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बांके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बां

के बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण १८६४ में स्वामी हरिदास ने करवाया था
श्री बाँकेबिहारी जी का संक्षिप्त इतिहास
श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नही चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत १९२१ के लगभग किया गया।

मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया। श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुनासमीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है।
श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया। सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी, बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत 1975 में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया। तब इस सेठ ने वेरी, कोलकत्ता, रोहतक, इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफी सहायता प्रदान कर रहा है। आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह स्थानान्तरित हुए। परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहां से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं। कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना। इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं। श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं । जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं । और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है । इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे। एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय । इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें श्री बाँकेविहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर में कपट खोले तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी। किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था। वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं। इससे प्रमाणित होता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं।
इसी कारण से प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। कारण–रात्रि में रास करके यहां बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं। स्वामी हरिदास जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेकों सम्राट यहाँ आते थे। एक बार दिल्ली के सम्राट अकबर, स्वामी जी के दर्शन हेतु यहाँ आये थे। ठाकुर जी के दर्शन प्रातः 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक एवं सायं 6 बजे से रात्रि 6 बजे तक होते हैं। विशेष तिथि उपलक्ष्यानुसार समय के परिवर्तन कर दिया जाता हैं।
श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। जिनमें से एक तथा दो निम्नलिखित हैं– एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे। कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति ने श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर वो रोने लगी। संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे, इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– 'हे प्रभु में घर जा रही हुँ, किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना, ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों रेलवे स्टेशन की ओर घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये। उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े। गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे। दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया। तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुन श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।
इधर भक्त तथा भक्तिमति श्रीबाँकेबिहारी जी की स्वयं कृपा जानकर दोनों ने संसार का गमन त्याग कर श्रीबाँकेबिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।

झाँकी का अर्थ

श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं, और भी किंवदंती हैं।
एक बार एक भक्त देखता रहा कि उसकी भक्ति के वशीभूत होकर श्रीबाँकेबिहारी जी भाग गये। पुजारी जी ने जब मन्दिर की कपाट खोला तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी नहीं दिखाई दिये। पता चला कि वे अपने एक भक्त की गवाही देने अलीगढ़ चले गये हैं। तभी से ऐसा नियम बना दिया कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा। ऐसी ही बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित है।


श्री बांके बिहारी प्रतिमा प्राकट्य स्थल

स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे। इस मन्दिर में कृष्ण के साथ श्रीराधिका विग्रह की स्थापना नहीं हुई। वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन श्रीबाँकेबिहारी के श्रीचरणों का दर्शन होता है। पहले ये निधुवन में ही विराजमान थे। बाद में वर्तमान मन्दिर में पधारे हैं। यवनों के उपद्रव के समय श्रीबाँकेबिहारी जी गुप्त रूप से वृन्दावन में ही रहे, बाहर नहीं गये। श्रीबाँकेबिहारी जी का झाँकी दर्शन विशेष रूप में होता है। यहाँ झाँकी दर्शन का कारण उनका भक्तवात्सल्य एवं रसिकता है।

एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया। इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। यहाँ एक विलक्षण बात यह है कि यहाँ मंगल आरती नहीं होती। यहाँ के गोसाईयों का कहना हे कि ठाकुरजी नित्य-रात्रि में रास में थककर भोर में शयन करते हैं। उस समय इन्हें जगाना उचित नहीं है।
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जन्मस्थली नन्दभवन से प्राय: एक मील पूर्व में ब्रह्माण्ड घाट विराजमान है। यहाँ पर बालकृष्ण ने गोप-बालकों के साथ खेलते समय मिट्टी खाई थी। माँ यशोदा ने बलराम से इस विषय में पूछा। बलराम ने भी कन्हैया के मिट्टी खाने की बात का समर्थन किया। मैया ने घटनास्थल पर पहुँच कर कृष्ण से पूछा-'क्या तुमने मिट्टी खाई?' कन्हैया ने उत्तर दिया- नहीं मैया! मैंने मिट्टी नहीं खाईं।' यशोदा मैया ने कहा-कन्हैया ! अच्छा तू मुख खोलकर दिखा।' कन्हैया ने मुख खोल कर कहा- 'देख ले मैया।' मैया तो स्तब्ध रह गई। अगणित ब्रह्माण्ड, अगणित ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा चराचर सब कुछ कन्हैया के मुख में दिखाई पड़ा। भयभीत होकर उन्होंने आँखें बन्द कर लीं तथा सोचने लगीं, मैं यह क्या देख रही हूँ? क्या यह मेरा भ्रम है य किसी की माया है? आँखें खोलने पर देखा कन्हैया उसकी गोद में बैठा हुआ है। यशोदा जी ने घर लौटकर ब्राह्मणों को बुलाया। इस दैवी प्रकोप की शान्ति के लिए स्वस्ति वाचन कराया और ब्राह्मणों को गोदान तथा दक्षिणा दी। श्रीकृष्ण के मुख में भगवत्ता के लक्षण स्वरूप अखिल सचराचर विश्व ब्रह्माण्ड को देखकर भी यशोदा मैया ने कृष्ण को स्वयं-भगवान के रूप में ग्रहण नहीं किया। उनका वात्सल्य प्रेम शिथिल नहीं हुआ, बल्कि और भी समृद्ध हो गया । दूसरी ओर कृष्ण का चतुर्भुज रूप दर्शन कर देवकी और वसुदेव का वात्सल्य-प्रेम और विश्वरूप दर्शन कर अर्जुन का सख्य-भाव शिथिल हो गया। ये लोग हाथ जोड़कर कृष्ण की स्तुति करने लगे। इस प्रकार ब्रज में कभी-कभी कृष्ण की भगवत्तारूप ऐश्वर्य का प्रकाश होने पर भी ब्रजवासियों का प्रेम शिथिल नहीं होता । वे कभी भी श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में ग्रहण नहीं करते। उनका कृष्ण के प्रति मधुर भाव कभी शिथिल नहीं होता । ========================================== दूसरा प्रसंग बालकृष्ण एक समय यहाँ सहचर ग्वालबालों के साथ खेल रहे थें अकस्मात बाल-टोली ताली बजाती और हँसती हुई कृष्ण को चिढ़ाने लगी। पहले तो कन्हैया कुछ समझ नहीं सके, किन्तु क्षण भर में उन्हें समझमें आ गया। दाम, श्रीदाम, मधुमंगल आदि ग्वालबाल कह रहे थे कि नन्दबाबा गोरे, यशोदा मैया गोरी किन्तु तुम काले क्यों? सचमुच में तुम यशोदा मैया की गर्भजात सन्तान नहीं हो। किसी ने तुम्हें जन्म के बाद पालन-पोषण करने में असमर्थ होकर जन्मते ही किसी वट वृक्ष के कोटरे में रख दिया था। परम दयालु नन्दबाबा ने वहाँ पर असहाय रोदन करते हुए देखकर तुम्हें उठा लिया और यशोदा जी की गोद में डाल दिया। किन्तु यथार्थत: तुम नन्द-यशोदा के पुत्र नहीं हो। कन्हैया खेलना छोड़कर घर लौट गया और आँगन में क्रन्दन करता हुआ लोटपोट करने लगा। माँ यशोदा ने उसे गोद में लेकर बड़े प्यार से रोने का कारण पूछना चाहा, किन्तु आज कन्हैया गोद में नहीं आया। तब मैया जबरदस्ती अपने अंक में धारण कर अंगों की धूल झाड़ते हुए रोने का कारण पूछने लगी। कुछ शान्त होने पर कन्हैया ने कहा-दाम, श्रीदाम आदि गोपबालक कह रहे हैं कि तू अपनी मैया की गर्भजात सन्तान नहीं है। 'बाबा गोरे, मैया गोरी और तू कहाँ से काला निकल आया। यह सुनकर मैया हँसने लगी और बोली-'अरे लाला! ऐसा कौन कहता हैं?' कन्हैया ने कहा-'दाम, श्रीदाम, आदि के साथ दाऊ भैया भी ऐसा कहते हैं।' मैया गृहदेवता श्रीनारायण की शपथ लेते हुए कृष्ण के मस्तक पर हाथ रखकर बोली- 'मैं श्री नारायण की शपथ खाकर कहती हूँ कि तुम मेरे ही गर्भजात पुत्र हो।' अभी मैं बालकों को फटकारती हूँ। इस प्रकार कहकर कृष्ण को स्तनपान कराने लगी। इस लीला को संजोए हुए यह स्थली आज भी विराजमान है। यथार्थत: नन्दबाबा जी गौर वर्ण के थे। किन्तु यशोदा मैया कुछ हल्की सी साँवले रंग की बड़ी ही सुन्दरी गोपी थीं। नहीं तो यशोदा के गर्भ से पैदा हुए कृष्ण इतने सुन्दर क्यों होते? किन्तु कन्हैया यशोदा जी से कुछ अधिक साँवले रगं के थे। बच्चे तो केवल चिढ़ाने के लिए वैसा कह रहे थे।

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गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं -
प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ
आदि लोकों में भी ब्रज की महिमा बढ़ गयी है l
परन्तु प्रियतम !
देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे
चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं l वन-वन में भटक कर तुम्हे ढूंढ रही हैं l हमारे प्रेमपूर्ण ह्रदय के
स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं l
हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर !
क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है...
? अस्त्रों से
हत्या करना ही वध है ? तुम केवल यशोदानन्दन
ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अंतर्यामी हो l सखे !
ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने
के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो l
जो लोग जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्कर से
डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें
तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछाया में लेकर अभय कर देते हैं l हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-
अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाला वही करकमल,
जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे
सिर पर रख दो l हमसे रूठो मत, प्रेम करो l हम
तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर
हैं l हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर सांवला- सांवला मुखकमल दिखलाओ l कमलनयन !
तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक
पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है l
बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं l
तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके
तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं l प्रभो !
तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है l वह सारे
पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ
ही श्रवणमात्र से परम मंगल - परम कल्याण
का दान भी करती है l प्यारे ! एक दिन वह था,
जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चित्तवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीडाओं का ध्यान
करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थीं l
उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है, उसके बाद तुम
मिले l तुमने एकांत में ठिठोलियाँ की, प्रेम
की बातें कहीं l हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब
बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किये देती हैं l
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एक समय कि बात है कि श्रीभागुरी ऋषि गोविन्द कुण्ड के तट पर भगवत् प्रीति के लिए यज्ञ कर रहे थे. दूर–दूर से गोप-गोपियाँ यज्ञ के लिए द्रव्य ला रही थीं. राधिका एवं उनकी सखियाँ भी दानघाटी के उस पार से दधि, दुग्ध, मक्खन तथा दूध से बने हुए विविध प्रकार के रबडी आदि द्रव्य ला रही थीं. इसी स्थान पर सुबल, मधुमंगल आदि सखाओं के साथ श्रीकृष्ण अपने लाठियों को अड़ाकर बलपूर्वक दान (टोलटैक्स) माँग रहे थे. गोपियों ...के साथ उन लोगों की बहुत नोक–झोंक हुई. कृष्ण ने त्रिभंग ललित रूप में खड़े होकर कहा- क्या ले जा रही हो ? गोपियाँ - भागुरी ऋषि के यज्ञ के लिए दूध, दही, मक्खन ले जा रही हैं. मक्खन का नाम सुनते ही मधुमंगल के मुख में पानी भर आया. वह जल्दी से बोल उठा, शीघ्र ही यहाँ का दान देकर आगे बढ़ो. ललिता - तेवर भरकर बोली– कैसा दान ? हमने कभी दान नहीं दिया. श्रीकृष्ण– यहाँ का दान चुकाकर ही जाना होगा. राधा जी – आप यहाँ दानी कब से बने ? क्या यह आपका राज्य है ? श्रीकृष्ण– टेढ़ी बातें मत करो ? मैं वृंदावन राज्य का राजा वृन्दावनेश्वर हूँ. राधा जी – वो , कैसे ? श्रीकृष्ण– वृन्दा मेरी विवाहिता पत्नी है. पत्नी की सम्पत्ति भी पति की होती है. वृन्दावन वृंदादेवी का राज्य है, अत: यह मेरा ही राज्य है. ललिता– अच्छा, हमने कभी भी ऐसा नहीं सुना. अभी वृन्दाजी से पूछ लेते हैं. तुरन्त ही सखी ने वृन्दा की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए पूछा– वृन्दे ! क्या यह 'काला' कृष्ण तुम्हारा पति है ? वृन्दा– (तुनककर) कदापि नहीं. इस झूठे लम्पट से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है. हाँ यह राज्य मेरा था, किन्तु मैंने इसे वृन्दवनेश्वरी राधिकाजी को अर्पण कर दिया है. सभी सखियाँ ठहाका मारकर हँसने लगी. श्रीकृष्ण कुछ झेंप से गये किन्तु फिर भी दान लेने के लिए डटे रहे. फिर गोपियों ने प्रेमकलह के पश्चात कुछ दूर भीतर दान–निवर्तन कुण्ड पर प्रेम का दान दिया. और लिया भी.

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लाला की शरारते.....

एक गोपी के घर लाला माखन खा रहे थे ।
उस समय गोपी ने लाला को पकड लिया ।

...
तब कन्हैया बोले- तेरे धनी की सौगंध खा कर कहता हूँ ।
अब फिर कभी भी तेरे घर में नहीं आऊंगा ।

गोपी ने कहा - मेरे धनी की सौगंध क्यों खाता है ?
कन्हैया ने कहा. तेरे बाप की सौगंध, बस गोपी और ज्यादा खीझ जाती है और लाला को धमकाती है ।
परन्तु तू मेरे घर आया ही क्यों ?

कन्हैया ने कहा - अरी सखी !
तू रोज कथा में जाती है, फिरभी तू मेरा तेरा छोडती नहीं - इस घर का मै धनी हूँ ।
यह घर मेरा है ।

गोपी को आनंद हुआ कि मेरे घर को कन्हैया अपना घर मानता है, कन्हैया तो सबका मालिक है,
सभी घर उसी के है ।
उसको किसी कि आज्ञा लेने कि जरूरत नहीं ।
गोपी कहती है - तुने माखन क्यों खाया ?

लाला ने कहा - माखन किसने खाया है ?
इस माखन में चींटी चढ़ गई थी तो उसे निकलने को हाथ डाला ।
इतने में ही तू टपक पड़ी ।

गोपी कहती है ! परन्तु लाला !
तेरे ओंठो के उपर भी तो माखन चिपका हुआ है ।
कन्हैया ने कहा - चींटी निकालता था,
तभी ओंठो के उपर भी मक्खी बैठ गई,
उसको उड़ाने लगा तो माखन ओंठो पर लग गया होगा ।

कन्हैया जैसे बोलतेहै, ऐसा बोलना किसी को आता नहीं. कन्हैया जैसे चलते है,
वैसे चलना भी किसी को आता नहीं.
गोपी ने पीछे लाला को घर में खम्भे के साथ डोरी से बाँध दिया,
कन्हैया का श्रीअंग बहुत ही कोमल है ।

गोपी ने जब डोरी कस कर बाँधी तो लाला कि आँखमें पानी आ गया. गोपी को दया आई,
उसने लाला से पूछा - लाला! तुझे कोई तकलीफ है क्या ?

लाला ने गर्दन हिला कर कहा - मुझे बहुत दुःख हो रहा है,
डोरी जरा ढीली करो ।

गोपी ने विचार किया कि लाला को डोरी से कस कर बाधना ठीक नहीं,
मेरे लाला को दुःख होगा ।
इसलिए गोपी ने डोरी थोड़ी ढीली रखी और सखियो को खबर देने गई के मैंने लाला को बांधा है ।

तुम लाला को बांधो परन्तु किसी से कहना नहीं, तुम खूब भक्ति करो,
परन्तु उसे प्रकाशित मत करो, भक्ति प्रकाशित हो जाएगी तो भगवान चले जायेंगे,
भक्ति का प्रकाश होने से भक्ति बढती नहीं , भक्ति में आनंद आता नहीं ।

बाल कृष्ण सूक्ष्म शरीर करके डोरी से बहार निकल गए और गोपी को अंगूठा दिखाकर कहा,
तुझे बांधना ही कहा आता है ?

गोपी कहती है - तो मुझे बता, किस तरह से बांधना चाहिए ।
गोपी को तो लाला के साथ खेल करना था ।

लाला गोपी को बांधते है...
योगीजन मन से....
श्री कृष्ण का स्पर्श करते है तो समाधि लग जाती है.
यहाँ तो गोपी को प्रत्यक्ष श्री कृष्ण का स्पर्श हुआ है.

गोपी लाला के दर्शन में तल्लीन हो जाती है. गोपी को ब्रह्म - सम्बन्ध हो जाता है.
लाला ने गोपी को बाँध दिया.

गोपी कहती है की लाला छोड़! छोड़!
लाला कहते है - मुझे बांधना आता है.
छोड़ना तो आता ही नहीं ।

यह जीव एक ऐसा है, जिसको छोड़ना आता है,
चाहे जितना प्रगाढ़ सम्बन्ध हो परन्तु स्वार्थ सिद्ध होने पर उसको भी छोड़ सकता है,
परमात्मा एक बार बाँधने के बाद छोड़ते नहीं ।

जय श्री कृष्ण
राधे राधे जी
जय जय राधे राधे...
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