की अनुभूति को बढ़ाने के लिए सदैव प्रयास करना। इस तरह तुम प्रकृति के तीन गुणों के गन्तव्य को पार कर अन्त में मेरे पास आओगे।

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह भौतिक जीवन के समस्त कष्ट को नष्ट करनेवाली बुद्धि के स्वामी भगवान कृष्ण द्वारा सम्बोधित किये जाने पर श्री उद्धव ने भगवान की प्रदक्षिणा की और तब भगवान के चरणों पर अपना सिर रखकर भूमि पर लेट गये। यद्यपि उद्धव सारे भौतिक द्वन्द्वों के प्रभाव से मुक्त थे, किन्तु उनका हृदय विदीर्ण हो रहा था और विदा के समय उन्होंने अपने आँसुओं से भगवान के चरणकमलों को भिगो दिया।

46 भगवान से उद्धव का अटूट स्नेह था उनसे बिछुड़ने से अत्यधिक डरे हुए, वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये और भगवान का साथ छोड़ नहीं पाये। अन्त में, अत्यधिक विषाद का अनुभव करते हुए, उन्होंने बारम्बार भगवान को नमस्कार किया और अपने स्वामी के खड़ाऊँ को सिर पर रखकर वहाँ से प्रस्थान कर गये।

47 तत्पश्चात भगवान को, हृदय में सुस्थित करते हुए महान भक्त उद्धव बदरिकाश्रम गये। वहाँ पर तपस्या में रत होकर उन्होंने भगवान के निजी धाम को प्राप्त किया जिसका वर्णन ब्रह्माण्ड के एकमात्र मित्र स्वयं कृष्ण ने उनसे किया था।

48 इस तरह भगवान कृष्ण ने जिनके चरणकमलों की सेवा समस्त बड़े बड़े योगेश्वरों द्वारा की जाती है, अपने भक्त से यह अमृततुल्य ज्ञान कहा जो आध्यात्मिक आनन्द के सम्पूर्ण सागर जैसा है। इस ब्रह्माण्ड में जो कोई भी इस कथा को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है।

49 मैं उन भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो आदि तथा समस्त जीवों में महानतम हैं। वे वेदों के रचयिता हैं। उन्होंने अपने अनेक भक्तों को, भौतिक जगत के भय को नष्ट करने के लिए, आनन्दसागर से – इस समस्त ज्ञान तथा विज्ञान के अमृतमय सार का – यह अमृत प्रदान किया है और उनकी कृपा से ही भक्तों ने इसका पान किया है।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • https://youtu.be/9cuwj0Plvjs
    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.