एक बार देवर्षि नारद मुनि भगवान से मिलने बैकुंठ गए। उसके पश्चात वे त्रिवेणी संगम (प्रयाग इलाहबाद) में पवित्र स्नान किये। त्रिवणी जहाँ तीनो पवित्र नदियों का संगम अर्थात गंगा जी, जमुना जी और सरस्वती जी का मिलाप होता है।
स्नान करने के पश्चात वे जंगल के रास्ते से गुजर रहे थे, वहां उन्होंने अधमरे भालू, हिरन के बच्चे और कई जानवरों को देखा जिन्हे तीर के जख्म से अतयन्त रक्त निकल रहा था।
नारद मुनि के हृदय में अत्यन्त पीड़ा हुयी , वे उस रस्ते की तरफ चल पड़े जिधर से ये सारे जानवर आ रहे थे। वे उस जगह पहुंचे जहाँ बहोत सारे जानवर कुछ खा रहे थे और मुनि को देखते ही वे भाग गए। ऐसा देख कर पेड़ के पीछे छिपे शिकारी को मुनि के ऊपर क्रोध आया पर मुनि को अत्यन्त तपस्वी जानकार उसने क्रोध नहीं किया अपितु उनसे विनम्र भाव से कहने लगा, "आप ने मेरे सभी जानवरों को भगा दिया, अब मैं कैसे शिकार करूँगा ?"
उस शिकारी ने कहा, "आप निश्चित रूप से रास्ता भटक गए हो, यह रास्ता जंगल की तरफ जाता है। "
मुनि ने कहा, "मुझे कुछ संदेह था उसके निवारण हेतु मैं यहाँ आया हूँ, क्या आप मेरा संदेह दूर करेंगे?"
शिकारी ने कहा, "अवश्य !, कहिये क्या संदेह है?"
मुनि ने कहा, "आप इस तरह जानवरों को अधमरा कर के क्यों छोड़ रहे हैं, इन्हे जान से क्यों नहीं मारते ?"
शिकारी ने कहा, "हमारे पिताजी ने हमे ऐसे ही सिखाया है, जितना ये जानवर कष्ट से मरेंगे उतना ही हमको आनंद मिलता है। "
मुनि ने कहा, "मैं तुमसे कुछ भिक्षा चाहता हूँ !"
शिकारी ने कहा, "आप मुझसे किसी भी जानवर की खाल ले सकते हैं, हमारे पास बहुत है।
मुनि ने कहा, "नहीं हमे खाल नहीं चाहिए, हम आपसे प्रार्थना करते हैं की आज से आप किसी भी जानवर को पूरी तरह से मारेंगे उनको अधमरा करके नहीं छोड़ेंगे "
मुनि की बातो से शिकारी को आश्चार्य हुआ, और उसने नारद जी से पूछा उसमे क्या समस्या है अगर मैं ऐसे मारता हूँ?
मुनि ने कहा, आप शिकारी हैं, आप का कार्य है शिकार करना पर किसी को अनावश्यक जानबूझकर पीड़ा देना यह तो अत्यन्त पाप कर्म है।
शिकारी ने कहा, "यह पाप क्या है?"
नारद जी ने उसे पाप और पूण्य कर्मों के बारे में समझाया। उन्होंने समझाया की जितने तुमने जानवरों को मारा है उतनी बार तुमको जन्म लेना होगा और वही जानवर तुमको मरेंगे यही प्रकृति का नियम है।
शिकारी मृगारी को यह सुनते ही उसके हाँथ-पाँव काँपने लगे और वह मुनि की चरणों में गिर गया।
मुझसे बहोत पाप हुआ है कृपया करके कोई बचने का मार्ग बताइए आप बहोत बड़े भक्त है आप ही हमे इस पाप से बचा सकते है।
नारद जी स्वाभाव से दयालु, मृगारी को उठाया और कहा यह धनुष तोड़ दो।
मृगारी को आश्चार्य हुआ , धनुष तोड़ दूंगा तो मेरा पालन-पोषण कैसे होगा ?
नारद मुनि मुस्कुराये और बोले मैं करूँगा तुम्हारा भरण पोषण।
मृगारी ने धनुष तोड़ दिया और बोला अब क्या करूँ?
नारद जी ने उसको समझाया, घर के सारे सामानों को ब्राह्मणो और गरीबो में बाँट दो और केवल एक ही वस्त्र में तुम और तुम्हारी पत्नी इस गंगा नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर, तुलसी जी की सेवा में भगवान के नामो का जप करो और मात्र उस दिन के जीविका के लिए वास्तु को ग्रहण करो इस से ही तुम्हारा कल्याण होगा।
मृगारी ने बिलकुल वैसे ही किया जैसे नारद जी ने कहा था। आस-पास के लोंगो में चर्चा होने लगी कि एक शिकारी अचानक से इतना बड़ा साधु कैसे बन गया ?
लोग उसे मिलने आते और तरह-तरह के भेट लाते पर वह मात्र अपनी जीविका के लिए केवल उस दिन की आवश्यकतानुसार ग्रहण करता और सब बाँट देता।
कुछ दिनों के बाद जब नारद मुनि, पर्वत मुनि के साथ उधर से गुजर रहे थे, उन्होंने कहा चलो मैं एक भक्त से मिलाता हूँ , नारद मुनि मृगारी के पास गए।
मुनि को देखकर मृगारी अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भागकर दण्डवत करने लगा पर उसने देखा की निचे चीटियां है वह रुक गया और धीरे-धीरे सभी चीटियों को हटाने लगा।
यह देखकर पर्वत मुनि को आश्चार्य हुआ की एक शिकारी इतना पाप करने के पश्चात एक चीटी के प्रति इतना दया भाव कैसे रख सकता है ?
मुनि ने उसे आशीर्वाद दिया और अपने लोक को चले गए।
इस कथा के माध्यम से हमे यह शिक्षा मिलती है कि हमारे आय के स्रोत से हमारा पालन-पोषण नहीं होता है। यदि ऐसा होता तो संसार में इतने जीव है क्या सभी जीव की आय है ? पर पालन-पोषण सबका होता है। हमारा पालन-पोषण भगवन द्वारा होता है, बस हमे उनमे श्रद्धा रखनी चाहिए किसी भी परिस्थिति में उनको भूलना नहीं चाहिए और गुरु की आज्ञा से हम वह हर सुख प्राप्त कर सकते हैं जिनकी तलाश में हम इधर-उधर भटकते हैं।
जय श्रील प्रभुपाद
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
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