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अध्याय तीस - गोपियों द्वारा कृष्ण की खोज (10.30)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब भगवान कृष्ण इस तरह एकाएक विलुप्त हो गये तो गोपियाँ उन्हें न देख सकने के कारण अत्यन्त व्यथित हो उठीं जिस तरह हथिनियों का समूह अपने नर के बिछुड़ जाने पर खिन्न हो उठता है।

2 भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते ही गोपियों के हृदय उनकी चाल-ढाल तथा प्रेममयी मुसकान, उनकी कौतुकपूर्ण चितवन, मोहने वाली बातों तथा अपने साथ की जानेवाली अन्य लीलाओं से अभिभूत हो उठे। इस तरह रमा के स्वामी कृष्ण के विचारों में लीन वे गोपियाँ उनकी विविध दिव्य लीलाओं (चेष्टाओं) का अनुकरण करने लगीं।

3 चूँकि प्रेमप्रिय गोपियाँ अपने कृष्ण के विचारों में लीन थीं अतः वे उनके चलने, हँसने के ढंग, वाणी तथा अन्य विलक्षण गुणों का अनुकरण करने लगीं। कृष्ण के चितवन में गहरी डूबी हुई तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करके उन्मत्त हुई गोपियों ने परस्पर घोषित कर दिया कि "मैं कृष्ण ही हूँ।"

4 जोर जोर से कृष्ण के बारे में गाती हुई गोपियों ने पगलायी स्त्रियों के झुण्ड के समान उन्हें वृन्दावन के पूरे जंगल में खोजा। यहाँ तक कि वृक्षों से भी उन कृष्ण के विषय में पूछताछ की जो समस्त उत्पन्न वस्तुओं के भीतर तथा बाहर आकाश की भाँति परमात्मा के रूप में उपस्थित हैं।

5 गोपियों ने कहा: हे अश्वत्थ वृक्ष, हे प्लक्ष, हे न्यग्रोध, क्या तुमने कृष्ण को देखा है? वह नन्दनन्दन अपनी प्रेमभरी मुसकान तथा चितवन से हमारे चित्तों को चुराकर चला गया है।

6 हे कुरबक वृक्ष, हे अशोक, हे नागकेसर, पुन्नाग तथा चम्पक, क्या इस रास्ते से होकर बलराम का छोटा भाई गया है, जिसकी हँसी समस्त अभिमान करनेवाली स्त्रियों के दर्प को हरने वाली है।

7 हे अत्यन्त दयालु तुलसी, तुम्हें तो गोविन्द के चरण इतने प्रिय हैं। क्या तुमने अपने को [तुलसी] पहने और भौंरों के झुण्ड से घिरे हुए उन अच्युत को इधर से जाते हुए देखा है?

8 हे मालती, हे मल्लिका, हे जाति तथा यूथिका, क्या माधव तुम सबों को अपने हाथ का स्पर्श-सुख देते हुए इधर से गये हैं?

9 हे आम की लतर, हे प्रियाल, हे पनस, हे आसान तथा कोविदार, हे जम्बु, हे अर्क, हे बिल्ब, बकुल तथा आम्र, हे कदम्ब तथा नीप एवं यमुना के तट के समीप स्थित अन्य सारे पौधो और वृक्षों, परोपकार के लिए अपना जीवन अर्पित करने वालों, हम गोपियों के मन चुरा लिए गये हैं, अतः कृपा करके हमें बतलायें कि कृष्ण गये कहाँ हैं?

10 हे माता पृथ्वी, आपने भगवान केशव के चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिए ऐसी कौन सी तपस्या की है, जिससे उत्पन्न परम आनन्द से आपके शरीर में रोमांच हो आया है? इस अवस्था में आप अतीव सुन्दर लग रही हैं। क्या भगवान के इसी प्राकट्य के समय आपको ये भावलक्षण प्राप्त हुए हैं या फिर और पहले जब उन्होंने आप पर वामनदेव के रूप में अपने पाँव रखे थे या इससे भी पूर्व जब उन्होंने वराहदेव के रूप में अवतार लिया था ।

11 हे सखी हिरणी, क्या तुम्हारी आँखों को परमानन्द प्रदान करने वाले भगवान अच्युत अपनी प्रिया समेत इधर आये थे? हे वृक्षों, हम देख रही हैं कि तुम झुक रहे हो।

12 क्या जब राम के छोटे भाई इधर से गये जिनके पीछे-पीछे गले में सुशोभित तुलसी मंजरी की माला के चारों ओर उन्मत्त भौंरें मँडरा रहे थे तो उन्होंने अपनी स्नेहपूर्ण चितवन से तुम्हारे प्रणाम को स्वीकार किया था? वे अपनी बाँह अवश्य ही अपनी प्रिय के कंधे पर रखे रहे होंगे और अपने खाली हाथ में कमल का फूल लिए रहे होंगे।

13 चलो इन लताओं से कृष्ण के विषय में पूछते हैं, जो अपने पति रूप इस वृक्ष की बाँहों का आलिंगन कर रही हैं।

14 ये शब्द कहने के बाद कृष्ण को खोजते खोजते किंकर्तव्यविमूढ़ हुई गोपियाँ उनके विचारों में पूर्णतया लीन होकर उनकी विविध लीलाओं का अनुकरण करने लगीं।

15 एक गोपी ने पूतना की नकल उतारी जबकि दूसरी बालक कृष्ण बन गई और वह पहले वाली का स्तनपान करने लगी। अन्य गोपी ने शिशु कृष्ण के रोदन का अनुकरण करते हुए उस गोपी पर पाद-प्रहार किया जो शकटासुर की भूमिका निभा रही थी।

16 एक गोपी तृणावर्त बन गई और वह दूसरी गोपी को जो बालक कृष्ण बनी थी दूर ले गई जबकि एक अन्य गोपी रेंगने लगी जिससे उसके पाँव घसीटते समय पायजेब बजने लगी।

17 दो गोपियाँ उन तमाम गोपियों के बीच राम तथा कृष्ण बन गई जो ग्वालबालों का अभिनय कर रही थीं। एक गोपी ने कृष्ण द्वारा राक्षस वत्सासुर के वध का अनुकरण किया जिसमें दूसरी गोपी वत्सासुर बनी थी। गोपियों के एक जोड़े ने बकासुर-वध का अभिनय किया।

18 जब एक गोपी ने पूरी तरह अनुकरण कर दिखाया कि कृष्ण किस तरह दूर विचरण करती गौवों को बुलाते थे, वे किस तरह वंशी बजाते थे और वे किस तरह विविध खेलों में लगे रहते थे तो अन्यों ने बहुत खूब, बहुत खूब, (वाह वाह) चिल्लाकर बधाई दी।

19 एक अन्य गोपी अपने मन को कृष्ण में स्थिर किये अपनी बाँह को दूसरी सखी के कंधे पर टिकाये चलने लगी और बोली " मैं कृष्ण हूँ।" जरा देखो तो मैं कितनी शान से चल रही हूँ।

20 एक गोपी ने कहा: आँधी वर्षा से मत डरो" मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी। यह कहकर उसने अपना दुपट्टा अपने सिर के ऊपर उठा लिया।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक गोपी दूसरी के कंधे पर चढ़ गई और अपना पाँव एक अन्य गोपी के सिर पर रखती हुई बोली "रे दुष्ट सर्प, यहाँ से चले जाओ, तुम जान लो कि मैंने इस जगत में दुष्टों को दण्ड देने के लिए ही जन्म लिया है।

22 तब एक दूसरी गोपी बोल पड़ी, मेरे प्रिय ग्वालबालों, जंगल में लगी इस आग को तो देखो, तुरन्त अपनी आँखें मूँद लो। मैं आसानी से तुम्हारी रक्षा करूँगी।

23 एक गोपी ने अपनी एक छरहरी सी सखी को फूलों की माला से बाँध दिया और कहा, “अब मैं इस बालक को बाँध दूँगी जिसने मक्खन की हँडिया तोड़ दी है और मक्खन चुरा लिया है।“ तब दूसरी गोपी अपना मुँह तथा सुन्दर आँखें अपने हाथ से ढककर भयभीत होने की नकल करने लगी।

24 जब गोपियाँ इस तरह कृष्ण की लीलाओं की नकल उतार रही थीं और वृन्दावन की लताओं तथा वृक्षों से पूछ रही थीं कि भगवान कृष्ण कहाँ हो सकते हैं, तो उन्हें जंगल के एक कोने में उनके पदचिन्ह दिख गये।

25 गोपियों ने कहा: इन पदचिन्हों में ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश, जौ की बाली इत्यादि के चिन्ह स्पष्ट बतलाते हैं कि ये नन्द महाराज के पुत्र उसी महान आत्मा (कृष्ण) के हैं।

26 गोपियाँ श्रीकृष्ण के अनेक पदचिन्हों से प्रदर्शित उनके मार्ग का अनुमान करने लगीं, किन्तु जब उन्होंने देखा कि ये चिन्ह उनकी प्रियतमा के चरणचिन्हों से मिल-जुल गये हैं, तो वे व्याकुल हो उठीं और इस प्रकार कहने लगीं।

27 गोपियों ने कहा: यहाँ पर हमें किसी गोपी के चरणचिन्ह दिख रहे हैं, जो अवश्य ही नन्द महाराज के पुत्र के साथ-साथ चल रही होगी। उन्होंने उसके कंधे पर अपना हाथ उसी तरह रखा होगा जिस तरह एक हाथी अपनी सूँड अपनी सहभागिनी हथिनी के कंधे पर रख देता है।

28 इस विशिष्ट गोपी ने निश्चित ही सर्वशक्तिमान भगवान गोविन्द की पूरी तरह पूजा की होगी क्योंकि वे उससे इतने प्रसन्न हो गये कि उन्होंने हम सबों को छोड़ दिया और उसे एकान्त स्थान में ले आये।

29 हे बालाओं, गोविन्द के चरणों की धूल इतनी पवित्र है कि ब्रह्मा, शिव तथा रमादेवी भी अपने पापों के दूर करने के लिए उस धूल को अपने सिरों पर धारण करते हैं।

30 उस विशिष्ट गोपी के ये चरणचिन्ह हमें अत्यधिक विचलित कर रहे हैं। समस्त गोपियों में से केवल वही एकान्त स्थान में ले जाई गई। देखो न, हमें यहाँ पर उसके पदचिन्ह नहीं दिख रहे। स्पष्ट है कि घास तथा कुश उसके पाँवों के कोमल तलुवों को कष्ट पहुँचा रहे होंगे अतः प्रेमी ने अपनी प्रेयसी को उठा लिया होगा।

31 प्यारी गोपियों, जरा देखो न, किस तरह इस स्थान पर कृष्ण के पदचिन्ह पृथ्वी में गहरे धँसे हुए हैं। अपनी प्रियतमा के भार को वहन करना अवश्य ही उनके लिए कठिन हो रहा होगा।

32 जरा देखो न, किस तरह प्रिय कृष्ण ने यहाँ पर अपनी प्रिया के लिए फूल चुने हैं। यहाँ उनके पाँव के अगले हिस्से (पंजे) का ही निशान पड़ा हुआ है क्योंकि फूलों तक पहुँचने के लिए वे अपने पंजों के बल खड़े हुये थे।

33 कृष्ण यहाँ पर निश्चित रूप से अपनी प्रेयसी के साथ उसके केश सँवारने के लिए बैठे थे। कृष्ण ने उस गोपी के लिए उन फूलों से जुड़ा बनाया होगा, जिसे उसने एकत्र किया था।

34 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान कृष्ण अपने आप में तुष्ट रहने तथा पूर्ण होने के कारण केवल भीतर ही भीतर आनन्दमग्न होते हैं। इस तरह विरोधाभास के द्वारा उन्होंने सामान्य पुरुषों एवं स्त्रियों जैसे व्यवहार का प्रदर्शन किया।

35-36 जब गोपियाँ पूर्णतया भ्रमित मनों से घूम रही थीं तो उन्होंने कृष्ण लीलाओं के विविध चिन्हों की ओर संकेत किया। वह विशिष्ट गोपी जिसे कृष्ण अन्य युवतियों को त्यागकर एकान्त स्थान में ले गये थे, अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगी। उसने सोचा, “मेरे प्रियतम ने उन अन्य समस्त गोपियों को छोड़कर मेरा चयन किया है।"

37 “जब दोनों प्रेमी वृन्दावन जंगल के एक भाग से जा रहे थे तो विशिष्ट गोपी को अपने ऊपर गर्व हो आया। उसने भगवान केशव से कहा, “अब मुझसे और नहीं चला जाता। आप जहाँ भी जाना चाहें मुझे उठाकर ले चलें।“

38 ऐसा कहे जाने पर भगवान ने उत्तर दिया “मेरे कंधे पर चढ़ जाओ।“ किन्तु यह कहते ही वे विलुप्त हो गये। उनकी प्रिया को तब अत्यधिक क्लेश हुआ।

39 वह चिल्ला उठी: हे स्वामी, हे प्रेमी, हे प्रीतम, तुम कहाँ हो? तुम कहाँ हो? हे बलिष्ठ भुजाओं वाले, हे मित्र, अपनी दासी बेचारी को अपना दर्शन दो।

40 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: कृष्ण के रास्ते को खोजती हुई गोपियों ने अपनी दुखी सखी को पास में ही ढूँढ निकाला। वह अपने प्रेमी के विछोह से शोकग्रस्त थी।

41 उसने उन्हें बताया कि माधव ने उसको कितना आदर (मान) प्रदान किया था किन्तु अब उसे अपने दुर्व्यवहार के कारण अनादर झेलना पड़ा। गोपियाँ यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं।

42 तत्पश्चात गोपियाँ कृष्ण की खोज में जंगल के भीतर उतनी दूर तक गई जहाँ तक चन्द्रमा की चाँदनी थी। किन्तु जब उन्होंने अपने को अंधकार से घिरता देखा तो उन्होंने लौट आने का निश्चय किया।

43 उन सबके मन उनके (कृष्ण के) विचारों में लीन होने से वे उन्हीं के विषय में बातें करने लगीं। उन्हीं की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं और अपने को उनकी उपस्थिति से पूरित अनुभव करने लगीं। वे अपने घरों के विषय में पूरी तरह भूल गई और कृष्ण के दिव्य गुणों का जोर जोर से गुणगान करने लगीं।

44 गोपियाँ फिर से कालिन्दी की किनारे आ गई। कृष्ण का ध्यान करते तथा उत्सुकतापूर्वक यह आशा लगाये कि वे आयेंगे ही, वे उनके विषय में गीत गाने के लिए एकसाथ बैठ गई।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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