Hare Krsna,

Please accept my humble obeisances. All glories to Srila Prabhupada & Srila Gopal Krishna Maharaj.

मुक्ति पांच प्रकार की होती है, जिनका वर्णन चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.266-269 में इस प्रकार किया गया है:

1. सालोक्य: सालोक्य का अर्थ है भौतिक मुक्ति के बाद उस लोक को जाना जहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् निवास करते हैं |    

2. सामीप्य:  सामीप्य का अर्थ है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का पार्षद बनना |

3. सारुप्य: सारुप्य का अर्थ है भगवान् जैसा चतुर्भुज रूप प्राप्त करना |

4. सार्ष्टि: सार्ष्टि का अर्थ है भगवान् जैसा ऐश्वर्य प्राप्त करना | तथा

5. सायुज्य: सायुज्य का अर्थ है भगवान् के ब्रह्मतेज या ब्रह्मज्योति में समा जाना | सायुज्य मुक्ति दो प्रकार की होती है – ब्रह्मतेज में समा जाना और भगवान् के शरीर में समा जाना | भगवान् के शरीर में समा जाना तो उनके तेज में समा जाने से भी अधिक निन्दनीय है | भगवान् श्री कृष्ण के दिव्य रूप को न मानने वाले निर्विशेषवादी तथा भगवान् की निन्दा करने वाले और उनसे युद्ध करने वाले असुर ब्रह्मज्योति में समाकर दण्डित होते हैं |

मायावादी वेदान्तियों के अनुसार जीव की चरम सफलता निर्विशेष ब्रह्म में समा जाना है | निर्विशेष ब्रह्म अर्थात भगवान् का शारीरिक तेज ब्रह्मज्योति, ब्रह्मलोक या सिद्धलोक के नाम से विख्यात है | इस तरह ब्रह्मलोक या सिद्धलोक ऐसा स्थान है जहाँ स्फुलिंग के समान अनेक जीव रहते हैं जो भगवान् के अंश हैं | चूँकि ये जीव अपना अलग अस्तित्व बनाये रखना नही चाहते, अतएव उन सब को ब्रह्मलोक में रहने दिया जाता है, जिस प्रकार सूर्य से निकलने वाली किरणों में अनेक परमाणु-कण रहते हैं |

यदि शुद्ध भक्त को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा करने का अवसर मिले, तो कभी-कभी सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य या सार्ष्टि मुक्ति को तो स्वीकार कर सकता है किन्तु सायुज्य को कभी नही | शुद्ध भक्त तो सायुज्य मुक्ति का नाम भी सुनना नही चाहता, वह भगवान् के तेज में समा जाने की अपेक्षा नरक जाना पसन्द करेगा क्योंकि वह नारकीय अवस्था में भी भगवान् की सेवा करने का इच्छुक बना रहता है | शुद्ध भक्त तो निष्कंचन होता है और जन्म जन्मान्तर बस भगवान की अहैतुकी भक्ति करते रहना चाहता है | वह तो भव-बन्धन से भी मुक्त नही होना चाहता, जबकि मुक्ति तो भक्त के समक्ष उसकी सेवा करने के लिए हाथ जोड़े खड़ी रहती है | कृष्ण उद्धव से कहते हैं: “मेरे भक्त मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते, सच तो यह है कि यदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान करता हूँ तो वे इसे स्वीकार नहीं करते” (SB.11.20.34) |

हरे कृष्णा

दण्डवत

आपका विनीत सेवक

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Comments

  • hare krishna!

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