Hare Krsna,

Please accept my humble obeisances. All glories to Srila Prabhupada & Srila Gopal Krishna Maharaj.

कृष्णभावनामृत की सरल विधि (A, B, C, D) :

हम सब भौतिक शिक्षा की पढाई A, B, C व D से शुरू करते हैं | लेकिन आध्यात्मिक शिक्षा की शुरुआत में भी हमें A, B, C व D के सही मायने जानने की जरुरत हैं |यदि हम दिए गए अर्थों को समझ कर तदनुसार कार्य करेंगे तो कृष्णभावनामृत में हमारी प्रगति सुनिश्चित है |

A- Association:  साधू तथा शुद्ध भक्त-जनों का सतत सत्संग |  श्रीमद् भागवतम के अनुसार “भगवद्भक्त के साथ क्षण-भर की संगति के मूल्य की तुलना न तो स्वर्गलोक की प्राप्ति से, न भौतिक बंधन की मुक्ति से की जा सकती है” (SB.1.18.13) | रामचरितमानस(सुन्दर कांड) में लंकिनी नाम की राक्षसी जब हनुमानजी के मारने से व्याकुल हों जाती है तो उन्हें पहचान कर कहती है: मोक्ष तथा स्वर्ग के सभी सुखों को यदि तराजू के एक पलड़े में रख दिया जाये तो भी वह उस सुख के बराबर नहीं हो सकता जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है | प्रचेताओं ने भी भगवान से कहा: “एक छण की भी शुद्ध भक्त की संगति के सामने स्वर्गलोक जाने अथवा मोक्ष पाकर ब्रह्मतेज में मिलने की कोई तुलना नही की जा सकती है | शरीर को त्याग कर मरने वाले जीवों के लिए सर्वश्रेष्ठ वर तो शुद्ध भक्तों की संगति है” (SB.4.30.34) | साधू-संग साधू-संग सर्व-शास्त्रे कहे, लव-मात्र साधू-संग सर्व-सिद्धि होय | सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है | कृष्ण-भक्ति का मूल कारण महान भक्तों की संगति है (CC.मध्य लीला 22.54 & 83) | विभिन्न योनियों में जीव विभिन्न लोकों में विचरण करते रहते हैं, किन्तु यदि कदाचित उन्हें शुद्ध भक्त की संगति प्राप्त हो जाती है, तो वे सारे कार्य त्याग कर भगवान कृष्ण की सेवा में लग जाते हैं |

स्वरूपसिद्ध ब्राह्मण जड़ भरत, राजा रहूगण को बतलाते हैं कि “शुद्ध भक्त के चरण-कमलों की धूलि अपने सिर पर धारण किये बिना मनुष्य भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता”| उन्नत भक्तों की संगति मात्र से पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सांसारिक मोहों को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है | भक्तों की संगति से ही श्रवण तथा कीर्तन द्वारा भगवान की सेवा में अनुरुक्त हुआ जा सकता है | इस प्रकार सुप्त कृष्णभावनामृत को जागृत कर व इसके अनुशीलन द्वारा इसी जीवन में परम-धाम को वापस जाया जा सकता है (SB.5.12.16) |

जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरण-कमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसे माया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी (SB.5.3.14) |  भक्त की संगति करने से कृष्ण-भक्ति में श्रद्धा जागृत होती है | शुद्ध भक्त की कृपा बिना किसी को भक्ति-पद प्राप्त नहीं हो सकता तथा वह भवबन्धन तक से नही छूट सकता (CC.मध्य लीला 22.51) | श्रीमद् भागवतम में श्री शुकदेव गोस्वामी कहते हैं: “अनेकानेक जन्मों के पश्चात मनुष्यों को अपने पुण्य कर्मो के फलित होने पर मनुष्य को शुद्ध भक्तों की संगति का अवसर प्राप्त होता है तभी उसके अज्ञानरूपी बंधन की ग्रंथि, जो उसके नाना प्रकार के सकाम कर्मो के कारण जकड़े रहती है,कट पाती हैं ” (SB.5.19.20) | भगवान कृष्ण कुबेर के पुत्रों को उपदेश देते हैं: “जब व्यक्ति सूर्य के समक्ष होता है तो अंधकार नही रह पाता | उसी तरह जब व्यक्ति ऐसे साधु या भक्त की संगति में रहता है, जो पूर्णतया दृढ तथा भगवान के शरणागत होता है, तो उसका भव-बन्धन छूट जाता है” (SB.10.10.41) |  

श्रीमद् भागवतम (10.84.11) में भगवान कृष्ण कुरुक्षेत्र में मुनियों की सभा में कहतें हैं: “जलमय तीर्थ स्थान तथा मिट्टी व पत्थर के अर्चाविग्रह किसी को दीर्घकाल के बाद ही पवित्र कर सकते हैं किन्तु साधुजन दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देते हैं” | तथा भगवान कृष्ण अपने शुद्ध भक्त श्रुतदेव को समझाते हैं: “मनुष्य मंदिर के अर्चाविग्रहों, तीर्थस्थलों तथा पवित्र नदियों के दर्शन, स्पर्श तथा पूजन से धीरे धीरे शुद्ध बन सकता है किन्तु महान मुनियों की कृपादृष्टि प्राप्त करने मात्र से, उसे तत्काल वही फल प्राप्त हो सकता है” (SB.10.86.52) |

भक्तों की संगति के बारे में शिवजी भगवान से प्रार्थना करते हैं : संयोग से भी यदि कोई क्षण भर के लिए भक्त की संगति पा जाता है, तो उसे कर्म और ज्ञान के फलों  का तनिक भी आकर्षण नहीं रह जाता | अतः आप मुझे अपने भक्तों की संगति का आशीर्वाद दे, क्योंकि आपके चरण-कमलों की पूजा करने से वे पूर्णतया शुद्ध हो चुके हैं  (SB.4.24.57-58) |

B- Books: श्रीमद् भगवद् गीता (BG.)- श्री कृष्ण का अपने मुख से दिया गया ज्ञान जिसमे उन्होंने कर्म-योग,ज्ञान-योग,ध्यान योग तथा सर्वोच्च भक्तियोग का वर्णन किया है तथा श्रीमद् भागवतम (SB.)- भगवान श्री कृष्ण के बारे में बताया गया ज्ञान (समस्त वैदिक साहित्य का पका हुआ फल) | यदि इन दो दिव्य ग्रंथो के श्रवण, अध्ययन एवम् भक्तों के साथ चर्चा में पर्याप्त समय व्यतीत किया जाए तो भगवद् -साक्षात्कार होना सुनिश्चित है |

C- Chanting: हरे कृष्ण महामंत्र का उच्च स्वर से कीर्तन, ऐसा करने पर हमारे साथ साथ हमारे आसपास अचर व चर प्राणियो का भी कल्याण होता है | प्रत्येक दिन कम से कम “हरे कृष्ण महामंत्र” की 16 जप माला करनी चाहिये | यदि हमारे मन पर दूसरे विचार हावी हो, फिर भी हम निश्चित जप जरूर करें | हमारे हृदय रूपी दर्पण पर जन्म जन्मान्तर से पाप कर्मो के द्वारा जमी हुई धूल या मैल को साफ़ करने का कलियुग में इसके अलावा कोई उपाय नहीं है | जो व्यक्ति भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करता है, समझ लो कि उसने वेदों में वर्णित सारे तप तथा यज्ञ संपन्न कर लिए, सारे तीर्थस्थानों में स्नान कर लिया और सारे वेदों का अध्ययन कर लिया (SB.3.33.7) | कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार कीर्तन करने मात्र से मनुष्य पापी जीवन के सारे फलों से छूट जाता है | पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भक्ति की नवों विधियों को पूरा कर सकता है (CC.मध्य लीला 15. 107) | श्रीमद् भागवतम को सूत गोस्वामीजी इस श्लोक (12.13.23) से समाप्त करते है: मैं उन भगवान हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है|

D- Diet: कृष्ण अर्पित भोग का प्रसाद ग्रहण करना | भगवान के भक्त, यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद) को ही खाते हे, अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय सुख के लिए भोजन बनाते हैं वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं (BG.3.13) | आप ही बतलाईये कि, यदि हम अपने इन्द्रियतृप्ति के लिए बनाया गया भोजन (पाप) खायेंगे, तो क्या हम सुखी रह सकते हैं? कभी नही, क्योंकि यह हमें कर्म बंधन में बांधता है | कृष्ण को अर्पित किये गए भोजन का शेष महाप्रसाद कहलाता है, भगवान का महाप्रसाद पाते ही उसे तुरन्त ग्रहण कर लेना चाहिए, भले ही वह सूखा, बासी, या दूर देश से लाया हुआ क्यों न हो | इसमें देश व काल का विचार नहीं करना चाहिए (CC.मध्य लीला 6.225) | जीव्य्हा (जीभ) पर नियंत्रण करने का कोई और उपाय नहीं है | श्रीमद् भागवतम (11.8.21) के अनुसार, यदि कोई मनुष्य जीभ को वश में करने में सक्षम होता है, तो उसे सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने वाला माना जाता है |

  तथा

भगवान के अर्चाविग्रह की प्रेमपूर्वक पूजा तथा सेवा | अर्चाविग्रह भगवान का अवतार होता है, जिसके माध्यम से वे भक्त की सेवायें स्वीकार करते हैं | एक मोटा उधाहरण: सड़क के किनारे पत्रपेटिकायें होती हैं, जिनमे यदि हम अपने पत्र डाल दे तो वे बिना कठनाई के अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाते हैं |

श्रीमद् भागवतम (10.23.33) में कृष्ण ब्राह्मण पत्नियों से कहते हैं : मेरे विषय में सुनने, मेरे अर्चा-विग्रह स्वरुप का दर्शन करने, मेरा ध्यान धरने से तथा मेरा नाम एवं महिमाओं का कीर्तन करने से ही मेरे प्रति प्रेम बढ़ता है, भौतिक निकटता से नहीं | कृष्ण गोपियों से कहते हैं: मेरी कृपा प्राप्त करने का साधन मेरी प्रेममयी सेवा है | जो जीव मेरी सेवा करते हैं, वे वैकुण्ठ जाने और ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण शाश्वत जीवन प्राप्त करने के पात्र हैं (CC.मध्य लीला 8.89 & SB.10.82.44) |

श्रीमद् भागवतम (4.22.30 & 33) में सनत्कुमार राजा प्रथू को समझाते हैं: “जब मनुष्य का मन तथा इन्द्रियाँ सुख-भोग के हेतु विषय-वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते हैं, तो मन विचलित हो जाता है | परिणाम स्वरुप लगातार विषय-वस्तुओं का चिंतन करने से मनुष्य की असली कृष्णचेतना वैसे ही खो जाती है, जैसे कि जलाशय के किनारे उगे हुए बड़ी बड़ी कुश जैसी घास के द्वारा चूसे जाने के कारण जलाशय का जल | धन कमाने तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए उसके उपयोग के विषय में निरन्तर सोचते रहने से प्रत्येक व्यक्ति का पुरुषार्थ विनिष्ट होता है | जब कोई ज्ञान तथा भक्ति से शून्य हो जाता है तो वह वृक्ष जैसी जड़ योनियों में प्रवेश करता है” |

श्रीमद् भागवतम (11.9.29) में श्री कृष्ण उद्धव को अवधूत ब्राह्मण की कथा सुनाते हुए ज्ञान प्रदान करते हैं: “अनेक जन्मो के पश्चात् व्यक्ति को यह दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, जो अस्थायी होते हुए भी उसे जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है | इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह इस शरीर के द्वारा तब तक जीवन की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त करने का प्रयास करता रहे, जब तक यह शरीर मर कर गिर नहीं जाता | क्योंकि इन्द्रिय भोग तो निम्न योनी के प्राणियों को भी उपलब्ध होता है जबकि कृष्ण-भक्ति केवल मनुष्य शरीर में ही संभव है | तथा कहते हैं कि “मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असली स्वार्थ (उद्देश्य) को देखना चाहिए और इसीलिए पत्नी, संतान, घर, भूमि, रिश्तेदारों, मित्र, सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए” (SB.11.10.7) |

श्रीमद् भागवतम में राजा रहूगण कहते हैं: “यह मनुष्य जन्म समस्त योनियों में श्रेष्ठ है, यहाँ तक कि स्वर्ग में देवताओं के बीच जन्म लेना उतना यशपूर्ण नहीं जितना इस पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेना | स्वर्गलोक में अथाह भोग-सामग्री के कारण देवताओं को भक्तों की संगति का अवसर ही नहीं मिलता” (SB.5.13.21) | श्रीमद् भागवतम (3.15.24) में ब्रह्माजी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं: “मनुष्य जीवन इतना महत्वपूर्ण है कि देवता भी मनुष्य शरीर की कामना करते हैं क्योंकि मनुष्य जीवन में ही भक्ति संपन्न की जा सकती है” | इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि अन्य सारे कार्यो को छोड़ कर भक्ति-कार्यो में जुट जाये क्योकि इसी से सारी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है |

श्रीमद् भागवतम (10.72.11) में भगवान कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं: “इस जगत में मेरे भक्त को देवता भी अपने बल, सौन्देर्य, यश या संपत्ति से नहीं हरा सकते, पृथ्वी के शासक की तो बात ही क्या ?” | शिवजी पार्वती से कहते हैं: “जो व्यक्ति नारायण का भक्त होता है, वह किसी से नहीं डरता भक्त के लिए स्वर्ग-प्राप्ति,नरक-गमन तथा भवबंधन से मुक्ति, ये एक समान हैं ” (SB.6.17.28) | भौतिक शिक्षा द्वारा संसार को जीत लेना वांछनीय नहीं है | शिक्षा का उद्देश्य श्रीकृष्ण तथा उनकी भक्ति को समझना है | यदि मनुष्य अपने को भक्ति में लगाता है, तो उसकी शिक्षा सार्थक है अन्यथा उसकी शिक्षा झूठी है| श्रीमद् भागवतम (4.29.51) के अनुसार “जो भक्ति में लगा हुआ है, वह इस संसार से रंचमात्र भी नहीं डरता, वही वास्तव में शिक्षित हैं” |

कलियुग द्वारा याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी जहाँ जुआ खेलना, शराब पीना, वैश्यावृति तथा पशु-वध होते हों (SB.1.17.38) | इसीलिए कृष्णभावनामृत (भक्ति) में प्रगति के लिए हमें सबसे पहले इन चार चीजों का परित्याग करना होता है: अर्थात जुआ न खेलना, किसी भी प्रकार का नशा न करना, अवैध यौन सम्बन्ध को त्यागना तथा मॉस अंडे आदि न खाना | जुआ, नशा, व्यभिचार और मांसाहार ये पापमय जीवन के चार खम्बे हैं |

श्रील रूप गोस्वामी  ने उपदेशामृत (2) में भक्ति विनिष्ट होने के 6 कारण बताये हैं: 1.आवश्यकता से अधिक भोजन करना व आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना, 2. सांसारिक विषयों के बारे में व्यर्थ बातें करना, 3. जिन सांसारिक वस्तुओ को प्राप्त करना अत्यंत कठिन हो उनके लिए अत्याधिक प्रयास करना, 4. शास्त्रों के विधि-विधानों का पालन भक्ति के लिए नही अपितु नाम के लिए करना, 5. संसारी प्रवर्ती वाले लोगो की संगति करना व  6. भौतिक उपलब्धियो के लिए लोभ करना |

भक्ति-पद तक ऊपर उठने के लिए हमें पांच बातों का ध्यान रखना चाहिए : 1. भक्तों की संगति करना, 2. भगवान कृष्ण की सेवा में लगना, 3. श्रीमद् भागवत का पाठ करना, 4. भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करना तथा 5. वृन्दावन या मथुरा में निवास करना | यदि कोई इन पांच बातों में से किसी एक में थोडा भी अग्रसर होता है तो उस बुद्धिमान व्यक्ति का कृष्ण के प्रति सुप्त प्रेम क्रमशः जागृत हो जाता है (CC.मध्य लीला 24.193-194) |

कृष्णभावनामृत हमारी चेतना को निर्मल तथ शुद्ध बनाने की विधि है |  जब मनुष्य हर वस्तु को अपनी मानता है तब वह भौतिक चेतना में रहता है और जब वह समझ जाता है कि हर वस्तु श्री कृष्ण की है तो वह कृष्णभावनामृत को प्राप्त कर लेता है | कृष्णभावनामृत में की गयी प्रगति कभी नष्ट नहीं होती | जिसने कृष्ण के प्रति प्रेम उत्पन्न कर लिया वही भक्त है | गीता (6.41-43) में भगवान कृष्ण कहते हैं: “यदि भक्ति पूरी नहीं भी होती तो भी कोई नुकसान नहीं हे क्योकि असफल योगी पवित्र आत्माओ के लोक में अनेक वर्षो तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानो के कुल में जन्म लेता हें | ऐसा जन्म पा कर वह अपने पूर्व जन्म की देवी चेतना को पुनः प्राप्त करता हे और आगे उन्नति करने का प्रयास करता है” |

कृष्णभावनामृत में प्रगति करते समय हमें एक बात का और विशेष ध्यान रखना है: भगवान, भगवान के नाम तथा भगवान के भक्त के प्रति कभी भी अपराध नहीं करना है | इससे बचने का सरल उपाय है अपने आप को दीन तथा भगवान का दास समझना | भगवान ही केवल कर्ता है, हम तो अयोग्य व अधम है | सब में भगवान की उपस्थिति महसूस करते हुए सबको सम्मान दें | तथा साथ ही जो व्यक्ति दूसरों के गुणों तथा आचरण की प्रशंसा करता है या आलोचना करता है, वह मायामय द्वैतों में फसने के कारण कृष्णभावनामृत से विपथ हो जाता है (SB.11.28.2) |

भक्तिहीन व्यक्ति के लिए उच्च कुल, शास्त्र-ज्ञान, व्रत, तपस्या तथा वैदिक मंत्रोच्चार वैसे ही हैं, जैसे मृत शरीर को गहने पहनाना (CC.मध्य लीला 19.75) | प्रामाणिक शास्त्रों का निर्णय है कि मनुष्य को कर्म, ज्ञान तथा योग का परित्याग करके भक्ति को ग्रहण करना चाहिए, जिससे कृष्ण पूर्णतय तुष्ट हो सकें  (CC.मध्य लीला 20.136) | भक्ति के फलस्वरूप मनुष्य का सुप्त कृष्ण प्रेम जागृत हो जाता है | सुप्त कृष्ण-प्रेम को जागृत किये बिना कृष्ण को प्राप्त करने का अन्य कोई साधन नहीं है (CC.अन्त्य लीला 4.58) | गीता (BG.18.58) में भगवान कृष्ण कहते हैं: यदि तुम मेरी चेतना में स्थित रहोगे तो मेरी कृपा से बद्ध-जीवन के समस्त अवरोधों को पार कर जाओगे | लेकिन यदि मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नही करोगे, तो तुम विनिष्ट हो जाओगे | तथा  “जब भक्ति से जीव पूर्ण कृष्णभावनामृत में होता है तो वह वैकुण्ठ में प्रवेश का अधिकारी हो जाता है” (BG.18.55) |  

शुकदेव गोस्वामी कहते हैं: “हे राजन!, जो व्यक्ति भगवन्नाम तथा भगवान के कार्यो का निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन करता है, वह बहुत ही आसानी से शुद्ध भक्ति पद को प्राप्त कर सकता है | केवल व्रत रखने तथा वैदिक कर्मकांड करने से ऐसी शुद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती” (SB.6.3.32) | भक्ति के बिना कोरा ज्ञान मुक्ति दिलाने में समर्थ नहीं है, लेकिन यदि कोई भगवान कृष्ण की प्रेममयी सेवा में आसक्त है तो वह ज्ञान के बिना भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है (CC.मध्य लीला 22.21) | मुक्ति तो भक्त के समक्ष उसकी सेवा करने के लिए हाथ जोड़े खड़ी रहती है |  

वैदिक ग्रंथों में कृष्ण आकर्षण के केन्द्रबिन्दु हैं और उनकी सेवा करना हमारा कर्म है | हमारे जीवन का चरम लक्ष्य कृष्ण-प्रेम प्राप्त करना है | अतएव कृष्ण, कृष्ण की सेवा तथा कृष्ण-प्रेम; ये जीवन के तीन महाधन हैं (CC.मध्य लीला 20.143) | गीता (7.29) में कहा गया है कि, “जो  बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न-शील रहते हैं, वे बुद्धिमान कृष्ण की भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं” |

श्रीमद् भागवतम (4.23.12) में राजा पृथू भगवद्-ज्ञान प्राप्त कर कहते हैं: “जीवन का परम लक्ष्य तो श्री कृष्ण की भक्ति है और जब तक योगी तथा ज्ञानी कृष्ण कथा के प्रति आकृष्ट नहीं होते, संसार सम्बन्धी उनके सारे भ्रम (मोह) कभी भी दूर नहीं हो सकते” | शुकदेव गोस्वामी शौनकादि ऋषियों से कहते हैं: “भगवान की भक्ति करना ही किसी के पापों को समूल नष्ट करने की विधि है” (SB.12.11.17) | नारदजी श्रील व्यासदेव को बताते हैं कि “इस जीवन में भगवान की तुष्टि के लिए जो भी कार्य किया जाता है, उसे भक्तियोग या भगवान के प्रति दिव्य प्रेमा-भक्ति कहते हैं” (SB.1.5.35) |

नियमित भक्ति करते रहने से हृदय कोमल हो जाता है, धीरे धीरे सारी भौतिक इच्छाओं से विरक्ति हो जाती है, तब वह कृष्ण के प्रीति अनुरुक्त हो जाता है | जब यह अनुरुक्ति प्रगाढ़ हो जाती है तब यही भगवत्प्रेम कहलाती है (CC.मध्य लीला 19.177) | यदि कोई भगवत्प्रेम उत्पन्न कर लेता है और कृष्ण के चरण-कमलों में अनुरुक्त हो जाता है, तो धीरे-धीरे अन्य सारी वस्तुओं से उसकी आसक्ति लुप्त हो जाती है  (CC.आदि लीला 7.143) | भगवत्प्रेम का लक्ष्य न तो भौतिक दृष्टि से धनी बनना है, न ही भवबंधन से मुक्त होना है | वास्तविक लक्ष्य तो भगवान की भक्तिमय सेवा में स्थित होकर दिव्य आनन्द भोगना है | जब मनुष्य भगवान कृष्ण की संगति का आस्वादन कर सकने योग्य हो जाता है, तब यह भौतिक संसार, जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है  (CC.मध्य लीला 20.141-142)|

श्री चैतन्य महाप्रभु: “सभी सम्बन्धों के केंद्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है, उनकी भक्ति करना मनुष्य का वास्तविक कर्म है और भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है” (CC.मध्य लीला 6.178) |

हरे कृष्णा

दण्डवत

आपका विनीत सेवक

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Comments

  • Hare Krishna Prabhu ji...very nice and compiled information for all devotee. Thanks for sharing.
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