10891501270?profile=RESIZE_400x

अध्याय अड़तीस - वृन्दावन में अक्रूर का आगमन (10.38) 

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: महामति अक्रूर ने वह रात मथुरा में बिताई और तब अपने रथ पर सवार होकर नन्द महाराज के ग्वाल-ग्राम के लिए रवाना हुए।

2 मार्ग में यात्रा करते हुए महात्मा अक्रूर को कमलनेत्र भगवान के प्रति अपार भक्ति का अनुभव हुआ अतः वे इस प्रकार सोचने लगे। श्री अक्रूर ने सोचा: मैंने ऐसे कौन-से शुभ कर्म किये हैं, ऐसी कौन-सी कठिन तपस्या की है, ऐसी कौन-सी पूजा की है या ऐसा कौन-सा दान दिया है, जिससे आज मैं भगवान केशव का दर्शन करूँगा।

4 चूँकि मैं विषयभोगों में लीन रहने वाला भौतिकतावादी व्यक्ति हूँ अतः उत्तम श्लोक में स्तुति किए जाने वाले भगवान का दर्शन करने का यह अवसर प्राप्त कर पाना उसी तरह कठिन है, जिस तरह शूद्र के रूप में जन्मे व्यक्ति के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारण करने की अनुमति प्राप्त करना होता है।

5 किन्तु बहुत हुआ, छोड़ो इन विचारों को, आखिर मुझ जैसे पतितात्मा को भी अच्युत भगवान के दर्शन का अवसर प्राप्त हो सकता है क्योंकि काल रूपी नदी के प्रवाह में बह रहे बद्ध-आत्माओं में से कोई एक आत्मा तो कभी-कभी किनारे तक पहुँच ही सकता है।

6 मेरा जन्म सफल हो गया है और आज मेरे समस्त पापकर्मों का उन्मूलन हो चुका है – क्योंकि मैं भगवान के उन चरणकमलों को नमस्कार करूँगा जिनका ध्यान बड़े बड़े योगी करते हैं।

7 निस्सन्देह, आज कंस ने मुझे उन भगवान हरि के चरणकमलों का दर्शन करने के लिए भेजकर मेरे ऊपर महती कृपा की है, जिन्होंने अब इस संसार में अवतार लिया है। भूतकाल में उनके चरण-नखों के तेज से ही इस भौतिक संसार के दुर्लंघ्य अंधकार को अनेक आत्माओं ने पार करके मुक्ति प्राप्त की है।

8 उन्हीं चरणकमलों की ब्रह्मा, शिव तथा अन्य सारे देवता, लक्ष्मीजी तथा बड़े बड़े मुनि और वैष्णव पूजा करते हैं। उन्हीं चरणकमलों से भगवान अपने संगियों सहित गौवें चराते समय जंगल में विचरण करते हैं।

9 अवश्य ही मैं भगवान मुकुन्द के मुख को देखूँगा क्योंकि अब हिरण मेरी दाई ओर से निकल रहे हैं। वह मुख घुँघराले बालों से घिरा है और उनके आकर्षक गालों तथा नाक, उनकी मन्द हासयुक्त चितवन तथा लाल कमल जैसी आँखों से शोभायमान है।

10 मुझे समस्त सौन्दर्य के आगार उन भगवान विष्णु के दर्शन होंगे जिन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वेच्छा से मनुष्य जैसा स्वरूप धारण किया है। इस तरह इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरी आँखों को उनके अस्तित्व का फल प्राप्त हो जायेगा।

11 वे भौतिक कार्य-कारण के साक्षी हैं फिर भी वे उनकी झूठी पहचान से अपने को सदैव पृथक रखते हैं। वे अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा पृथकत्व तथा भ्रम के अंधकार को दूर करते हैं। जब वे अपनी दृष्टि भौतिक सृजन-शक्ति पर डालते हैं, तो इस जगत में जीव प्रकट होते हैं और ये जीव उन्हें अपनी प्राण-वायु, इन्द्रियों तथा बुद्धि कार्यों में अप्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं।

12 भगवान के गुणों, कर्मों तथा अवतारों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा समस्त सौभाग्य उत्पन्न करने वाले – इन तीनों का वर्णन करने वाले शब्द संसार को जीवनदान देते हैं, उसे सुशोभित बनाते हैं और शुद्ध करते हैं। दूसरी ओर, उनकी महिमा से विहीन शब्द शव की सजावट करने जैसे होते हैं।

13 वे ही भगवान सात्वत वंश में प्रमुख देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अवतरित हुए हैं, जो उनके द्वारा निर्मित धर्म के नियमों को धारण करने वाले हैं। वे वृन्दावन में रहते हुए अपने यश का विस्तार करते हैं जिसकी महिमा का गायन देवतागण करते हैं, जो सबों को सौभाग्य प्रदान करने वाला है।

14 आज मैं उनका दर्शन करूँगा, जो महात्माओं के गन्तव्य तथा आध्यात्मिक गुरु हैं। सभी नेत्रवानों को उनके दर्शन से हर्ष होता है क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के असली सौन्दर्य हैं। निस्सन्देह उनका साकार रूप लक्ष्मीजी द्वारा अभीप्सित (अभिलाषित/इच्छित) आश्रय है। अब मेरे जीवन के समस्त प्रभात शुभ बन चुके हैं।

15 तब मैं तुरन्त अपने रथ से नीचे उतर आऊँगा और भगवान कृष्ण तथा भगवान बलराम के उन चरणकमलों को नमस्कार करूँगा, जिन्हें आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील बड़े बड़े योगी अपने मन के भीतर धारण करते हैं। मैं दोनों के बालमित्रों तथा वृन्दावन के अन्य समस्त वासियों को भी अपना नमस्कार निवेदित करूँगा।

16 जब मैं उनके चरणों पर गिर पड़ूँगा तो सर्वशक्तिमान प्रभु मेरे सिर पर अपना करकमल रख देंगे। जो लोग काल रूपी शक्तिशाली सर्प से भयभीत होकर उनकी शरण में जाते हैं, उन्हें ये करकमल – उनके सारे भय को दूर कर देते हैं।

17 उस कमल सदृश हाथ में दान देकर पुरन्दर तथा बलि ने स्वर्ग के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त किया और रासनृत्य की आनन्द लीलाओं के समय भगवान के दिव्य सुगन्धित करकमलों के स्पर्श ने गोपियों की सारी थकान मिटा दी।

18 यद्यपि कंस ने मुझे यहाँ अपना दूत बनाकर भेजा है किन्तु अच्युत भगवान मुझे अपना शत्रु नहीं मानेंगे। आखिर, सर्वज्ञ प्रभु इस भौतिक शरीर रूपी क्षेत्र के वास्तविक ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) हैं और वे अपनी दिव्य दृष्टि से बद्धजीवों के हृदय के सारे प्रयासों को जानते हैं।

19 जब मैं हाथ जोड़कर उनके चरणकमलों को प्रणाम करने के लिए दण्डवत भूमि पर पड़ा रहूँगा और वे अपनी हँसीयुक्त स्नेहमयी चितवन मुझ पर डालेंगे, तब मेरा सारा कल्मष छूमंतर हो जायेगा, मेरे सारे संशय दूर हो जाएँगे और मैं गहन आनन्द का अनुभव करूँगा।

20 अपने घनिष्ठ मित्र तथा सम्बन्धी के रूप में पहचान कर जब कृष्ण मुझे अपने गले लगा लेंगे, उसी क्षण मेरा शरीर पवित्र हो जायेगा और सकाम कर्मों से जनित मेरे भौतिक बन्धन शून्य हो जायेंगे।

21 सर्व-सुविख्यात कृष्ण द्वारा गले लगाये जाने के बाद मैं उनके समक्ष विनम्र भाव से सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर खड़ा रहूँगा और वे मुझसे कहेंगे, “मेरे प्रिय अक्रूर,” उसी क्षण मेरे जीवन का उद्देश्य सफल हो जायेगा। दरअसल जिस व्यक्ति को भगवान मान्यता नहीं देते उसका जीवन दयनीय है।

22 भगवान का न तो कोई अप्रिय है, न प्रिय, न ही वे किसी को अवांछनीय, घृणित या उपेक्षणीय मानते हैं। साथ ही साथ अपने भक्तों से, जिस भाव से वे पूजा करते हैं उसी भाव से प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं, जिस तरह कल्प-वृक्ष अपने पास आने वालों की इच्छाएँ पूरी करते हैं।

23 जब मैं अपना सिर झुकाये हाथ जोड़कर खड़ा होऊँगा तब कृष्ण के बड़े भाई, यदुश्रेष्ठ बलराम मेरे हाथों को थाम लेंगे और फिर मेरा आलिंगन करके वे मुझे अपने घर ले जायेंगे। वहाँ वे सभी प्रकार की अनुष्ठान-सामग्री से मेरा सत्कार करेंगे और मुझसे पूछेंगे कि कंस उनके परिवार वालों के साथ कैसा व्यवहार कर रहा है।

24 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: हे राजन, मार्ग पर जाते हुए श्वफल्क पुत्र अक्रूर कृष्ण के विषय में इस तरह गम्भीरतापूर्वक ध्यान करते करते जब गोकुल पहुँचे तो सूर्य अस्त होने को था।

25 चरागाह में अक्रूर ने उन पैरों के चिन्ह देखे जिनकी शुद्ध धूल को समस्त ब्रह्माण्डों के लोकपाल अपने मुकुटों में धारण करते हैं। भगवान के वे चरणचिन्ह जो कमल, जौ की बाली तथा अंकुश जैसे चिन्हों से पहचाने जा सकते थे, पृथ्वी की शोभा को बढ़ा रहे थे।

26 भगवान के चरणचिन्हों को देखने से उत्पन्न आनन्द से अधिकाधिक विह्वल होने से शुद्ध प्रेम के कारण अक्रूर के शरीर के रोंगटे खड़े हो गए और आँखें आँसुओं से भर आई। वे अपने रथ से नीचे कूद पड़े और उन चरणचिन्हों पर यह चीखकर लौटने लगे, “ओह, यह तो मेरे प्रभु के चरणों की धूल है।"

27 समस्त देहधारी जीवों का जीवन-लक्ष्य – यही आनन्द है, जिसे अक्रूर ने कंस का आदेश पाकर अपना सारा गर्व, भय तथा शोक त्यागकर अनुभव किया तथा अपने आपको भगवान कृष्ण का स्मरण दिलाने वाली वस्तुओं को देखने, सुनने एवं वर्णन करने में लीन कर दिया।

28-33 तत्पश्चात अक्रूर ने व्रज ग्राम में कृष्ण तथा बलराम को गौवें दुहने के लिए जाते देखा। कृष्ण पीले वस्त्र पहने थे और बलराम नीले वस्त्र पहने थे। उनकी आँखें शरदकालीन कमलों के समान थीं। इन दोनों बलशाली भुजाओं वाले, लक्ष्मी के आश्रयों में से एक का रंग गहरा नीला था और दूसरे का श्वेत था। ये दोनों ही समस्त व्यक्तियों में सर्वाधिक सुन्दर थे। जब ये युवक हाथियों की-सी चाल से अपनी दयामय मुस्कानों से निहारते चलते तो ये दोनों महापुरुष अपने पदचिन्हों से चरागाह को सुशोभित बनाते जाते। ये पदचिन्ह पताका, वज्र, अंकुश तथा कमल चिन्हों से युक्त थे। ये अत्यन्त उदार तथा आकर्षक लीलाओं वाले दोनों प्रभु मणिजटित हार तथा फूल-मालाएँ पहने थे, इनके अंग शुभ सुगन्धित द्रव्यों से लेपित थे। ये अभी अभी स्नान करके आये थे और निर्मल वस्त्र पहने हुए थे। इन आदि महापुरुषों तथा ब्रह्माण्डों के आदि कारणों ने पृथ्वी के कल्याण हेतु अब केशव तथा बलराम के रूप में अवतार लिया था। हे राजा परीक्षित, वे दोनों दो स्वर्ण-आभूषित पर्वतों के समान लग रहे थे जिनमें से एक पर्वत मरकत मणि का था और दूसरा चाँदी का था क्योंकि वे अपने तेज से सारी दिशाओं में आकाश के अंधकार को दूर कर रहे थे।

34 स्नेह से अभिभूत होकर अक्रूर तुरन्त अपने रथ से नीचे कूदकर बलराम तथा कृष्ण के चरणों पर डंडे के समान (दण्डवत) गिर पड़े।

35 भगवान के दर्शन की प्रसन्नता से अक्रूर की आँखों में आँसू आ गये और अंगों में आनन्द का उभाड़ हो आया। उन्हें ऐसी उत्कण्ठा हुई कि हे राजन, वे अपने आपको वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सके।

36 भक्त वत्सल भगवान कृष्ण अपने शरणागत भक्तों के प्रति सदैव स्नेहित रहते हैं। उन्होंने अक्रूर को अपने चक्रान्कित हाथों से खींचकर, प्रसन्नता-पूर्वक उनका आलिंगन किया।

37-38 जब अक्रूर अपना सिर झुकाये हाथ जोड़कर खड़े थे तो भगवान संकर्षण (बलराम) ने उनके हाथ पकड़ लिये और तब वे कृष्ण सहित उन्हें अपने घर ले गये। अक्रूर से यह पूछने के बाद कि उनकी यात्रा सुखद तो रही, बलराम ने उन्हें बैठने के लिए श्रेष्ठ आसन दिया, शास्त्रोचित विधि से उनके पाँव पखारे और आदरपूर्वक मधुमिश्रित दूध दिया।

39 सर्वशक्तिमान भगवान बलराम ने अक्रूर को एक गाय भेंट की, उनकी थकान दूर करने के लिए उनके पाँव दबाये और तब परम आदर तथा श्रद्धा के साथ भाँति-भाँति के उत्तम स्वादों से युक्त और उचित विधि से तैयार किया गया भोजन खिलाया।

40 जब अक्रूर भरपेट खा चुके तो धार्मिक कर्तव्यों के परम ज्ञाता भगवान बलराम ने उन्हें मुख को मीठा करने वाले सुगन्धित द्रव्य दिये और साथ ही सुगन्धियाँ तथा फूल-मालाएँ भेंट कीं। इस प्रकार अक्रूर ने पुनः परम आनन्द प्राप्त किया।

41 नन्द महाराज ने अक्रूर से पूछा: हे दशार्ह वंशज, उस निर्दयी कंस के जीवित होते हुए आप सभी किस तरह अपना पालन करते हैं? आप तो कसाई के संरक्षण में भेड़ जैसे हैं।

42 उस क्रूर स्वार्थी कंस ने अपनी बिलखती हुई दुखित बहन की उपस्थिति में ही उसके बच्चों को मार डाला। तो फिर हम तुमसे, जो कि उनकी प्रजा हो, कुशलता के विषय में पूछ ही क्या सकते हैं?

43 नन्द महाराज के इन सत्य तथा मधुर वचनों द्वारा सम्मानित होकर अक्रूर अपनी यात्रा की सारी थकान भूल गये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
  • 🙏🏿हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 🙏🏿
This reply was deleted.