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अध्याय तिहत्तर – बन्दी गृह से छुड़ाये गये राजाओं को कृष्ण द्वारा आशीर्वाद (10.73)

1-6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जरासन्ध ने 20800 राजाओं को युद्ध में पराजित करके उन्हें बन्दीखाने में डाल दिया था जब ये राजा गिरिद्रोणी किले से बाहर आये, तो वे मलिन लग रहे थे और मैले वस्त्र पहने हुए थे। वे भूख के मारे दुबले हो गए थे, उनके चेहरे सूख गये थे और दीर्घकाल तक बन्दी रहने से अत्यधिक कमजोर हो गये थे। तब राजाओं ने भगवान को अपने समक्ष देखा। उनका रंग बादल के समान गहरा नीला था और वे पीले रेशम का वस्त्र पहने थे। वे अपने वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, चार विशाल भुजाओं, कमल के कोश जैसी गुलाबी रंग की आँखों, सुन्दर हँसमुख चेहरे, चमकते मकर कुण्डलों तथा हाथों में कमल, गदा, शंख तथा चक्र धारण करने से पहचाने जाते हैं। उनके शरीर में मुकुट, रत्नजटित गले की माला, सुनहरी करधनी, सुनहले कड़े तथा बाजूबन्द सुशोभित थे और वे अपने गले में चमकीली, मूल्यवान कौस्तुभ मणि तथा जंगली फूलों की माला पहने थे। सारे राजा मानो अपनी आँखों से उनके सौन्दर्य का पान कर रहे थे, जीभों से उन्हें चाट रहे थे, नथुनों से उनकी सुगन्धि का आस्वादन कर रहे थे और भुजाओं से उनका आलिंगन कर रहे थे। अब उनके विगत पापों का उन्मूलन हो चुका था। राजाओं ने भगवान हरि के चरणों पर शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया।

7 भगवान कृष्ण को देखने के आनन्द से उनके बन्दी होने की थकावट दूर हो जाने पर सारे राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गए और उन्होंने हृषिकेश की प्रशंसा की।

8 राजाओं ने कहा: हे शासनकर्ता देवताओं के स्वामी, हे शरणागत भक्तों के क्लेश को नष्ट करनेवाले, हम आपको नमस्कार करते हैं। चूँकि हमने आपकी शरण ग्रहण की है, अतः हे अव्यय कृष्ण, हमें इस विकट भौतिक जीवन से बचाईये, जिसने हमें इतना निराश बना दिया है।

9 हे प्रभु मधुसूदन, हम इस मगधराज को दोष नहीं देते क्योंकि वास्तव में यह तो आपकी कृपा है कि हे विभु, सारे राजा अपने राजपद से नीचे गिरते हैं।

10 अपने ऐश्वर्य तथा शासनशक्ति के मद से चूर राजा आत्मसंयम खो देता है और अपना असली कल्याण प्राप्त नहीं कर सकता। इस तरह आपकी मायाशक्ति से मोहग्रस्त होकर वह अपनी क्षणिक सम्पदा को स्थायी मान बैठता है।

11 जिस तरह बालबुद्धि वाले लोग मरुस्थल में मृगतृष्णा को जलाशय मान लेते हैं, उसी तरह जो अविवेकी हैं, वे माया के विकारों को वास्तविक मान लेते हैं।

12-13 इसके पूर्व धन के मद से अन्धे होकर हमने इस पृथ्वी को जीतना चाहा था और इस तरह हम अपनी ही प्रजा को क्रूरतापूर्वक यातना देते हुए विजय पाने के लिए एक-दूसरे से लड़ते रहे। हे प्रभु, हमने दम्भ में आकर अपने समक्ष मृत्यु रूप में उपस्थित आपका अनादर किया। किन्तु हे कृष्ण, अब आपका वह शक्तिशाली स्वरूप जो काल कहलाता है और रहस्यमय ढंग से तथा दुर्दम रूप में गतिशील है उसने हमसे हमारे ऐश्वर्य छीन लिये हैं। चूँकि अब आपने दया करके हमारे गर्व को नष्ट कर दिया है, अतएव हमारी आपसे याचना है कि हम केवल आपके चरणकमलों का स्मरण करते रहें।

14 हम अब कभी भी मृगतृष्णा तुल्य ऐसे राज्य के लिए लालायित नहीं होंगे जो इस मर्त्य शरीर द्वारा सेवित हो वह शरीर जो रोग तथा कष्ट का कारण हो और प्रत्येक क्षण क्षीण होने वाले हो। हे विभु, न ही हम अगले जन्म में पुण्यकर्म के दिव्य फल भोगने की लालसा रखेंगे क्योंकि ऐसे फलों का वायदा कानों के लिए रिक्त बहलावे के समान है।

15 कृपया हमें बतलाएँ कि हम किस तरह आपके चरणकमलों का निरन्तर स्मरण कर सकें, यद्यपि हम इस संसार में जन्म-मृत्यु के चक्र में घूम रहे हैं।

16 हम वसुदेव के पुत्र भगवान कृष्ण अर्थात हरि को बारम्बार नमस्कार करते हैं। वह परमात्मा गोविन्द उन सबों के कष्टों को दूर कर देते हैं, जो उनकी शरण में जाते हैं।

17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह बन्धन से मुक्त हुए राजाओं ने भगवान की प्रशंसा की। तब हे परीक्षित, दयालु शरणदाता ने मधुर वाणी में उनसे कहा।

18 भगवान ने कहा: हे राजाओं, आज से तुम लोगों को मुझ परमात्मा तथा ईश्वर में दृढ़ भक्ति प्राप्त होगी। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम जैसे चाहोगे वैसे ही यह भक्ति चलती रहेगी।

19 हे राजाओं, सौभाग्यवश तुम लोगों ने सही निर्णय किया है और जो कुछ कहा है, वह सच है। मनुष्यों में आत्मसंयम के अभाव से जो कि ऐश्वर्य तथा शक्ति के मद के कारण उत्पन्न होता है, मादकता ही आती है।

20 हैहय, नहुष, वेण, रावण, नरक तथा देवताओं, पुरुषों और असुरों के अन्य अनेक शासक अपने ऊँचे पदों से इसीलिए नीचे गिरे, क्योंकि वे भौतिक ऐश्वर्य से मदोन्मत्त हो उठे थे।

21 यह समझते हुए कि यह भौतिक शरीर तथा इससे सम्बद्ध हर वस्तु का आदि तथा अन्त है, वैदिक यज्ञों के द्वारा मेरी पूजा करो और धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार विमल बुद्धि से अपनी प्रजा की रक्षा करो।

22 सन्तानों की पीढ़ियों की पीढ़ियाँ उत्पन्न करते तथा सुख-दुख, जन्म एवं मृत्यु का सामना करते तुम लोग जीवन बिताते समय सदैव अपने मन को मुझ पर स्थिर रखना।

23 शरीर तथा उससे सम्बद्ध हर वस्तु से विरक्त हो जाओ। आत्मतुष्ट रहकर अपने मन को मुझमें एकाग्र करते हुए अपने व्रतों का दृढ़ता से पालन करो। इस तरह तुम लोग अन्त में मुझ परम सत्य को प्राप्त कर सकोगे।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार राजाओं को आदेश देकर समस्त लोकों के परम स्वामी भगवान कृष्ण ने समस्त सेवकों तथा सेविकाओं को उन्हें सँवारने के काम में लगा दिया।

25 हे भारत, तब भगवान ने राजा सहदेव से वस्त्र, आभूषण, मालाएँ तथा चन्दन-लेप आदि राजोचित भेंटें दिलाकर उन राजाओं का सम्मान कराया।

26 जब वे सब भलीभाँति सज-धज गये तो भगवान कृष्ण ने उनके लिए उत्तम भोजन की व्यवस्था कराई। उन्होंने उन सबको राजोचित वस्तुएँ यथा पान इत्यादि वस्तुएँ भी भेंट कीं।

27 भगवान मुकुन्द द्वारा सम्मानित किये गये एवं कष्ट से मुक्त हुए राजागण अपने कानों के चमकते कुण्डलों सहित वैसे ही शोभायमान हुए जिस तरह वर्षा ऋतु की समाप्ति पर आकाश में चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह चमकने लगते हैं।

28 तत्पश्चात भगवान ने उन राजाओं को सुन्दर घोड़ों से खींचे जाने वाले, रत्नों एवं स्वर्ण से सुसज्जित रथों पर चढ़वाकर और मधुर शब्दों से प्रसन्न करके उन्हें उनके राज्यों में वापस भिजवा दिया।

29 इस तरह पुरुषों में महानतम कृष्ण द्वारा सारे कष्टों से मुक्त किये गये राजागण विदा हुए और जब वे जा रहे थे, तो वे एकमात्र उन ब्रह्माण्ड के स्वामी तथा उनके अद्भुत कृत्यों के विषय में ही सोच रहे थे।

30 राजाओं ने जाकर अपने मंत्रियों तथा अन्य संगियों से वे सारी बातें बतलाई जो भगवान ने कही थीं और तब उन्होंने जो आदेश दिये थे, उनका कर्मठता के साथ पालन किया।

31 भीमसेन द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर, भगवान कृष्ण ने राजा सहदेव की पूजा स्वीकार की और तब पृथा के दोनों पुत्रों के साथ विदा हुए।

32 जब वे इन्द्रप्रस्थ आ गये तो विजयी वीरों ने अपने शंख बजाये जिससे उनके शुभचिन्तक मित्रों को तो हर्ष हुआ, किन्तु उनके शत्रुओं को सन्ताप पहुँचा।

33 उस ध्वनि को सुनकर इन्द्रप्रस्थ के निवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए, क्योंकि वे समझ गये कि अब मगध के राजा का अन्त कर दिया गया है। राजा युधिष्ठिर ने अनुभव किया कि अब उनके मनोरथ पूरे हो गये।

34 भीम, अर्जुन तथा जनार्दन ने राजा को प्रणाम किया और जो कुछ उन्होंने किया था, वह सब उनसे कह सुनाया।

35 भगवान कृष्ण ने उन पर जो महती कृपा की थी उसका विवरण सुनकर धर्मराज ने भावातिरेक के अश्रु बहाये। उन्हें इतने प्रेम का अनुभव हुआ कि वे कुछ भी कह नहीं पाये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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