रास नृत्य (10.33)

 

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अध्याय तैंतीस - रास नृत्य (10.33)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब गोपियों ने भगवान को अत्यन्त मनोहारी इन शब्दों में कहते सुना तो वे उनके विछोह से उत्पन्न अपना दुख भूल गई। उनके दिव्य अंगों का स्पर्श पाकर उन्हें लगा कि उनकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो गई।

2 तत्पश्चात भगवान गोविन्द ने वहीं यमुना के तट पर उन स्त्री-रत्न श्रद्धालु गोपियों के संग में रासनृत्य लीला प्रारम्भ की जिन्होंने प्रसन्नता के मारे अपनी बाँहों को एक दूसरे के साथ शृखंलाबद्ध कर दिया।

3 तब उल्लासपूर्ण रासनृत्य प्रारम्भ हुआ जिसमें गोपियाँ एक गोलाकार घेरे में सध गई। भगवान कृष्ण ने अपना विस्तार किया और गोपियों के प्रत्येक जोड़े के बीच-बीच प्रविष्ट हो गये। ज्योंही योगेश्वर ने अपनी भुजाओं को उनके गलों के चारों ओर रखा तो प्रत्येक युवती ने सोचा कि वे केवल उसके ही पास खड़े हैं। इस रासनृत्य को देखने के लिए देवता तथा उनकी पत्नियाँ उत्सुकता से गदगद हुये जा रहे थे। शीघ्र ही आकाश में उनके सैकड़ों विमानों की भीड़ लग गई।

4 तब आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं और फूलों की वर्षा होने लगी। मुख्य गन्धर्वों ने अपनी पत्नियों के साथ भगवान कृष्ण के निर्मल यश का गायन किया।

5 जब गोपियाँ रासनृत्य के मण्डल में अपने प्रियतम कृष्ण के साथ नृत्य करने लगीं तो उनके कंगनों, पायलों तथा करधनी के घुँघरुओं से तुमुल ध्वनि उठती थी।

6 नृत्य करती गोपियों के बीच भगवान कृष्ण अत्यन्त शोभायमान प्रतीत हो रहे थे जिस तरह सोने के आभूषणों के बीच मरकत मणि शोभा पाती है।

7 जब गोपियों ने कृष्ण की प्रशंसा में गीत गाया, तो उनके पाँवों ने नृत्य किया, उनके हाथों ने इशारे किए और उनकी भौंहें हँसी से युक्त होकर मटकने लगीं। जिनकी वेणियाँ तथा कमर की पेटियाँ मजबूत बँधी हुई थीं, जिनकी कमर लचकती हुई थीं, जिनके मुखों पर पसीने की बूँदें झलकती थीं तथा जिनके कानों की बालियाँ गालों पर हिल-डुल रही थीं, कृष्ण की ऐसी तरुणी प्रियाएँ बादल के समूह में बिजली की कौंध की तरह चमक रही थीं।

8 विविध रंगों से रंगे कण्ठो वाली, माधुर्यप्रेम का आनन्द पाने की इच्छुक गोपियों ने जोर जोर से गायन और नृत्य किया। वे कृष्ण का स्पर्श पाकर अति-आनन्दित थीं और उन्होंने जो गीत गाये उनसे सारा ब्रह्माण्ड भर गया।

9 एक गोपी ने भगवान मुकुन्द के गाने के साथ साथ शुद्ध मधुर राग गाया जो कृष्ण के स्वर से भी उच्च सुर-ऊँचे स्वर में था। इससे कृष्ण प्रसन्न हुए और "बहुत अच्छा, बहुत अच्छा" कहकर उसकी प्रशंसा की। तत्पश्चात एक दूसरी गोपी ने वही राग अलापा, जो ध्रुपद के विशेष छन्द में था। कृष्ण ने उसकी भी प्रशंसा की।

10-12 जब एक गोपी रासनृत्य से थक गई तो वह अपनी बगल में खड़े गदाधर कृष्ण की ओर मुड़ी और उसने अपनी बाँह से उनके कंधे को पकड़ लिया। नाचने से उसके कँगन तथा बालों में लगे फूल ढीले पड़ गये थे। कृष्ण ने अपनी बाँह एक गोपी के कंधे पर रख दी जिसमें से प्राकृतिक नीले कमल की सुगन्ध के साथ उसमें लेपित चन्दन की मिली हुई सुगन्ध आ रही थी। ज्योंही गोपी ने उस सुगन्ध का आस्वादन किया त्योंही हर्ष से उसे रोमांच हो उठा।

13 एक अन्य नाचती तथा गाती हुई गोपी, जिसके पाँवों के नूपुर और कमर की करधनी के घुँघरू बज रहे थे, थक गई, अतः उसने अपने पास ही खड़े भगवान अच्युत के सुखद करकमल का आश्रय लिया।

14 लक्ष्मीजी के विशिष्टप्रिय भगवान अच्युत को अपने घनिष्ठ प्रेमी के रूप में पाकर गोपियों ने अथाह दिव्य आनन्द प्राप्त किया। भगवान उनको अपनी भुजाओं में लिये थे और गोपियाँ उनके यश का गान कर रही थीं।

15 कानों के पीछे लगे कमल के फूल, गालों को अलंकृत कर रही बालों की लटें तथा पसीने की बूँदें गोपियों के मुखों की शोभा बढ़ा रही थीं। उनके बाजूबन्दों तथा घुँघरुओं की रुनझुन से जोर की संगीतात्मक ध्वनि उत्पन्न हो रही थी और उनके जुड़े बिखरे हुए थे। इस तरह गोपियाँ भगवान के साथ रासनृत्य के स्थल पर नाचने लगीं और उनका साथ देते हुए भौंरों के झुण्ड गुनगुनाने लगे।

16 इस प्रकार भगवान कृष्ण ने व्रज की युवतियों का आलिंगन कर, उन्हें दुलार कर तथा अपनी तिरछी चितवन से निहार करके अपनी दिव्य लीलाओं का आनन्द प्राप्त किया। यह वैसा ही था जैसे की कोई बालक अपनी परछाई के साथ खेल रहा हो।

17 उनका संसर्ग पा लेने से गोपियों की इन्द्रियाँ हर्ष से अभिभूत हो गई जिसके कारण वे अपने बाल, अपने वस्त्र आवरणों को अस्त-व्यस्त होने से रोक न सकी। हे कुरुवंश के वीर, उनकी मालाएँ तथा उनके गहने बिखर गये।

18 देवताओं की पत्नियाँ अपने विमानों से कृष्ण की क्रीड़ाएँ देखकर सम्मोहित हो गई। वस्तुतः चन्द्रमा तक भी अपने पार्षद तारों समेत चकित हो उठा।

19 वहाँ पर जितनी भी गोपिकाएँ थी उतने ही रूपों में विस्तार करके, भगवान ने खेल खेल में उनकी संगति का दिव्य आनन्द प्राप्त किया यद्यपि वे आत्माराम हैं।

20 यह देखकर कि गोपियाँ माधुर्य विहार करने से थक गई थीं, हे राजन (परीक्षित), दयालु श्रीकृष्ण ने बड़े ही प्रेम से उनके मुखों को अपने सुखद हाथों से पोंछा।

21 अपने गालों के सौन्दर्य, घुँघराले बालों के तेज एवं सुनहरे कुण्डलों की चमक से मधुरित हँसी युक्त चितवनों से गोपियों ने अपने नायक को सम्मान दिया। उनके नखों के स्पर्श से पुलकित होकर वे उनकी शुभ दिव्य लीलाओं का गान करने लगीं।

22 भगवान श्रीकृष्ण की माला गोपियों के साथ माधुर्य विहार करते समय कुचल गई थीं और उनके कुमकुम से सिन्दूरी रंग की हो गई थीं। गोपियों की थकान मिटाने के लिए कृष्ण यमुना के जल में उतर गये, जिनका पीछा तेजी से भौरें कर रहे थे, जो श्रेष्ठतम गन्धर्वों की तरह गा रहे थे। कृष्ण ऐसे लग रहे थे मानों कोई राजसी हाथी अपनी संगिनियों के साथ जल में सुस्ताने के लिये प्रविष्ट हो रहा हो। निस्सन्देह भगवान ने सारी लोक तथा वेद की मर्यादाओं का उसी तरह अतिक्रमण कर दिया जिस तरह एक शक्तिशाली हाथी धान के खेतों को रौंद डालता है।

23 हे राजन, जल में कृष्ण ने अपने ऊपर चारों ओर से हँसती एवं अपनी ओर प्रेमपूर्ण निहारती गोपियों के द्वारा जल उलीचा जाते देखा। जब देवतागण अपने विमानों से उन पर फूल वर्षा करके उनकी पूजा कर रहे थे तो आत्मतुष्ट भगवान हाथियों के राजा की तरह क्रीड़ा करने का आनन्द लेने लगे।

24 तत्पश्चात भगवान ने यमुना के किनारे स्थित एक छोटे से उपवन में भ्रमण किया जो स्थल तथा जल में उगने वाले फूलों की सुगन्धित वायु से भरपूर था।

25 गोपियाँ सत्यकाम कृष्ण के प्रति दृढ़तापूर्वक अनुरक्त थी। जो दिव्य विषयों के काव्यमय वर्णन के लिये प्रेरणा देती हैं, उन चाँदनी से खिली हुई शरदकालीन रात्रियों में भगवान ने अपनी दिव्य लीलाएँ कीं।

26-27 परीक्षित महाराज ने कहा: हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपने स्वांश सहित इस धरा में अधर्म का नाश करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु अवतरित हुए हैं। दरअसल वे आदि वक्ता तथा नैतिक नियमों के पालनकर्ता एवं संरक्षक हैं। तो भला वे अन्य पुरुषों की स्त्रियों का स्पर्श करके उन नियमों का अतिक्रमण कैसे कर सकते थे?

28 हे श्रद्धावान व्रतधारी, कृपा करके हमें ये बतलाकर हमारा संशय दूर कीजिये कि पूर्णकाम यदुपति के मन में वह कौनसा अभिप्राय था जिससे उन्होंने ऐसा आचरण किया।

29 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शक्तिशाली नियन्ताओं के पद पर किसी ऊपरी साहसपूर्ण उल्लंघन से जो हम उनमें देख पायें कोई आँच नहीं आती क्योंकि वे उस अग्नि के समान होते हैं, जो हर वस्तु को निगल जाती है और अदूषित बनी रहती है।

30 जो महान संयमकारी नहीं हैं, उसे शासन करने वाले महान पुरुषों के आचरण की मन से भी कभी नकल नहीं करनी चाहिए। यदि कोई सामान्य व्यक्ति मूर्खतावश ऐसे आचरण की नकल करता है, तो वह उसी तरह विनष्ट हो जायेगा जिस तरह कि विष के सागर को पीने का प्रयास करने वाला व्यक्ति। यदि वह रुद्र नहीं है, नष्ट हो जायेगा।

31 भगवान द्वारा शक्तिप्रदत्त दासों के वचन सदैव सत्य होते हैं और जब वे इन वचनों के अनुरूप कर्म करते हैं, तो वे आदर्श होते हैं। इसलिए जो बुद्धिमान हैं उसको चाहिए कि उनके आदेशों को पूरा करें।

32 हे प्रभु, जब मिथ्या अहंकार से रहित ये महान व्यक्ति इस जगत में पवित्र भाव से कर्म करते हैं, तो उसमें उनका कोई स्वार्थ-भाव नहीं होता और जब वे ऊपरी तौर से पवित्रता के नियमों के विरुद्ध लगने वाले कर्म (अनर्थ) करते हैं, तो भी उन्हें पापों का फल नहीं भोगना पड़ता।

33 तो फिर समस्त सृजित प्राणियों, पशुओं, मनुष्यों तथा देवताओं – के स्वामी भला कोई शुभ तथा अशुभ से किसी प्रकार का सम्बन्ध कैसे रख सकते हैं जिससे उनके अधीनस्थ प्राणी प्रभावित होते हों?

34 जो भगवदभक्त भगवान के चरणकमलों की धूलि का सेवन करते हुए पूर्णतया तुष्ट हैं उन्हें भौतिक कर्म कभी नहीं बाँध पाते। न ही भौतिक कर्म उन बुद्धिमान मुनियों को बाँध पाते हैं जिन्होंने योगशक्ति के द्वारा अपने को समस्त कर्मफलों के बन्धन से मुक्त कर लिया है। तो फिर स्वयं भगवान के बन्धन का प्रश्न कहाँ उठता है, जो स्वेच्छा से दिव्य रूप धारण करने वाले हैं?

35 जो गोपियों तथा उनके पतियों और वस्तुतः समस्त देहधारी जीवों के भीतर साक्षी के रूप में रहता है वही दिव्य लीलाओं का आनन्द लेने के लिए इस जगत में विविध रूप धारण करता है।

36 जब भगवान अपने भक्तों पर कृपा प्रदर्शित करने के लिये मनुष्य जैसा शरीर धारण करते हैं तो वे ऐसी क्रीड़ाएँ करते हैं जिनके विषय में सुनने वाले आकृष्ट होकर भगवत्परायण हो जाय।

37 कृष्ण की मायाशक्ति से मोहित सारे ग्वालों ने सोचा कि उनकी पत्नियाँ घरों में उनके निकट ही रहती रही थीं। इस तरह उनमें कृष्ण के प्रति कोई ईर्ष्या भाव उत्पन्न नहीं हुआ।

38 जब ब्रह्मा की पूरी एक रात बीत गई तो कृष्ण ने गोपियों को अपने घरों को लौट जाने की सलाह दी। यद्यपि वे ऐसा करना नहीं चाह रही थीं तो भी भगवान की इन प्रेयसियों ने उनके आदेश का पालन किया।

39 जो कोई वृन्दावन की युवा-गोपिकाओं के साथ भगवान की क्रीड़ाओं को श्रद्धापूर्वक सुनता है या उसका वर्णन करता है, वह भगवान की शुद्ध भक्ति प्राप्त करेगा। इस तरह वह शीघ्र ही धीर बन जाएगा और हृदयरोग रूप कामविकार को जीत लेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान) 

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Comments

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