अध्याय चौबीस --- सांख्य दर्शन (11.24)
1 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : अब मैं तुमसे सांख्य विज्ञान का वर्णन करूँगा जिसे प्राचीन विद्वानों ने पूर्णतया स्थापित किया है। इस विज्ञान को समझ लेने से मनुष्य तुरन्त भौतिक द्वैत के भ्रम को त्याग सकता है।
2 प्रारम्भ में कृतयुग की कालावधि में सारे लोग आध्यात्मिक विवेक में अत्यन्त निपुण होते थे और इससे भी पूर्व, संहार के समय एकमात्र दृष्टा का अस्तित्व था, जो दृश्य पदार्थ से अभिन्न था।
3 द्वैत से मुक्त रहते हुए तथा सामान्य वाणी एवं मन के लिए दुर्गम होने के कारण, उस एक परम सत्य ने अपने को दो कोटियों में विभक्त कर लिया ये हैं – भौतिक प्रकृति तथा जीव – जो उस प्रकृति के स्वरूपों को भोगने का प्रयास करते हैं।
4 इन दो प्रकार के स्वरूपों में से एक तो भौतिक प्रकृति है, जिसमें दोनों सूक्ष्म कारण विद्यमान हैं और जो पदार्थ को व्यक्त करती है। दूसरा है जीव की चेतना जिसे भोक्ता कहते हैं।
5 जब भौतिक प्रकृति मेरी चितवन से विक्षुब्ध हो गई, तो बद्धजीवों की शेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए तीन गुण—सतो, रजो तथा तमो – प्रकट हुए।
6 इन गुणों से महत तत्त्व के साथ साथ आदि सूत्र उत्पन्न हुआ। महत तत्त्व के रूपान्तर से मिथ्या अहंकार उत्पन्न हुआ जो जीवों के मोह का कारण है।
7 मिथ्या अहंकार जो भौतिक अनुभूति (तन्मात्रा), इन्द्रियों तथा मन का कारण है, आत्मा तथा पदार्थ दोनों को घेर लेता है और सतो, रजो तथा तमो – इन तीन गुणों में प्रकट होता है।
8 तमोगुणी अहंकार से सूक्ष्म शारीरिक अनुभूतियाँ (तन्मात्राएँ) उत्पन्न हुई जिनसे सूक्ष्म तत्त्व उत्पन्न हुए। रजोगुणी अहंकार से इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई तथा सतोगुणी अहंकार से ग्यारह देवता उत्पन्न हुए।
9 मेरे द्वारा प्रेरित ये सारे तत्त्व सुसम्बद्ध रूप में काम करने के लिए परस्पर जुड़ गये तथा उन्होंने ब्रह्माण्ड को जन्म दिया जो मेरा सर्वोत्तम आवास है।
10 मैं उस अंडे के भीतर प्रकट हुआ जो कारणार्णव जल में तैर रहा था और मेरी नाभि से विश्वकमल निकला जो स्वयंभू ब्रह्मा का जन्मस्थल है।
11 रजोगुण से युक्त ब्रह्माण्ड की आत्मा ब्रह्माजी ने मेरी कृपा से महान तपस्या की और इस तरह भूर (भू:), भुवर (भुव:) तथा स्वर (स्व:) नामक तीन लोकों तथा उनके अधिष्ठाता देवताओं की रचना की।
12 स्वर्ग की स्थापना देवताओं के निवास रूप में, भुवर्लोक की भूतप्रेतों के निवास रूप में तथा पृथ्वीलोक की स्थापना मनुष्यों तथा अन्य मर्त्य प्राणियों के स्थान के रूप में की गई। वे योगी जो मोक्ष के लिए उद्यमशील रहते हैं, इन तीनों विभागों से परे भेज दिये जाते हैं।
13 ब्रह्मा ने पृथ्वी के अधोभाग को असुरों तथा नागों के लिए बनाया। इस तरह प्रकृति के तीनों गुणों के अन्तर्गत सम्पन्न होनेवाले विभिन्न प्रकार के कर्मों के लिए संगत फलों के रूप में तीनों लोकों के गन्तव्य व्यवस्थित किये गये।
14 योग, महान तप तथा संन्यास जीवन से महर्लोक, जनोलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक के शुद्ध गन्तव्य प्राप्त किये जाते हैं। किन्तु भक्तियोग से मेरा दिव्य धाम प्राप्त होता है।
15 कालशक्ति के रूप में कर्म करते हुए मुझ परम सृष्टा द्वारा इस जगत में सकाम कर्म के सारे फलों को व्यवस्थित किया गया है। इस तरह प्राणी प्रकृति के गुणों के प्रबल प्रवाह की सतह पर कभी ऊपर उठता है, तो कभी फिर से डूब जाता है।
16 इस जगत में जो भी स्वरूप विद्यमान दिखते हैं – चाहे वे छोटे हों या बड़े, दुबले हों या मोटे – उनमें भौतिक प्रकृति तथा इसका भोक्ता आत्मा दोनों रहते हैं। स्वर्ण तथा मिट्टी मूलतः अवयव रूप में विद्यमान हैं। स्वर्ण से सोने के गहने यथा कंगन तथा बालियाँ और मिट्टी से बर्तन तथा तश्तरियाँ बनाई जा सकती हैं।
17 स्वर्ण तथा मिट्टी जो कि मूल अवयव हैं, वे उनसे बनने वाले पदार्थों के पहले से विद्यमान रहते हैं और जब अन्त में इन पदार्थों को नष्ट किया जाता है, तो वे मूल अवयव-स्वर्ण तथा मिट्टी-बने रहते हैं। इस तरह प्रारम्भ तथा अन्त में अवयव वर्तमान तो रहते ही हैं, वे बीच में भी कंगन, बाली, पात्र अथवा तश्तरी के रूप में उपस्थित रहते हैं, जिन्हें हम ये नाम सुविधा के लिए देते हैं। इसलिए हम यह समझ सकते हैं कि चूँकि अवयवरूपी कारण पदार्थ की सृष्टि के पूर्व तथा पदार्थ के विनाश के बाद विद्यमान रहता है, वही अवयवरूपी कारण व्यक्त अवस्था में भी उपस्थित रहेगा और इस पदार्थ को उसके असली रूप में पुष्ट करेगा।
18 किसी आवश्यक अवयव से बनी हुई भौतिक वस्तु रूपान्तर द्वारा अन्य भौतिक वस्तु उत्पन्न करती है। इस तरह एक उत्पन्न वस्तु अन्य उत्पन्न वस्तु का कारण एवं आधार बनती है। इस तरह कोई विशेष वस्तु इस हेतु असली कहलाती है क्योंकि वह उस दूसरी वस्तु के मूल स्वभाव से युक्त होती है, जो इसकी आदि तथा अन्तिम अवस्था होती है।
19 भौतिक ब्रह्माण्ड को असली माना जा सकता है क्योंकि इसका आदि अवयव तथा इसकी अन्तिम अवस्था प्रकृति है। महाविष्णु प्रकृति के विश्राम स्थल हैं, जो काल की शक्ति से प्रकट होते हैं। इस तरह प्रकृति, सर्वशक्तिमान विष्णु तथा काल मुझ सर्वोपरि परम सत्य से अभिन्न है।
20 जब तक भगवान प्रकृति पर दृष्टिपात करते रहते हैं तब तक भौतिक जगत विद्यमान रहता है और सृजन के महान तथा विविध प्रवाह को प्रसव द्वारा सतत प्रकट करता रहता है।
21 मैं विश्वरूप का आधार हूँ जो लोकों के बारम्बार सृजन, पालन तथा संहार के माध्यम से अनन्त विविधता को प्रदर्शित करता है। मेरे विश्वरूप में सारे लोक अपनी सुप्त अवस्था में रहते हैं और मेरा यह विश्वरूप पाँच तत्त्वों के समन्वयकारी संयोग से नाना प्रकार के जगतों को प्रकट करता है।
22-27 संहार के समय जीव का मर्त्य शरीर भोजन में लीन हो जाता है। भोजन अन्न में लीन होता है और अन्न पुनः पृथ्वी में लीन हो जाते हैं। पृथ्वी अपने सूक्ष्म अनुभूति गन्ध में लीन हो जाती है। गन्ध जल में और जल अपने गुण स्वाद में लीन हो जाता है। स्वाद अग्नि में और अग्नि रूप में लीन हो जाती है। रूप स्पर्श में और स्पर्श आकाश में लीन हो जाता है। आकाश अन्ततः ध्वनि अनुभूति में लीन होता है। सारी इन्द्रियाँ अपने उद्गम रूप अधिष्ठाता देवों में लीन हो जाती हैं। हे सौम्य उद्धव, ये इन्द्रियाँ नियामक मन में लीन होती हैं, जो सात्विक अहंकार में लीन हो जाता है। शब्द तमोगुणी अहंकार में एकाकार हो जाते हैं और सर्वशक्तिमान तथा समस्त शारीरिक तत्त्वों में प्रथम जाना जाने वाला, अहंकार समग्र प्रकृति में लीन हो जाता है। तीन गुणों की धात्री समग्र प्रकृति गुणों में लीन हो जाती है। तब ये गुण प्रकृति के अव्यक्त रूप में लीन होते हैं और यह अव्यक्त रूप काल में लीन हो जाता है। काल परमेश्वर में लीन हो जाता है, जो सर्वज्ञ महापुरुष के रूप में – समस्त जीवों के आदि प्रेरक के रूप में रहते हैं। समस्त जीवन का उद्गम मुझ अजन्मा परमात्मा में – जो अपने भीतर स्थित रहकर अकेला रहता है, लीन हो जाता है। उन्हीं से समस्त सृजन तथा संहार प्रकट होते हैं।
28 जिस तरह उदय होता सूर्य आकाश के अंधकार को हटा देता है, उसी तरह विश्वसंहार का यह विज्ञान गम्भीर अध्येताओं के मन से भ्रामक द्वैत को हटा देता है। यदि किसी तरह हृदय के भीतर भ्रम प्रवेश कर भी जाता है, तो वह वहाँ ठहर नहीं सकता।
29 इस तरह भौतिक तथा आध्यात्मिक वस्तु के पूर्ण दृष्टा मैंने यह सांख्य ज्ञान कहा है, जो सृष्टि तथा संहार के वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा संशय को नष्ट करता है।
(समर्पित एवं सेवारत -- जगदीश चन्द्र चौहान)
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