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अध्याय बाईस - कृष्ण द्वारा अविवाहिता गोपियों का चीरहरण (10.22)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हेमन्त ऋतु के पहले मास में गोकुल की अविवाहिता लड़कियों ने कात्यायनी देवी का पूजा-व्रत रखा। पूरे मास उन्होंने बिना मसाले की खिचड़ी खाई।

2-3 हे राजन, सूर्योदय होते ही यमुना के जल में स्नान करके वे गोपियाँ नदी के तट पर देवी दुर्गा का मिट्टी का अर्चाविग्रह बनातीं। तत्पश्चात वे चन्दन लेप जैसी सुगन्धित सामग्री, महँगी और साधारण वस्तुओं यथा दीपक, फल, सुपारी, कोपलों तथा सुगन्धित मालाओं और अगरु के द्वारा उनकी पूजा करती।

4 प्रत्येक अविवाहिता लड़की ने निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुए उनकी पूजा की: “हे देवी कात्यायनी, हे महामाया, हे महायोगिनी, हे अधीश्वरी आप महाराज नन्द के पुत्र को मेरा पति बना दें, मैं आपको नमस्कार करती हूँ।"

5 इस प्रकार उन लड़कियों ने पूरे मास अपना व्रत रखा और अपने मन को कृष्ण में पूर्णतया लीन करते हुए इस विचार पर ध्यान लगाये रखा कि "राजा नन्द का पुत्र मेरा पति बने" इस प्रकार से देवी भद्रकाली की पूजा की।

6 प्रतिदिन वे बड़े तड़के उठतीं। एक-दूसरे का नाम ले लेकर वे सब हाथ पकड़कर स्नान के लिए कालिन्दी जाते हुए कृष्ण की महिमा का जोर जोर से गायन करती।

7 एक दिन वे नदी के तट पर आईं और पहले की भाँति अपने वस्त्र उतारकर जल में क्रीड़ा करने लगीं और कृष्ण के यश का गान करने लगीं।

8 योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान कृष्ण इस बात से अवगत थे कि गोपियाँ क्या कर रही हैं अतएव वे अपने समवयस्क संगियों के साथ गोपियों को उनकी साधना का फल देने गये।

9 लड़कियों के वस्त्र उठाकर वे तेजी से कदम्ब वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये। तत्पश्चात जब वे जोर से हँसे तो उनके साथी भी हँस पड़े और उन्होंने उन लड़कियों से ठिठोली करते हुए कहा।

10 [भगवान कृष्ण ने कहा]: हे लड़कियों, तुम चाहो तो एक एक करके यहाँ आओ और अपने वस्त्र वापस ले जाओ। मैं तुम लोगों से सच कह रहा हूँ। मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग तपस्यापूर्ण व्रत करने से थक गई हो।

11 मैंने पहले कभी झूठ नहीं बोला और ये बालक इसे जानते हैं। अतएव हे क्षीण कटिवाली बालाओं, या तो एक एक करके या फिर सभी मिलकर इधर आओ और अपने वस्त्र उठा ले जाओ।

12 यह देखकर कि कृष्ण उनसे किस तरह ठिठोली कर रहे हैं, गोपियाँ उनके प्रेम में पूरी तरह निमग्न हो गईं और उलझन में होते हुए भी एक दूसरे की ओर देख-देखकर हँसने तथा परस्पर परिहास करने लगीं। लेकिन तो भी वे जल से बाहर नहीं आईं।

13 जब श्री गोविन्द इस तरह बोले तो गोपियों के मन उनकी मज़ाकिया वाणी (परिहास) से पूरी तरह मुग्ध हो गये। वे ठंडे जल में गले तक धँसी रहकर काँपने लगीं। अतः वे उनसे इस प्रकार बोलीं।

14 [गोपियों ने कहा]: हे कृष्ण, अन्यायी मत बनो, हम जानती हैं कि तुम नन्द के माननीय पुत्र हो और व्रज का हर व्यक्ति तुम्हारा सम्मान करता है। हमें भी तुम अत्यन्त प्रिय हो। कृपा करके हमारे वस्त्र लौटा दो। हम ठंडे जल में काँप रही हैं।

15 हे श्यामसुन्दर, हम तुम्हारी दासियाँ हैं और तुम जो भी कहोगे करेंगी। किन्तु हमारे वस्त्र हमें लौटा दो। तुम धार्मिक नियमों के ज्ञाता हो और तुम यदि हमें हमारे वस्त्र नहीं दोगे, तो हम राजा से कह देंगी। मान जाओ।

16 भगवान ने कहा: यदि तुम सचमुच मेरी दासियाँ हो और मैं जो कहता हूँ उसे वास्तव में करोगी तो फिर अपनी अबोध भाव से मुस्कान भरकर यहाँ आओ और अपने-अपने वस्त्र चुन लो। यदि तुम मेरे कहने के अनुसार नहीं करोगी तो मैं तुम्हारे वस्त्र वापस नहीं दूँगा और यदि राजा नाराज भी हो जाये तो वह मेरा क्या बिगाड़ सकता है?

17 तत्पश्चात कड़ाके की शीत से काँपती सारी युवतियाँ अपने-अपने हाथों से अपने अंग ढके हुए जल के बाहर निकलीं।

18 जब भगवान ने देखा कि गोपियाँ किस तरह विह्वल हैं, तो वे उनके शुद्ध प्रेमभाव से संतुष्ट हो गये। उन्होंने अपने कंधे पर उनके वस्त्र उठा लिए और हँसते हुए उनसे बड़े ही स्नेहपूर्वक बोले।

19 [भगवान कृष्ण ने कहा]: तुम सबों ने अपना व्रत रखते हुए विवस्त्र होकर स्नान किया है, जो कि देवताओं के प्रति अपराध है। अतः इसके निराकरण के लिए तुम दोनों हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार करो। तभी तुम्हें तपस्या का पूरा फल प्राप्त होगा।

20 इस तरह वृन्दावन की उन युवतियों ने कृष्ण द्वारा कहे गये वचनों पर विचार करके यह मान लिया कि नदी में विवस्त्र स्नान करने से वे अपने व्रत से पतित हुई हैं। किन्तु तो भी वे अपना व्रत पूरा करना चाहती थीं और चूँकि भगवान कृष्ण समस्त पुण्य कर्मों के प्रत्यक्ष चरम फल हैं अतः अपने पापों को धो डालने के उद्देश्य से उन्होंने कृष्ण को नमस्कार किया।

21 उन्हें इस प्रकार नमस्कार करते देखकर देवकी पुत्र भगवान ने उन पर करुणा करके तथा उनके कार्य से संतुष्ट होकर वस्त्र लौटा दिये।

22 यद्यपि गोपियाँ बुरी तरह ठगी जा चुकी थीं, उनके शील-संकोच से उन्हें वंचित किया जा चुका था, उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाया गया था और उनका उपहास किया गया था और यद्यपि उनके वस्त्र चुराये गये थे किन्तु उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति रंच-भर भी प्रतिकूल भाव नहीं आया। उल्टे वे अपने प्रियतम के सानिध्य का यह अवसर पाकर सहज रूप से पुलकित थीं।

23 गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण से मिलने के लिए आतुर थीं अतएव वे उनके द्वारा मोह ली गईं। इस तरह अपने- अपने वस्त्र पहन लेने के बाद भी वे हिली ही नहीं। वे लजाती हुई उन्हीं पर टकटकी लगाये जहाँ की तहाँ खड़ी रहीं।

24 भगवान उन गोपियों के द्वारा किए जा रहे कठोर व्रत के संकल्प को समझ गये। वे यह भी जान गये कि ये बालाएँ उनके चरणकमलों का स्पर्श करना चाहती हैं अतः भगवान दामोदर कृष्ण उनसे इस प्रकार बोले।

25 हे साध्वी लड़कियों मैं समझ गया कि इस तपस्या के पीछे तुम्हारा असली संकल्प मेरी पूजा करना था। तुम्हारी इस अभिलाषा का मैं अनुमोदन करता हूँ और यह अवश्य ही खरा उतरेगा।

26 जो लोग अपना मन मुझ पर टिका देते हैं उनकी इच्छा उन्हें इन्द्रियतृप्ति की ओर नहीं ले जाती जिस तरह की धूप से झुलसे और फिर अग्नि में पकाये गये जौ के बीज नये अंकुर बनकर नहीं उग सकते।

27 हे बालाओं, जाओ, अब व्रज लौट जाओ। तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई है क्योंकि तुम आनेवाली रातें मेरे साथ बिता सकोगी। हे शुद्ध हृदय वाली गोपियों, देवी कात्यायनी की पूजा करने के पीछे तुम्हारे व्रत का, यही तो उद्देश्य था।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान द्वारा आदेश दिये जाकर अपनी मनोवांछा पूरी करके वे बालाएँ उनके चरणकमलों का ध्यान करती हुई बड़ी ही मुश्किल से व्रज ग्राम वापस आईं।

29 कुछ काल बाद देवकीपुत्र कृष्ण अपने ग्वालबाल मित्रों से घिरकर तथा अपने बड़े भाई बलराम के संग गौवें चराते हुए वृन्दावन से काफी दूर निकल गये।

30 जब सूर्य की तपन प्रखर हो गई तो कृष्ण ने देखा कि सारे वृक्ष मानों उन पर छाया करके छाते का काम कर रहे हैं तब वे अपने ग्वाल मित्रों से इस प्रकार बोले।

31-32 भगवान कृष्ण ने कहा "हे स्तोककृष्ण तथा अंशु, हे श्रीदामा, सुबल तथा अर्जुन, हे वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ तथा वरुथप जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन ही अन्यों के लाभ हेतु समर्पित हैं। वे हवा, वर्षा, धूप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षा करते हैं।

33 जरा देखो, कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं। इनका जन्म सफल है। इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है क्योंकि वृक्ष से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी निराश नहीं लौटता।

34-35 ये वृक्ष अपनी पत्तियों, फूलों तथा फलों से, अपनी छाया, जड़ों, छाल तथा लकड़ी से तथा अपनी सुगन्ध, रस, राख, लुगदी और नये नये कल्लों से मनुष्य की इच्छापूर्ति करते हैं। हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे।

36 इस तरह वृक्षों के बीच विचरण करते हुए, जिनकी शाखाएँ कोपलों, फलों, फूलों तथा पत्तियों की बहुलता से झुकी हुई थी, भगवान कृष्ण यमुना नदी के तट पर आ गये।

37 ग्वालों ने गौवों को यमुना नदी का स्वच्छ, शीतल तथा स्वास्थ्यप्रद जल पीने दिया। हे राजा परीक्षित, ग्वालों ने भी जी भरकर उस मधुर जल का पान किया।

38 तत्पश्चात हे राजन, सारे ग्वालबाल यमुना के तट पर एक छोटे से जंगल में पशुओं को उन्मुक्त ढंग से चराने लगे। किन्तु शीघ्र ही भूख से त्रस्त होकर वे कृष्ण तथा बलराम के निकट जाकर इस प्रकार बोले।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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