भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक
अध्याय सात भगवदज्ञान
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ 7 ॥
मत्तः– मुझसे परे;पर-तरम्– श्रेष्ठ;न– नहीं;अन्यत् किञ्चित्– अन्य कुछ भी;अस्ति– है;धनञ्जय– हे धन के विजेता;मयि– मुझमें;सर्वम्– सब कुछ;इदम्– यह जो हम देखते हैं;प्रोतम्– गुँथा हुआ;सूत्रे– धागों में;मणि-गणाः– मोतियों के दाने;इव– सदृश।
भावार्थ : हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
तात्पर्य : परमसत्य साकार है या निराकार, इस पर सामान्य विवाद चलता है। जहाँ तक भगवद्गीता का प्रश्न है, परमसत्य तो श्रीभगवान् श्रीकृष्ण हैं और इसकी पुष्टि पद-पद पर होती है। इस श्लोक में विशेष रूप से बल है कि परमसत्य पुरुष रूप है। इस बात की कि भगवान् ही परमसत्य हैं, ब्रह्मसंहिता में भी पुष्टि हुई है – ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः – परमसत्य श्रीभगवान् कृष्ण ही हैं, जो आदि पुरुष हैं। समस्त आनन्द के आगार गोविन्द हैं और वे सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। ये सब प्रमाण निर्विवाद रूप से प्रमाणित करते हैं कि परम् सत्य पुरुष हैं जो समस्त कारणों का कारण हैं। फिर भी निरीश्वरवादी श्चवेताश्वतर उपनिषद् में (३.१०) उपलब्ध वैदिक मन्त्र के आधार पर तर्क देते हैं –
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयं। य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति –
“भौतिक जगत् में ब्रह्माण्ड के आदि जीव ब्रह्मा को देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। किन्तु ब्रह्मा के परे एक इन्द्रियातीत ब्रह्म है जिसका कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता और वो समस्त भौतिक कल्मष से रहित होता है। जो व्यक्ति उसे जान लेता है वह भी दिव्य बन जाता है, किन्तु जो उसे नहीं जान पाते, वे सांसारिक दुखों को भोगते रहते हैं।” निर्विशेषवादी अरूपम् शब्द पर विशेष बल देते हैं। किन्तु यह अरूपम् शब्द निराकार नहीं है। यह दिव्य सच्चिदानन्द स्वरूप का सूचक है, जैसा कि ब्रह्मसंहिता में वर्णित है और ऊपर उद्धृत है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के अन्य श्लोकों (३.८-९) से भी इसकी पुष्टि होती है –
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विद्वानति मृत्युमति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नाणीयो नो ज्यायोऽति किञ्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥
“मैं उन भगवान् को जानता हूँ जो अंधकार की समस्त भौतिक अनुभूतियों से परे हैं। उनको जानने वाला ही जन्म तथा मृत्यु के बन्धन का उल्लंघन कर सकता है। उस परमपुरुष के इस ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष का कोई अन्य साधन नहीं है।” “उन परमपुरुष से बढ़कर कोई सत्य नहीं क्योंकि वे श्रेष्ठतम हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर हैं और महान से भी महानतर हैं। वे मूक वृक्ष के समान स्थित हैं और दिव्य आकाश को प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ें फैलाता है, ये भी अपनी विस्तृत शक्तियों का प्रसार करते हैं।” इन श्लोकों से निष्कर्ष निकलता है कि परमसत्य ही श्रीभगवान् हैं, जो अपनी विविध परा-अपरा शक्तियों के द्वारा सर्वव्यापी हैं।
(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)
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