मूल:
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़मते।
प्राप्ते सन्निहिते मरने, नहि नहि रक्षति ड्ड्कृञ्करणे॥१॥
हिन्दी:
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
त्राण नहीं सन्निकट मरण से, अपर सूत्र तज मूढ़मते॥१॥
अर्थ:
हे मूर्ख, भगवान का बार-बार भजन कर। मृत्यु के समीप आने पर सीखी हुई सारी विद्याएँ निर्रथक हो जाती हैं। इसलिए तू भगवान की हीं शरण ले, उन्हीं को पुकार।
आदि शंकराचार्य ऐसे गाते थे जैसे उनकी जिह्वा पर देवी सरस्वती का वास हो। इस श्लोक में भी शायद देवी स्वयं उनके मुख से संसारी प्राणी से कह रही हैं - "तेरी सीखी हुई सारी विद्याएँ, सारी कलाएँ जिसकी निपुणता पर तू सदा इतराता रहता है, सब की सब मिल कर भी अन्त-काल में तेरी रक्षा नहीं कर पाएँगी। अत: गोविन्द का स्मरण कर, इसी में तेरा कल्याण है। कालदेव के सम्मुख क्या तू अपनी कला का प्रदर्शन कर सकेगा?"
आदि शंकराचार्य अद्वैत-वेदान्त के प्रवर्तक हैं और उनके विचार हमारी भक्ति के सिद्धान्त के थोड़ा हट कर है क्योंकि भक्ति सदा द्वैत की पक्षधर रही है - एक भक्त तो दूसरा भगवान; एक आत्मा तो दूसरा परमात्मा। तब अगर अद्वैत सिद्धान्त के आचार्य, शंकर अगर गोविन्द नाम भजने की बात करते हैं तो फ़िर हम क्यों "हरे कृष्ण" महा-मंत्र जपने में ढ़िलाई बरतें।
शंकर सही कह रहे हैं, ईश-भक्ति के बिना पठन-पाठन या किसी भी ज्ञान-विद्या का कोई मतलब नहीं है। इसी भक्ति को तो हम "कृष्णभावनाभावित" होना कहते हैं। भक्ति बिन सब बेकार है। मनुष्य जिन अनेक प्रकार के अभिमानों में फ़ंसा रहता है उनमें "पांडित्य-गर्व" महत्वपूर्ण है। कामिनी-कंचन का लोभ हमें आसानी से समझ में आ जाता है, पर पांडित्य का लोभ समझ में आने में कठिनाई होती है। तो हम सारी आयु विद्या को सीखने में लगा दें और फ़िर सब कामों से समय अगर बचें तब भक्ति को सीखने समझने का प्रयास करे, वो भी आधे-अधुरे मन से - यह कैसी विडम्बना है। समस्त शास्त्रों के शिखर पर पहुँचने वाले श्री शंकराचार्य अपने इस स्तोत्र में सभी प्रकार के मोह से बचने की हमें हिदायत दे रहे हैं। उन्हें अपने काल में भक्ति-विहीन पंडितों से लगातार पाला पड़ता रहा था। शायद इसीलिए वे अपने इस श्लोक की शुरुआत हीं "भज गोविन्द..." से कर रहे हैं।
हमारे गुरू परम्परा के शिखर पर विराजमान श्रीकृष्ण अपने गीता के संदेश में यही तो कह रहे हैं - मोह त्यागो और भक्ति में रमो। अब इससे सीधा कृष्ण क्या कह सकते हैं, हमारे कल्याण के लिए। अब अगर इस पर भी हम में से किसी को अद्वैत के सिद्धान्त आकर्षक लगें तो फ़िर अद्वैत के जगदगुरू शंकर के "भज गोविन्द..." को याद कीजिए।
जैसे भी हो - भज गोविन्द....या फ़िर...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
(आदिशंकर ने "भज गोविन्द स्तोत्र" में कई सारी बातें की हैं कई सारी मोह से हम सब को चेताया है, पर शुरुआत तो हरि नाम संकीर्तण से हुआ है, और यही मूल तथ्य भी है)
Comments
The complete "Bhaj Govindam Strotra" has 30 stanzas. I got it from my grandfather's diary. He was a firm believer in Gita and a freedom fighter (member of Gandhi's Non-cooperation Movement). In fact, he introduced me to Gita during my school days. I'll post more on "Bhaj Govindam" later.
Hare Krsna , Thanks for sharing this ,from where did you got this ,i mean any book of any acharya ?