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अध्याय पच्चीस - कृष्ण द्वारा गोवर्धन - धारण (10.25)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, जब इन्द्र को पता चला कि उसका यज्ञ सम्पन्न नहीं हुआ तो वह नन्द महाराज तथा अन्य गोपजनों पर क्रुद्ध हो गया क्योंकि वे सब कृष्ण को अपना स्वामी मान रहे थे।

2 क्रुद्ध इन्द्र ने ब्रह्माण्ड का विनाश करने वाले बादलों के समूह को भेजा जो सांवर्तक कहलाते हैं। वह अपने को सर्वोच्च नियन्ता मानते हुए इस प्रकार बोला।

3 इन्द्र ने कहा: जरा देखो तो सही कि जंगल में वास करने वाले ये ग्वाले अपने वैभव से किस तरह इतने उन्मत्त हो गये हैं। उन्होंने एक सामान्य मनुष्य कृष्ण की शरण ग्रहण की है और इस तरह उन्होंने देवताओं का अपमान किया है।

4 उनके द्वारा कृष्ण की शरण ग्रहण करना वैसा ही है जैसा कि लोगों द्वारा दिव्य आत्म-ज्ञान को त्यागकर सकाम कर्ममय यज्ञों की मिथ्या नावों में चढ़कर इस महान भवसागर को पार करने का मूर्खतापूर्ण प्रयास होता है।

5 इन ग्वालों ने कृष्ण की शरण ग्रहण करके मेरे प्रति शत्रुतापूर्ण कार्य किया है। कृष्ण अपने को अत्यन्त चतुर मानता है किन्तु है वह स्तब्ध, अज्ञम, तथा बातूनी बालक।

6 इन्द्र ने सांवर्तक मेघों से कहा: इन लोगों की सम्पन्नता ने इन्हें मदोन्मत्त बना दिया है और वे कृष्ण द्वारा सुरक्षित है। अब तुम जाओ, उनके पशुओं का विनाश कर दो और उनके गर्व को चूर कर दो।

7 मैं नन्द महाराज के ग्वालों के ग्राम को विध्वन्स करने के लिए, वेगवान एवं शक्तिशाली वायुदेवों को लेकर, अपने हाथी ऐरावत पर सवार होकर तुम लोगों के पीछे रहूँगा।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इन्द्र के आदेश से प्रलयकारी मेघ समय से पूर्व अपने बन्धनों से मुक्त होकर नन्द महाराज के चारागाहों पर गये, वहाँ वे व्रजवासियों पर मूसलाधार वर्षा करके उन्हें सताने लगे।

9 भयानक वायुदेवों द्वारा उत्प्रेरित बादल बिजली की चमक से प्रज्ज्वलित हो उठे और ओलों की वर्षा करते हुए कड़कड़ाहट के साथ गरजने लगे।

10 जब बादलों ने बड़े-बड़े खम्भों जैसी मोटी वर्षा की धाराएँ गिराई तो पृथ्वी बाढ़ से जलमग्न हो गई और ऊँची या नीची भूमि का पता नहीं चल पा रहा था।

11 अत्यधिक वर्षा तथा हवा के कारण, शीत से पीड़ित ग्वाले तथा गोपियाँ, काँपती हुई गौवें तथा अन्य पशु शरण के लिए गोविन्द के पास पहुँचे।

12 भीषण वर्षा से उत्पन्न पीड़ा से काँपती तथा अपने सिरों और अपने बछड़ों को अपने शरीरों से ढकने का प्रयास करती हुई गौवें भगवान के चरणकमलों में जा पहुँचीं।

13 गोपों तथा गोपियों ने भगवान को सम्बोधित करते हुए कहा: हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे प्रभु! आप अपने भक्तों पर वत्सल हैं। कृपया इन्द्र के क्रोध से हमें बचा लें।

14 ओलों तथा तेज वायु के प्रहार से अचेत हुए जैसे गोकुलवासियों को देखकर भगवान हरि समझ गये कि यह कुपित इन्द्र की करतूत है।

15 श्रीकृष्ण ने अपने आप कहा: चूँकि हमने उसका यज्ञ रोक दिया है, अतः इन्द्र अति प्रचण्ड हवा और ओलों के साथ घनघोर एवं बिना ऋतु की वर्षा कर रहा है।

16 मैं अपनी योगशक्ति से इन्द्र द्वारा उत्पन्न इस उत्पात का पूरी तरह सामना करूँगा। इन्द्र जैसे देवता अपने ऐश्वर्य का घमण्ड करते हैं और मूर्खतावश वे झूठे ही अपने को ब्रह्माण्ड का स्वामी समझने लगते हैं, मैं इस अज्ञान को नष्ट कर दूँगा।

17 चूँकि देवता सतोगुण से युक्त होते हैं अतः अपने को स्वामी मानने का मिथ्या अभिमान उनमें बिल्कुल नहीं आना चाहिए। जब मैं सतोगुण से विहीन उनके मिथ्या अभिमान को भंग करता हूँ तो मेरा उद्देश्य उन्हें इस मिथ्या अभिमान से मुक्ति दिलाना होता है।

18 मैंने अपने भक्तों की रक्षा का व्रत ले रखा है। मैं गोप समुदाय का एकमात्र आश्रय तथा स्वामी हूँ अतएव मुझे अपनी दिव्यशक्ति से गोप समुदाय की रक्षा करनी चाहिए।

19 यह कहकर साक्षात विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण ने एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को ऊपर उठा लिया जिस प्रकार कोई बालक कुकुरमुत्ते को उखाड़कर हाथ में ले लेता है।

20 तत्पश्चात भगवान ने गोप समुदाय को सम्बोधित किया; हे मैया, हे पिताश्री, हे व्रजवासियों, तुम सब अपनी गौवों समेत इस पर्वत के नीचे आ जाओ।

21 तुम्हें डरना नहीं चाहिए कि यह पर्वत मेरे हाथ से छूटकर गिर जायेगा। न ही तुम लोग हवा तथा वर्षा से भयभीत होओ क्योंकि इन कष्टों से तुम्हारे छुटकारे की व्यवस्था पहले ही की जा चुकी है।

22 इस प्रकार भगवान कृष्ण द्वारा उनके मन आश्वस्त किये गये और वे सभी पर्वत के नीचे आ गये, जहाँ उन्हें अपने लिए तथा अपनी गौवों, छकड़ों, सेवकों तथा पुरोहितों के लिए और साथ ही साथ समुदाय के अन्य सदस्यों के लिए पर्याप्त स्थान मिल गया।

23 भगवान कृष्ण पर्वत को धारण किये हुए सात दिनों तक खड़े रहे। सारे व्रजवासी भूख तथा प्यास भूलकर और अपनी सारी व्यक्तिगत सुविधाओं को त्याग कर उन्हें निहारते रहे।

24 जब इन्द्र ने कृष्ण की योगशक्ति के इस प्रदर्शन को देखा तो वह आश्चर्यचकित हो उठा। अपने मिथ्या गर्व के चूर होने तथा अपने संकल्पों के नष्ट होने से उसने बादलों को थम जाने का आदेश दिया।

25 यह देखकर कि अब भीषण हवा तथा वर्षा बन्द हो गई है, आकाश बादलों से रहित हो चुका है और सूर्य उदित हो आया है, गोवर्धनधारी कृष्ण ग्वाल समुदाय से इस प्रकार बोले।

26 भगवान कृष्ण ने कहा: हे गोपजनों, अब अपनी पत्नियों, बच्चों तथा सम्पदाओं समेत बाहर निकल जाओ। अपना भय त्याग दो। तेज हवा तथा वर्षा रुक गई है और नदियों की बाढ़ का पानी उतर गया है।

27 अपनी अपनी गौवें समेट कर तथा अपनी सारी साज-सामग्री, छकड़ों में लाद कर सारे गोपजन बाहर चले आये। स्त्रियाँ, बच्चे तथा वृद्ध पुरुष धीरे धीरे उनके पीछे चल पड़े।

28 सारे प्राणियों के देखते-देखते भगवान ने पर्वत को उसके मूल स्थान पर रख दिया, जिस प्रकार वह पहले खड़ा था।

29 वृन्दावन के सारे निवासी प्रेम से अभिभूत थे। उन्होंने आगे बढ़कर अपने अपने सम्बन्ध के अनुसार श्रीकृष्ण को बधाई दी – किसी ने उनको गले लगाया, तो कोई उनके समक्ष नतमस्तक हुआ इत्यादि-इत्यादि। गोपियों ने सम्मान के प्रतीकस्वरूप उन्हें दही तथा अक्षत, जौ मिलाया हुआ जल अर्पित किया। उन्होंने कृष्ण पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।

30 माता यशोदा, रोहिणी, नन्द महाराज तथा बलिष्ठों में सर्वश्रेष्ठ बलराम ने कृष्ण को गले लगाया। स्नेहाभिभूत होकर उन सबने कृष्ण को अपने-अपने आशीर्वाद दिये।

31 हे राजन, स्वर्ग में सिद्धों, साध्यों, गन्धर्वों तथा चारणों समेत सारे देवताओं ने भगवान कृष्ण का यशोगान किया और उन पर फूलों की वर्षा की।

32 हे परीक्षित, देवताओं ने स्वर्ग में जोर-जोर से शंख तथा दुन्दुभियाँ बजाईं और तुम्बुरु इत्यादि श्रेष्ठ गन्धर्व गीत गाने लगे।

33 अपने प्रेमी ग्वालमित्रों तथा भगवान बलराम से घिरे कृष्ण उस स्थान पर गये जहाँ वे अपनी गौवें चरा रहे थे। अपने हृदयों को स्पर्श करने वाले श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत के उठाये जाने तथा उनके द्वारा सम्पन्न किये गये यशस्वी कार्यों के विषय में सारी गोपियाँ प्रसन्नतापूर्वक गीत गाती हुई, अपने घरों को लौट गईं।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

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