दूल्ह राम, सीय दुलही री।

घन-दामिन-बर बरन, हरन-मन सुन्दरता नख-शिख निबही री॥

ब्याह-विभूषन-बसन-बिभूषित, सखि-अवली लखि ठगि सी रही री॥

जीवन-जनम-लाहु लोचन फल है इतनोइ, लह्यो आजु सही री॥

सुखमा-सुरभि सिंगार-छीर दुहि, मयन अमिय मय कियो है दही री॥

मथि माखन सिय राम सँवारे, सकल भुवन छवि मनहुँ मही री॥

तुलसिदास जोरी देखत सुख सोभा, अतुल न जाति कही री॥

रूप रासि बिरची बिरंची मनो, सिला लवनि रति काम लही री॥

_गोस्वामी तुलसीदास

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