एक समय कि बात है कि श्रीभागुरी ऋषि गोविन्द कुण्ड के तट पर भगवत् प्रीति के लिए यज्ञ कर रहे थे. दूर–दूर से गोप-गोपियाँ यज्ञ के लिए द्रव्य ला रही थीं. राधिका एवं उनकी सखियाँ भी दानघाटी के उस पार से दधि, दुग्ध, मक्खन तथा दूध से बने हुए विविध प्रकार के रबडी आदि द्रव्य ला रही थीं. इसी स्थान पर सुबल, मधुमंगल आदि सखाओं के साथ श्रीकृष्ण अपने लाठियों को अड़ाकर बलपूर्वक दान (टोलटैक्स) माँग रहे थे. गोपियों ...के साथ उन लोगों की बहुत नोक–झोंक हुई. कृष्ण ने त्रिभंग ललित रूप में खड़े होकर कहा- क्या ले जा रही हो ? गोपियाँ - भागुरी ऋषि के यज्ञ के लिए दूध, दही, मक्खन ले जा रही हैं. मक्खन का नाम सुनते ही मधुमंगल के मुख में पानी भर आया. वह जल्दी से बोल उठा, शीघ्र ही यहाँ का दान देकर आगे बढ़ो. ललिता - तेवर भरकर बोली– कैसा दान ? हमने कभी दान नहीं दिया. श्रीकृष्ण– यहाँ का दान चुकाकर ही जाना होगा. राधा जी – आप यहाँ दानी कब से बने ? क्या यह आपका राज्य है ? श्रीकृष्ण– टेढ़ी बातें मत करो ? मैं वृंदावन राज्य का राजा वृन्दावनेश्वर हूँ. राधा जी – वो , कैसे ? श्रीकृष्ण– वृन्दा मेरी विवाहिता पत्नी है. पत्नी की सम्पत्ति भी पति की होती है. वृन्दावन वृंदादेवी का राज्य है, अत: यह मेरा ही राज्य है. ललिता– अच्छा, हमने कभी भी ऐसा नहीं सुना. अभी वृन्दाजी से पूछ लेते हैं. तुरन्त ही सखी ने वृन्दा की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए पूछा– वृन्दे ! क्या यह 'काला' कृष्ण तुम्हारा पति है ? वृन्दा– (तुनककर) कदापि नहीं. इस झूठे लम्पट से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है. हाँ यह राज्य मेरा था, किन्तु मैंने इसे वृन्दवनेश्वरी राधिकाजी को अर्पण कर दिया है. सभी सखियाँ ठहाका मारकर हँसने लगी. श्रीकृष्ण कुछ झेंप से गये किन्तु फिर भी दान लेने के लिए डटे रहे. फिर गोपियों ने प्रेमकलह के पश्चात कुछ दूर भीतर दान–निवर्तन कुण्ड पर प्रेम का दान दिया. और लिया भी.
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