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अध्याय साठ – रुक्मिणी के साथ कृष्ण का परिहास (10.60)

1 श्री बादरायणी ने कहा: एक दिन ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक गुरु भगवान कृष्ण शयनागार में आराम से बैठे थे। महारानी रुक्मिणी अपनी दासियों के साथ अनेक प्रकार से भगवान की सेवा कर रही थी।

2 इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाले, अजन्मे परम नियन्ता भगवान ने, धार्मिक नियमों को सुरक्षित रखने के लिए यदुवंश में जन्म लिया।

3-6 महारानी रुक्मिणीजी का महल अत्यन्त सुन्दर था। महल में स्थित कमरे में चँदोवे से मोतियों की चमकीली लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। तेजोमय मणियों के दीपक जगमगा रहे थे। चमेली तथा अन्य फूलों की मालाएँ महक रही थी, जिनसे गुनगुनाते भौंरों के समूह आकृष्ट हो रहे थे। जालीदार झरोखों से आनेवाली चन्द्रमा की निर्मल किरणें चमक रही थी। उद्यान में पारिजात उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों से अगुरु की सुगन्ध बाहर निकल रही थी। दूध के फेन के समान उज्ज्वल बिछौने से युक्त सुन्दर पलंग पर एक भव्य तकिये के सहारे, भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे। महारानी समस्त लोकों के परमेश्वर अपने पति की सेवा कर रही थीं।

7 देवी रुक्मिणी ने अपनी दासी के हाथ से रत्नों की डंडी वाला पंखा ले लिया और भगवान पर पंखा झलकर सेवा करने लगीं।

8 महारानी रुक्मिणी का हाथ अँगूठियों, चूड़ियों तथा चामर पंखे से सुशोभित था। वे भगवान कृष्ण के निकट खड़ी हुई अतीव सुन्दर लग रही थीं। उनके रत्नजटित पायल शब्द कर रहे थे तथा उनके गले की माला चमचमा रही थी। वे कमर में अमूल्य करधनी पहने थीं।

9 भगवान कृष्ण ने जब रुक्मिणी का लक्ष्मी के रूप में चिन्तन किया जो केवल उन्हें चाहती हैं, तो उन्हें मन्द हँसी आ गई। भगवान अपनी लीलाएँ करने के लिए नाना रूप धारण करते हैं। वे अत्यन्त प्रसन्न थे कि लक्ष्मी ने जो रूप धारण कर रखा था वह उनकी प्रेयसी होने के अनुरूप है। रुक्मिणीजी का मनोहारी मुखमण्डल घुँघराले बालों, कुण्डलों, गले में पड़े हार तथा उज्ज्वल प्रसन्न मुसकान के अमृत से सुशोभित था। तब भगवान ने उनसे इस प्रकार कहा।

10 भगवान ने कहा: हे राजकुमारी, तुम्हारे साथ लोकपालों जैसे शक्तिशाली अनेक राजा पाणिग्रहण करना चाहते थे। वे सभी राजनैतिक प्रभाव, सम्पत्ति, सौन्दर्य, उदारता तथा शारीरिक शक्ति से ऊर्जित थे।

11 जब तुम्हें तुम्हारे भाई तथा पिता ने उनको अर्पित कर दिया था, तो फिर तुमने चेदि के राजा तथा उन अन्य विवाहार्थियों को क्यों अस्वीकार कर दिया जो कामोन्मत्त हुए तुम्हारे समक्ष खड़े थे? तुमने हमें ही क्यों चुना जो तुम्हारे समान नहीं हैं?

12 हे सुन्दरी, इन राजाओं से भयभीत होकर हमने समुद्र में शरण ली। हम शक्तिशाली राजाओं के शत्रु बन गए और हमने अपने राज सिंहासन को प्रायः त्याग दिया था।

13 हे सुन्दरी, जब स्त्रियाँ ऐसे पुरुषों के साथ रहती है जिनका आचरण अनिश्चित होता है और जो समाज-सम्मत मार्ग का अनुसरण नहीं करते तो प्रायः उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है।

14 हमारे पास भौतिक सम्पत्ति नहीं है और हम उन्हें ही प्रिय हैं जिनके पास हमारी ही तरह कुछ भी नहीं होता इसलिए हे सुमध्यमे, धनी लोग शायद ही हमारी पूजा करते हों।

15 विवाह तथा मैत्री उन दो मनुष्यों के मध्य ही उचित होती है जो समान सम्पत्ति, जन्म, प्रभाव तथा आकृति वाले हों, किन्तु अपने से उत्तम या अधम के मध्य नहीं।

16 हे वैदर्भी, दूरदर्शी न होने से तुमने इसका विचार नहीं किया और इसीलिए तुमने अपने पति रूप में हमें चुना है यद्यपि हममें कोई सद्गुण नहीं है और मुग्ध भिखारी ही हमारी प्रशंसा करते हैं।

17 अब तुम्हें चाहिए कि अधिक उपयुक्त किसी उच्च कोटि के राजन्य पुरुष को स्वीकार कर लो जो तुम्हें इस जीवन तथा अगले जीवन में भी ऐसी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करने में सहायता कर सके, जो तुम चाहती हो।

18-19 हे सुन्दरी – शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी सभी मुझसे घृणा करते हैं। इन्हीं राजाओं की उद्दण्डता को दूर करने के लिए ही, हे कल्याणी, मैं तुम्हें हर लाया क्योंकि ये सभी शक्ति के मद से अन्धे हो चले थे। मेरा उद्देश्य दुष्टों की शक्ति को चूर करना है।

20 हम स्त्रियों, बच्चों तथा सम्पत्ति की तनिक भी परवाह नहीं करते। सदैव आत्मतुष्ट रहते हुए हम शरीर तथा घर के लिए कार्य नहीं करते बल्कि प्रकाश की तरह हम केवल साक्षी रहते हैं।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: रुक्मिणी ने स्वयं को भगवान की विशिष्ट प्रिया समझ रखा था क्योंकि उन्होंने कभी भी भगवान का संग नहीं छोड़ा था। इसी गर्व को दूर करने के लिए – भगवान इस प्रकार कहकर चुप हो गये।

22 रुक्मिणीदेवी ने इसके पूर्व अपने प्रिय त्रिलोकेश-पति से ऐसी अप्रिय बातें नहीं सुनी थीं अतः वे भयभीत हो उठीं। उनके हृदय में कँपकपी शुरु हो गई और भीषण उद्विग्नता में वे रोने लगीं।

23 वे लाल-लाल चमकीले नाखूनों से युक्त अपने कोमल पाँव से भूमि कुरेदने लगीं और अपनी आँख में लगे काजल द्वारा काले हुए आँसुओं ने कुमकुम से रंगे हुए वक्षस्थल को भिगो दिया। वे मुख नीचा किये खड़ी रही और अत्यधिक शोक से उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई।

24 रुक्मिणी का मन दुख, भय तथा शोक से अभिभूत हो गया। उनकी चूड़ियाँ हाथ से सरक गईं और पंखा (चँवर) जमीन पर गिर पड़ा। वे मोहवश सहसा मूर्छित हो गई, उनके बाल बिखर गये और वे भूमि पर इस तरह गिर पड़ी जिस तरह हवा से उखड़ा हुआ केले का वृक्ष गिर पड़ता है।

25 यह देखकर कि उनकी प्रिया उनके प्रेम से इस तरह बँधी हैं, वे उनके तंग करने के पूरे आशय को नहीं समझ सकीं, दयालु भगवान कृष्ण को उन पर दया आ गई।

26 भगवान तुरन्त बिस्तर से उतर आये। चार भुजाएँ प्रकट करते हुए उन्होंने रुक्मिणी को उठाया, उनके बाल ठीक किए और कर-कमलों से उनका मुख सहलाया।

27-28 हे राजन, उनके अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछ कर अपने भक्तों के लक्ष्य भगवान ने अपनी सती पत्नी का आलिंगन किया जो एकमात्र उन्हीं को चाह रही थीं। सान्त्वना देने की कला में पटु श्रीकृष्ण ने दयनीय रुक्मिणी को मृदुता से ढाढ़स बँधाया जिनका मन भगवान के चातुरीपूर्ण हास-परिहास से भ्रमित था और जो इस तरह कष्ट भोगने के योग्य न थीं।

29 भगवान ने कहा: हे वैदर्भी, तुम मुझसे नाराज मत होओ। मैं जानता हूँ कि तुम पूरी तरह मुझमें समर्पित हो। हे प्रिय देवी, मैंने तो ठिठोली में ऐसा कहा था क्योंकि मैं सुनना चाहता था कि तुम क्या कहोगी।

30 मैं यह भी चाहता था कि प्रणयकोप में काँपते तुम्हारे अधर, तिरछी चितवनों वाली तुम्हारी आँखों के लाल-लाल कोर तथा क्रोध से तनी तुम्हारी सुन्दर भौंहों की रेखा से युक्त तुम्हारा मुख देख सकूँ ।

31 हे भीरु एवं चंचल, संसारी गृहस्थजन घर में जो सबसे बड़ा आनन्द लूट सकते हैं, वह है अपनी प्रियतमाओं के साथ परिहास करने में बिताया जाने वाला समय।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, महारानी वैदर्भी भगवान द्वारा पूरी तरह परिशान्त कर दी गई और वे समझ गई कि भगवान ने परिहास किया है। इस तरह महारानी रुक्मिणी का यह भय जाता रहा कि कृष्ण उनका परित्याग कर देंगे।

33 हे भरतवंशी, भगवान के मुख पर अपनी आकर्षक तथा स्नेहिल चितवन डालते हुए रुक्मिणी लज्जा से हँसते हुए भगवान से इस प्रकार बोलीं।

34 श्री रुक्मिणी ने कहा: हे कमल-नयन, आपने जो कहा है वस्तुतः वह सच है। मैं सचमुच सर्वशक्तिमान भगवान के अनुपयुक्त हूँ। कहाँ तीन प्रमुख देवों के स्वामी एवं अपनी ही महिमा में मग्न रहने वाले भगवान और कहाँ मैं संसारी गुणों वाली स्त्री जिसके चरण मूर्खजन ही पकड़ते हैं?

35 हाँ, भगवान उरुक्रम, आप समुद्र के भीतर शयन करते हैं मानो भौतिक गुणों से भयभीत हों और इस तरह आप शुद्ध चेतना में हृदय के भीतर परमात्मा रूप में प्रकट होते हैं। आप निरन्तर मूर्ख इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि आपके दास भी अज्ञान के अंधकार में ले जाने वाले साम्राज्य के अवसर को दुत्कार देते हैं।

36 जब आपकी गतिविधियाँ, उन मुनियों के लिए भी अस्पष्ट हैं, जो आपके चरणकमलों के मधु का आस्वादन करते हैं, तो फिर वे निश्चय ही मनुष्यों की समझ में न आने वाली हैं, जो पशुओं जैसा आचरण करते हैं और हे सर्वशक्तिमान प्रभु, जिस तरह आपके कार्यकलाप दिव्य हैं उसी तरह आपके अनुयायियों के भी हैं।

37 आपके पास कुछ भी नहीं हैं क्योंकि आपसे परे कुछ भी नहीं है। हे परम भोक्ता – ब्रह्मा तथा अन्य देवता तक आपको नमस्कार करते हैं। जो लोग अपनी सम्पत्ति से अन्धे हुए रहते हैं और अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में लीन रहते हैं, वे काल रूप आपको नहीं पहचान पाते। देवताओं को आप उसी तरह परम प्रिय हैं जिस तरह वे आपको हैं।

38 आप समस्त मानवीय लक्ष्यों के साकार रूप हैं और आप ही जीवन के अन्तिम लक्ष्य हैं। हे सर्वशक्तिमान विभु आपको प्राप्त करने के इच्छुक बुद्धिमान व्यक्ति अन्य सारी वस्तुओं का परित्याग कर देते हैं। वे ही आपके सान्निध्य के पात्र हैं, न कि वे स्त्री तथा पुरुष जो पारस्परिक विषय-सुख से उत्पन्न सुख तथा दुख में लीन रहते हैं।

39 यह जानते हुए कि संन्यासियों का दण्ड त्यागे हुए महामुनि आपके यश का बखान करते हैं, कि आप तीनों जगतों के परमात्मा हैं और आप इतने दानी हैं कि अपने आपको भी दे डालते हैं, मैंने ब्रह्मा, शिव तथा स्वर्ग के शासकों को, जिनकी महत्वाकांक्षाएँ आपकी भृकुटी से उत्पन्न काल के वेग से नष्ट हो जाती हैं, त्याग कर आपको अपने पति रूप में चुना है। तो फिर अन्य किसी विवाहार्थी में मेरी क्या रुचि हो सकती थी?

40 हे प्रभु जिस तरह सिंह भेंट का अपना उचित भाग लेने के लिए छोटे पशुओं को भगा देता है उसी तरह आपने शार्ङ्ग धनुष की टनकार से एकत्रित राजाओं को भगा दिया और फिर मुझे अपने उचित भाग के रूप में अपना लिया। अतः हे गदाग्रज, आपके द्वारा यह कहना युक्ति-संगत नहीं है कि आपने उन राजाओं के भय से समुद्र में शरण ग्रहण की।

41 आपका सान्निध्य प्राप्त करने की अभिलाषा से अंग, वैन्य, जायन्त, नाहुष, गय तथा अन्य श्रेष्ठ राजाओं ने अपना भरा-पूरा साम्राज्य त्याग कर आपकी खोज करने के लिए जंगल में प्रवेश किया।

42 हे कमलनयन, वे राजा आपके मार्ग का अनुसरण करने में क्या किसी प्रकार का कष्ट उठा रहे हैं? आपके चरणकमलों की सुगन्ध, जिसकी महिमा बड़े बड़े सन्त गाते हैं, लोगों को मोक्ष प्रदान करती है और यही लक्ष्मीजी का धाम है। इस सुगन्ध को सूँघ कर कौन स्त्री होगी जो किसी अन्य की शरण में जायेगी? चूँकि आप दिव्य गुणों के धाम हैं अतः ऐसी कौन-सी मर्त्य स्त्री होगी जो अपने सच्चे स्वार्थ को पहचानने की अन्तर्दृष्टि से युक्त होकर उस सुगन्ध का अनादर करेगी और किसी ऐसे पर आश्रित होगी जो सदैव महान भय से आतंकित रहता हो?

43 चूँकि आप मेरे अनुरूप हैं इसलिए मैंने तीनों जगत के स्वामी तथा परमात्मा आपको ही चुना है, जो इस जीवन में तथा अगले जीवन में हमारी इच्छाओं को पूरा करते हैं। आपके चरण, जो अपने उन पूजकों के पास पहुँच कर मोह से मुक्ति दिलाते हैं – जो एक योनि से दूसरी योनि में भ्रमण करते रहे हैं – मुझे शरण प्रदान करें।

44 हे अच्युत कृष्ण, आपने जिन राजाओं के नाम लिये हैं उनमें से कोई राजा ऐसी स्त्री का पति बन जाये जिसके कानों ने कभी भी – आपकी उस महिमा का श्रवण नहीं किया जो शिव तथा ब्रह्मा की सभाओं में गाई जाती है – ऐसी स्त्रियों के घरों में ये राजा गधों, बैलों, कुत्तों, बिल्लियों तथा नौकरों की तरह रहते हैं।

45 जो स्त्री आपके चरणकमलों के मधु की सुगन्ध का आस्वादन करने से वंचित रह जाती है, वह पूरी तरह मूर्ख (मूढ़) बनकर रह जाती है और चमड़ी, मूँछ, नाखून, बाल तथा रोओं से ढके और माँस, आस्थियों, रक्त, कीट, मल, कफ, पित्त तथा वायु से भरे जीवित शव को पति या प्रेमी रूप में स्वीकार करती है।

46 हे कमल-नयन, यद्यपि आप अपने में तुष्ट रहते हैं जिससे शायद ही कभी मेरी ओर ध्यान देते हैं, तो भी कृपा करके मुझे अपने चरणकमलों के प्रति स्थायी प्रेम का आशीर्वाद दें। जब आप ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के लिए रजोगुण की प्रधानता धारण करते हैं तभी आप मुझ पर दृष्टि डालते हैं, जो निस्सन्देह मेरे ऊपर आपकी महती कृपा होती है।

47 हे मधुसूदन, मैं आपके वचनों को असत्य नहीं मानती। प्रायः अविवाहिता लड़की पुरुष के प्रति आकृष्ट हो जाती है जैसा अम्बा के साथ हुआ।

48 कुलटा स्त्री का मन सदैव नवीन प्रेमियों के लिए लालायित रहता है, चाहे वह विवाहिता क्यों न हो। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी कुलटा स्त्री को अपने साथ न रखे क्योंकि यदि वह ऐसा करेगा तो वह इस जीवन में तथा अगले जीवन में सौभाग्य से वंचित रहेगा।

49 भगवान ने कहा: हे साध्वी, हे राजकुमारी, हमने तुम्हें इसीलिए झुठलाया क्योंकि हम तुम्हें इस प्रकार बोलते हुए सुनना चाहते थे। निस्सन्देह तुमने हमारे वचनों के उत्तर में जो बातें कही हैं, वे एकदम सही हैं।

50 हे सुन्दर तथा सुशील स्त्री, तुम भौतिक इच्छाओं से मुक्त होने के लिए जिस भी वर की आशा रखती हो वे तुम्हारे हैं क्योंकि तुम मेरी अनन्य भक्त हो।

51 हे निष्पाप, अब मैंने तुम्हारा शुद्ध पति-प्रेम तथा पातिव्रत्य देख लिया है। यद्यपि तुम मेरे वचनों से विचलित थीं किन्तु तुम्हारा मन मुझसे दूर नहीं ले जाया जा सका।

52 यद्यपि मुझमें आध्यात्मिक मोक्ष प्रदान करने की शक्ति है किन्तु विषयी लोग अपने संसारी गृहस्थ जीवन के लिए मेरा आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए तपस्या तथा व्रतों द्वारा मेरी पूजा करते हैं। ऐसे लोग मेरी माया-शक्ति द्वारा मोहग्रस्त रहते हैं।

53 हे मानिनी, अभागे वे हैं, जो मोक्ष तथा भौतिक सम्पदा दोनों ही के स्वामी मुझको पाकर भी, केवल भौतिक सम्पदा के लिए ही लालायित रहते हैं। ये सांसारिक लाभ तो नरक में भी पाये जा सकते हैं। चूँकि ऐसे व्यक्ति इन्द्रिय-तृप्ति में लीन रहते हैं इसलिए नरक ही उनके लिए उपयुक्त स्थान है।

54 हे गृहस्वामिनी, सौभाग्यवश तुमने मेरी श्रद्धापूर्वक भक्ति की है, जो मनुष्य को संसार से मुक्त कराती है। ईर्ष्यालु के लिए यह सेवा अत्यन्त कठिन है, विशेषतया उस स्त्री के लिए जिसके मनोभाव दूषित हैं, जो शारीरिक क्षुधा शान्त करने के लिए ही जीवित है और जो छलछद्म में लिप्त रहती है।

55 हे सर्वाधिक आदरणीया, मुझे अपने सारे आवासों में तुम जैसी प्रेम करने वाली अन्य पत्नी ढूँढे नहीं मिलती। जब तुम्हारा ब्याह होने वाला था, तो तुमसे विवाह करने के इच्छुक जितने राजा एकत्र हुए थे उनकी परवाह तुमने नहीं की और क्योंकि तुमने मेरे विषय में प्रामाणिक बातें ही सुन रखी थीं। तुमने अपना गुप्त सन्देश एक ब्राह्मण के हाथ मेरे पास भेजा।

56 जब तुम्हारा भाई युद्ध में पराजित होकर विरूप कर दिया गया और अनिरुद्ध के विवाह के दिन चौसर खेलते समय मार डाला गया तो तुम्हें असह्य दुख हुआ। फिर भी तुमने मुझसे विलग होने के भय से एक शब्द भी नहीं कहा। अपनी इस चुप्पी से तुमने मुझे जीत लिया है।

57 जब तुमने अपनी अत्यन्त गुप्त योजना के साथ अपना दूत भेजा था और तब मुझे तुम्हारे पास जाने में विलम्ब हुआ था, तो तुम्हें सारा संसार शून्य जैसा दिखने लगा था और तुम अपना वह शरीर त्यागना चाह रही थी जिसे तुम मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं दे सकती थी। तुम्हारी यह महानता सदैव तुममें बनी रहे। तुम्हारी इस भक्ति और प्रेम-भाव के लिए हम केवल अभिनन्दन करते हैं।

58 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह ब्रह्माण्ड के स्वामी आत्माराम भगवान ने उन्हें प्रेमियों की वार्ता में लगाकर मानव समाज की रीतियों का अनुकरण करते हुए लक्ष्मीजी के साथ रमण किया।

59 समस्त लोकों के गुरु सर्वशक्तिमान भगवान हरि ने इसी तरह से अपनी अन्य रानियों के महलों में गृहस्थ के धार्मिक कृत्य सम्पन्न करते हुए पारम्परिक गृहस्थ की तरह आचरण किया।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!
    !! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !!!!!
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