Hare Krsna,

Please accept my humble obeisance. All glories to Srila Prabhupada & Srila Gopal Krishna Maharaj.

गीता में श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन के माध्यम से समस्त जीवों को मुक्ति का ज्ञान :

अनेक जन्म जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है (B.G.7.19) | बहुत से जन्म-जन्मान्तरों के बाद तत्व-ज्ञान को प्राप्त जीव मुझे (वासुदेव) सब कारणों का परम कारण जान कर मेरी शरण में आता है ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है  (B.G.7.9) | मै इस सृष्टि का कारणस्वरुप हूँ | सम्पूर्ण विराट जगत मेरे आधीन है | यह भौतिक प्रकृति मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है (B.G.9.8&10) | भौतिक प्रकृति के तीन गुणों वाली मेरी देवी शक्ति पार करने में अत्यंत कठिन है, किन्तु जो मेरी शरण में आ चुके है,वे इसे आसानी से पार कर जाते है (B.G.7.14) | मै प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति,ज्ञान तथा विस्मृति होती है (B.G.15.15)| तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो, या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो | इस तरह तुम कर्म के बंधन व इसके शुभ-अशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे (B.G.9.27-28)  |  

इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर है जहाँ जन्म तथा मृत्यु का चक्कर लगा रहता है किन्तु जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है वह फिर कभी जन्म नहीं लेता (B.G.8.16) | जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते अतः वे इस भौतिक जगत में जन्म मृत्यु के मार्ग पर आते रहते है (B.G.9.3) | हे अर्जुन ! जो मेरे जन्म (अविर्भाव) तथा कर्मों के दिव्य प्रकृति को जानता है | वह इस शरीर को छोड़ने पर इस संसार में पुन: जन्म नहीं लेता अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है (B.G.4.9) |

जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओ द्वारा मारी गयी है वे देवताओं की शरण में जाते है (B.G.7.20) | अल्प बुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते है और अपनी इच्छाओ की पूर्ति करते है | किन्तु प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा छणिक होते है  (B.G.7.23) |

( जिस तरह वृक्ष की जड़ को सीचने से तना, शाखाए तथा टहनियां पुष्ट होती है |  जिस तरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग पुष्ट होते है उसी प्रकार भगवान की भक्ति पूर्वक पूजा करने से सभी देवता स्वतः ही संतुष्ट हो जाते है  (S.B.4.31.14) | इन्द्रिय तृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओ की उपासना करने वाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान है | ब्रह्मांड के संहार के साथ ये देवता व इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकार नष्ट हो जाते है जिस प्रकार राजा की सत्ता छीन जाने पर राजकीय अधिकारी (S.B.6.16.38)| )

जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हे, उसी के अनूरूप उन्हें फल देता हूँ (B.G.4.11) | इस बद्ध जगत के सारे जीव मेरे शाश्वत अंश है | सारे जीव सुखी बनने के लिए इन्द्रियों के साथ संघर्ष करते रहते है | किन्तु भक्ति ग्रहण किये बिना यह संभव नहीं है (B.G.15.7) |  जिस प्रकार अज्ञानी जन फल की आसक्ति से कार्य करते है उसी तरह विद्वान जनों को चाहिये की वे लोगो को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रह कर कार्य करे (B.G.3.5) |

श्री कृष्ण द्वारा दिया गया गीता का सार 4 श्लोक में है (चतु:श्लोकी): मै समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतो का उदगम हूँ, मुझ से ही हर वस्तु उत्पन्न होती है | जो बुद्धिमान यह भलीभांति जानते है, वे मेरी प्रेमाभक्ति में अत्यंत मनोयोग से लग जाते है (B.G.10.8) | मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते है | उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते है और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बात करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते है (B.G.10.9) | जो प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करने में निरंतर लगे रहते है, उन्हें मै ज्ञान प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे अंत में मुझे पा सकते है (B.G.10.10) |  मै उनपर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ (B.G.10.11) |

कृष्ण कहते हैं : जो जीवन के अंत में  केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता हें, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता हे इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं हे (B.G.8.5) | जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रख कर भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता हे वह मुझ को अवश्य ही प्राप्त करता हे (B.G.8.8) | मुझे प्राप्त कर के भक्ति योगी कभी भी दुखो से पूर्ण इस  अनित्य जगत में नहीं लोटते (B.G.8.15) | भक्ति ही कृष्ण के पास पहुँचने का एकमात्र साधन हे | हे धनंजयः मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुथे रहते है उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है (B.G.7.7) | जो लोग अनन्य भाव से मेरे दिव्य स्वरुप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते है, उनकी जो भी आवश्यकता होती है, उन्हें मै पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है उसकी रक्षा करता हूँ (B.G.9.22) |

अर्जुन श्री कृष्ण से पूछते है : मनुष्य ना चाहते हुए भी पाप कर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है, उसे बल पूर्वक उनमें लगाया जा रहा है (B.G.3.36) |

कृष्ण: इसका कारण रजोगुण के संपर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है | जिस प्रकार अग्नि धुंए से, दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है| जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है | इन्द्रियां, मन तथा बुद्धि इस काम के निवास स्थान है | इनके द्वारा काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है| इसलिए इन्द्रियों को प्रारंभ में ही वश में करे (B.G.3.37-40) |

सदैव मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हे वचन देता हूँ | समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ | मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा (सर्वाधिक गुह्यज्ञान B.G.18.65 & 18.66) |

अंत में कृष्ण अर्जुन से कहते हें: जो व्यक्ति भक्तो को यह परम रहस्य बताता हें, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अंत में वह मेरे पास वापस आयेगा | इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय हे और न कभी होगा (B.G.18.68-69) |

हरे कृष्णा

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