Hare Krsna,
Please accept my humble obeisance. All glories to Srila Prabhupada & Srila Gopal Krishna Maharaj.
इस जगत में तथाकथित विद्द्वान मनुष्य देवताओं को भगवान के विभिन्न रूप मान लेते हैं | वस्तुतः ये देवता ईश्वर के विभिन्न अंश होते हैं जिन्हें भौतिक जगत का प्रबन्ध करने के लिए विभिन्न मात्रा में भौतिक शक्तियां प्राप्त हैं | ऐसे व्यक्ति इस जगत के कष्टों के स्थायी निवारण के लिए कृष्णभावनामृत की शरण नही लेते क्योंकि वे इन्द्रियभोग के पीछे दीवाने रहते हैं इसलिए वे देवताओं की पूजा में व्यस्त रहते हैं | वैदिक साहित्य में भी विभिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा का विधान है | ये देवता कभी भी परमेश्वर- नारायण,विष्णु या कृष्ण के तुल्य नही हो सकते, यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी भी नही | ये देवता भी भगवान की कालशक्ति से भयभीत रहते हैं | श्रीमद् भागवतम (6.16.38) में बताया गया है कि “इन्द्रियतृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओं की उपासना करने वाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान है | ब्रह्मांड के संहार के साथ ये देवता व इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राजा की सत्ता छिन जाने पर राजकीय अधिकारी”| गीता (7.22-23) में भगवान् कृष्ण कहते हैं: “मूर्ख लोग देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि वे तत्काल फल चाहते हैं | उन्हें फल मिलते भी हैं लेकिन ये भौतिक फल छणिक व सीमित होते हैं, और ये सारे लाभ भी केवल मेरे द्वारा प्रद्दत हैं | किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं” |
हमारे ब्रहमांड में ब्रह्मा जी आदि जीव हैं जो (गर्भोदकशाई) विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हुए | सैंकड़ो दिव्य वर्षों की तपस्या के बाद उनके हृदय में भगवान प्रकट हुए तथा भगवत्कृपा से वे शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए भगवान को देख पाये | भगवान ने सर्वप्रथम ब्रह्मा जी को श्रीमद् भागवतम का सार; भगवान से हमारा सम्बन्ध, उस सम्बन्ध में हमारे कार्य तथा जीवन का लक्ष्य, 4 श्लोक में (चतु:श्लोकी) प्रदान किया |
भगवान कहते हैं: हे ब्रह्मा! वह मैं ही हूँ जो श्रृष्टि के पूर्व विद्धमान था, जब मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था तब इस श्रृष्टि की कारण स्वरूपा भौतिक प्रकृति भी नहीं थी | जिसे तुम अब देख रहे हो वह भी मैं ही हूँ, और प्रलय के बाद भी जो शेष रहेगा वह भी मैं ही हूँ (SB.2.9.33) | हे ब्रह्मा! जो भी सारयुक्त प्रतीत होता है, यदि वह मुझसे सम्बंधित नहीं है तो उसमें कोई वास्तविकता नहीं है | इसे मेरी माया जानो, इसे ऐसा प्रतिबिम्ब मानो जो अंधकार में प्रकट होता है (SB. 2.9.34) | हे ब्रह्मा! तुम यह जान लो कि ब्रह्माण्ड के सारे तत्व विश्व में प्रवेश करते हुए भी प्रवेश नहीं करते हैं | उसी प्रकार मैं उत्पन्न की गयी प्रत्येक वस्तु में स्थित रहते हुए भी साथ ही साथ प्रत्येक वस्तु से पृथक रहता हूँ (SB.2.9.35) | हे ब्रह्मा! जो व्यक्ति परम सत्य रूप श्री भगवान की खोज में लगा हो, उसे चाहिये कि वह समस्त परिस्थतियों में सर्वत्र और सर्वदा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से इसकी खोज करे (SB.2.9.36) |
हृदय में ज्ञान उदय होने के बाद ब्रह्मा जी कहते हैं (ब्रह्म संहिता 5.1): ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द: विग्रह:, अनादिरादि गोविन्द: सर्व कारण कारणम: | (भगवान तो कृष्ण हैं, उनका शरीर सच्चिदानन्द (शाश्वत, ज्ञान तथा आनन्द के) स्वरुप हैं | उनका कोई आदि नहीं हैं , क्योकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं | वे समस्त कारणों के कारण हैं ) |
ब्रह्मा जी भगवान के साकार रूप की पुष्टि इस प्रकार करते हैं: जो वेणु बजने में दक्ष हैं, खिले कमल की पंखुरियों जैसे जिनके नेत्र हैं, जिनका मस्तिक मोर पंख से आभूषित हैं, जिनके अंग नीले बादलों जैसे सुन्दर हैं, जिनकी विशेष शोभा करोड़ों काम देवों को भी लुभाती है, उन आदिपुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ (ब्रह्म संहिता 5.30) | वे आगे कहते हैं: मै उन आदि भगवान गोविंद की पूजा करता हूँ, जो अपने विविध पूर्ण अंशो से विविध रूपों तथा भगवान राम आदि अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु जो भगवान कृष्ण के अपने मूल रूप में स्वयं प्रकट होते हैं (ब्रह्म संहिता 5.39) | ब्रह्मा जी ने ब्रह्म संहिता में प्रत्येक श्लोक के अंत में लिखा है : आदिपुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूँ | ब्रह्माजी अपने लोक में भगवान गोविंद की पूजा अठारह अक्षरों वाले मन्त्र से करते हे जो इस प्रकार है: क्लिम कृष्णाय गोविन्दाय गोपिजनवल्लाभय स्वाहा |
चैतन्य चरितामृत (5.142) में भी कहा गया है कि “एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य” अर्थात ईश्वर तो केवल कृष्ण हैं और सब तो उनके दास हैं | आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तो श्री कृष्ण हैं | उनका मूल नाम गोविंद है | वे समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और उनका सनातन धाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है (CC.मध्य लीला 20.155) | श्री कृष्ण सर्व आकर्षक तथा समस्त आनंद के श्रोत हैं | वे षड-एश्वेर्य पूर्ण अर्थात (असीमित) ज्ञान, धन, बल, यश, सोन्दर्य तथा त्याग से युक्त हैं | श्री कृष्ण परम ईश्वर, परम पुरुष, परम नियंता, समस्त कारणों के कारण हैं, यही परम सत्य है | श्री कृष्ण समस्त यज्ञों तथा तपस्याओ के परम भोक्ता, समस्त लोको तथा देवताओ के परमेश्वर हैं (BG.5.29) | उनकी शक्ति से ही सारे लोक अपनी कक्षाओं में स्थित रहते हैं (BG.15.13) | जिस प्रकार अग्नि का प्रकाश अग्नि के एक स्थान पर रहते हुए चारो और फैलता है उसी प्रकार भगवान की शक्तियां इस सारे ब्रह्मांड में फैली हुई हैं (बिष्णु पुराण1.22.53) |
श्री कृष्ण ही भगवान(अवतारी) हैं, जिनके सर्व प्रथम तीन पुरुष अवतार हैं | पहले अवतार कारणोंदक विष्णु (महाबिष्णु), जिनके उदर में समस्त ब्रह्माण्ड हैं तथा प्रत्येक श्वास चक्र के साथ ब्रह्माण्ड प्रकट तथा विनिष्ट होते रहते हैं | दूसरे अवतार है; गर्भोदकशाई विष्णु जो प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट करके उसमे जीवन प्रदान करते हैं तथा जिनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए | तीसरे अवतार हैं; क्षीरोदकशाई विष्णु जो परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में तथा श्रृष्टि के प्रत्येक अणु में उपस्थित हो कर श्रृष्टि का पालन करते हैं (CC.मध्य लीला 20.251) | ब्रह्माजी कहते हैं: जिनके श्वास लेने से ही अनन्त ब्रह्मांड प्रवेश करते हैं तथा पुनः बाहर निकल आते हैं, वे महाविष्णु कृष्ण के अंशरूप हैं | अतः मै गोविंद या कृष्ण की पूजा करता हूँ जो समस्त कारणों के कारण हैं (ब्रह्म संहिता 5.48) |
श्रीमद् भागवतम में भगवान के 25 लीला-अवतार: चतु:सन (सनक,सनातन,सनतकुमार व सनन्दन), नारद, वराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, हयग्रीव, हँस, प्रश्निगर्भ, ऋषभ, प्रथू, नृसिंह, कूर्म, धन्वन्तरी, मोहिनी, वामन, परशुराम, राम, व्यास, बलराम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि | श्रीमद् भागवतम (SB.1.3.28) में सारे अवतारों के वर्णन के बाद सूत गोस्वामी कहते हैं: उपर्युक्त परमेश्वर के ये सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश (कलाएँ) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान (कृष्णस्तु भगवान्स्वयम) हैं | वे प्रत्येक युग में इन्द्र के शत्रुओं (असुरो) द्वारा उपद्रव किये जाने पर अपने विभिन्न स्वरूपों के माध्यम से जगत की रक्षा करने के लिए प्रकट होते हैं |
गर्ग मुनि नन्द महाराज को बताते हैं: “आपका पुत्र कृष्ण हर युग में अवतार के रूप में प्रकट होता है | भूतकाल में उसन तीन रंग- श्वेत(गौर), लाल तथा पीला धारण किये थे और अब वह श्यामवर्ण (काला) में प्रकट हुआ है (SB.10.8.13) | कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है, समस्त अवतारों के उदगम तथा सारी वस्तुओं के श्रोत हैं (CC.मध्य लीला 15.139) | श्रीमद् भागवतम (9.24.56) में शुकदेव गोस्वामी कहते हैं: “जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब परम नियन्ता भगवान श्री हरि स्वेच्छा से स्वयं प्रकट होते हैं” | गीता (4.7) में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं “हे भारत! जब जब और जहाँ जहाँ धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की प्रधानता होती है तब तब मै स्वयं अवतार लेता हूँ ” |
भगवान कृष्ण के स्व-धाम गोलोक वृन्दावन कहलाते हैं | इसका वर्णन भगवान कृष्ण ने गीता (15.6) में स्वयं बताया है: मेरे धाम में न तो सूर्य प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है, न चांदनी की, न बिजली जगमगाने की | वह धाम सर्वश्रेष्ट (सनातन) है, और जो भी वहां पहुँच जाता है वह फिर इस भौतिक जगत में कभी वापस नहीं आता | श्रीमद् भागवतम (2.6.19-20) में ब्रह्माजी नारद मुनि से इसकी पुष्टि करते हुए बताते हैं कि “भगवान का धाम जो भौतिक आवरणों से परे स्थित है, उसमे अमरता, निर्भयता तथा जरा और व्याधि से चिंतामुक्ति का अस्तित्व रहता है” | आध्यात्मिक जगत जो भगवान की तीन चौथाई शक्ति से बना है, इस भौतिक जगत से परे स्थित है और यह उन लोगों के लिए है जिनका पुनर्जन्म नही होता |
वे धाम जहाँ उनका स्वांश निवास करते हैं, बैकुंठ कहलाते हैं जहाँ भगवान नारायण रूप में रहते हैं | तात्विक दृष्टि से गोलोक तथा बैकुंठ में कोई अंतर नहीं है किन्तु बैकुंठ में भगवान की सेवा भक्तों द्वारा असीम ऐश्वर्य द्वारा की जाती हैं जबकि गोलोक में उनकी सेवा शुद्ध भक्तों द्वारा सहज स्नेह भाव में की जाती है | श्री कृष्ण विष्णु के रूप में उसी प्रकार विस्तार करते हैं जिस प्रकार एक जलता दीपक दूसरे को जलाता है | यधपि दोनों दीपक की शक्ति में कोई अंतर नहीं होता तथापि श्री कृष्ण आदि दीपक के समान हैं (ब्रह्म संहिता 5.46) |
कृष्ण स्वांश नारायण या विष्णु से भी श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनमे 4 विशेष दिव्य गुण हैं: 1. उनकी अद्भुत लीलायें, 2. माधुर्य-प्रेम के कार्यकलापो में सदा अपने प्रिय भक्तों से घिरा रहना (यथा गोपियाँ), 3. उनका अद्भुत सोन्दर्य तथा 4. उनकी बाँसुरी की अद्भुत ध्वनि (CC.मध्य लीला 23.84) | भगवान कृष्ण लक्ष्मीजी के मन को भी आकृष्ट करते हैं | लक्ष्मीजी ने रासलीला में सम्मलित होने के लिए कठिन तपस्या की, लेकिन शामिल नहीं हो पाई क्योकि गोपियों के भाव/शरीर में ही रास लीला में प्रवेश किया जा सकता था | जब गोपियाँ रास लीला के समय कृष्ण को ढूँढ रही थी तो कृष्ण एक बगीचे में नारायण के चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गए किन्तु वे गोपियों की प्रेमदृष्टि को आकृष्ट नहीं कर पाए, इससे कृष्ण की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है (CC.मध्य लीला 9.147-149) |
श्रीमद् भागवतम (SB.4.24&28-29) में शिवजी कहते हैं : जो व्यक्ति प्रकृति तथा जीवात्मा में से प्रत्येक के अधीष्ठाता भगवान कृष्ण के शरणागत हैं, वे वास्तव में मुझे अत्यधिक प्रिय हैं | जो व्यक्ति अपने वर्णाश्रम धर्म को १०० वर्षो तक समुचित रीति से निभाता है, वह ब्रह्मा के पद को प्राप्त कर सकता है | उस से अधिक योग्य होने पर वह मेरे पास पहुँच सकता हे | किन्तु भगवान का शुद्ध भक्त सीधा वैकुण्ठ में जाता है, जबकि मैं तथा अन्य देवता इस संसार के संहार के बाद ही इन लोक को प्राप्त कर पाते हैं | वे कहते हैं: हे भगवान, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरन्तर आपके पूजनीय चरण-कमलों पर स्थिर रहती है जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के श्रोत होने के कारण समस्त मुक्त महामुनियोँ द्वारा पूजित है (SB.4.7.29) |
श्रीमद् भागवतम (SB.10.87.46) में नारदजी नारायण ऋषि से कहते हैं: मैं उन निर्मल कीर्ति वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जो अपने सर्व-आकर्षक साकार अंशों को इसलिए प्रकट करते हैं जिससे सारे जीव मुक्ति प्राप्त कर सकें | नारदजी ध्रुव से कहते हैं: तुम भगवान की शरण में जाओ | ब्रह्मादि सहित सभी देवगण उनके नियंत्रण में कार्य कर रहे हैं जिस प्रकार नाक में रस्सी पड़ा बैल अपने स्वामी द्वारा नियंत्रित किया जाता है (SB.4.11.27) | ब्रह्माजी: हे प्रभु! यह सारा द्रश्य जगत आपसे उत्पन्न होता है, आप पर टिका रहता है और आपमें लीन हो जाता है | आप ही प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अंत हैं | जिस तरह पृथ्वी मिटटी के पात्र का कारण है, उस पात्र को आधार प्रदान करती है और जब पात्र टूट जाता है तो अंतत: उसे अपने में मिला लेती है (SB.8.6.10) | मैं, शिवजी तथा सारे देवताओं के साथ साथ दक्ष जैसे प्रजापति भी चिंगारियां मात्र हैं, जो मूल अग्नि स्वरुप आपके द्वारा प्रकाशित हैं (SB.8.6.15)|
श्री शुकदेव गोस्वामी कहते हैं : मैं उन सर्वमंगलमय भगवान कृष्ण को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके यशोगान, स्मरण, दर्शन, वंदन, श्रवण तथा पूजन से पाप करने वाले के सारे पाप फल तुरंत नष्ट हो जाते हैं (SB.2.4.15) | भगवान श्री कृष्ण समस्त भक्तों के पूजनीय स्वामी, सभी लक्ष्मी देवियों के पति, समस्त यज्ञों के निर्देशक, समस्त दिव्य एवं भौतिक लोकों के अधिष्ठाता तथा प्रथ्वी पर परम अवतार हैं (SB.2.4.20) | भगवान कृष्ण, समस्त जीवात्माओ के परमात्मा के रूप में उनके ह्रदय में उसी भांति छुपे रहते हैं जैसे इंधन के प्रत्येक टुकड़े में अग्नि छुपी रहती है | भगवान इस प्रकृति के कण-कण में इसी प्रकार विद्यमान रहते हैं जैसे दूध के प्रत्येक कण में मक्खन छिपा रहता है |
श्रीमद् भागवतम में श्री सूत गोस्वामी निम्न दो श्लोको (1.2.28-29) के माध्यम से पुष्टि करते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ही एकमात्र पूजा के पात्र हैं: “वेदों में ज्ञान का परम लक्ष्य भगवान श्री कृष्ण (वासुदेव) हैं | यज्ञ करने का उद्देश्य उन्हें ही प्रसन्न करना है | योग उन्ही के साक्षात्कार के लिए हैं | सारे सकाम कर्म अंततः उन्ही के द्वारा पुरस्कृत होते हैं | सारी तपस्याये उन्ही को जानने के लिए की जाती हैं | उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है और वे ही जीवन के परम लक्ष्य हैं” |
ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि, प्रदुमन अनिरुदाय नमः संकर्षणाय च (S.B.1.5.37) |
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनंदनाय च, नन्दगोपकुमाराय व गोविन्दाय नमो नमः (S.B.1.8.21) |
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः(S.B.10.72.16) |
हरे कृष्णा
दण्डवत
आपका विनीत सेवक
Comments
BOL NITYANAND BOL HARI BOL HARI BOL......
Dear Respected Devotees,
I am not a knowledgeable person and is like a fool who has just reproduced whatever is written in our divya Shastras namely Srimad Bhagavatam, Srimad Bhagvad Geeta and Chaitanya Charitamrit. Srila Prabhupad had also instructed us to read these books.
A list of the incarnations occurs in the Srimad Bhagwatam, First Canto, Third Chapter, as follows: 1. Kumaras, 2. Narada, 3· Varaha, 4· Matsya, 5· Yajna, 6. Naranarayan, 7· Kardemikapeel, 8. Duttatreya,9. Hayasirsha, IO. Hansa, II. Dhruvapriya Prishni Garva, I2. Rishava, I3. Prithu, I4. Nrishingha, I5. Kurma, I6. Dhanvantari, I7. Mohini, I8. Vamana,19. Bhargava,2o. Raghavendra,2I. Vyas,22. Pralambari Valarama,23. Krishna, 24. Buddha and 25. Kalki. So Buddha is an incarnation of Sri Krishna. The list also given in above blog. I have no knowledge about Sri Ayyappa.
your insignificant servant
Hare Krsna Devotees, PAMHO,AGTSP
Srila Prabhupaad: “Do not try to see God, but try to serve God with such sincere devotion that He is pleased to see us”.
your servant