प्रश्न १ : यदि इस संसार में इतना दुःख है तो ईश्वर ने यह सृष्टि ही क्यों करी ?
उत्तर : ईश्वर ने यह दुनिया बनायी इसके पीछे का कारण हमारी अर्थात जीवात्मा की 'भोक्ता एवं नियन्ता’ बनने की स्वार्थपूर्ण इच्छा थी। जिस प्रकार से एक छोटा बच्चा अपने पिता की नक़ल करके या उनके समान व्यवहार करके खुद को पिता के समान समझदार व बड़ा बताना चाहता है उसी प्रकार से जीवात्माएँ भी स्वयं को भोक्ता तथा नियन्ता के समान दर्शाना चाहती थीं। उनकी इन्हीं इच्छाओं को समझते हुए ईश्वर ने अपनी माया के द्वारा इस सृष्टि की रचना की । यह जगत एक मेले के सामान है जहाँ हम अपने परम पिता परमेश्वर के साथ घूमने आये हैं। जब हम यह भूल जाते हैं की यह मेला सत्य नहीं है औेर हमें अपने परम पिता के पास वापिस जाना है ,तब हम यहाँ दुःख पाते हैं। परन्तु जब हम श्रीकृष्ण अर्थात परमेश्वर से अपने वास्तविक सम्बन्ध को पुनः स्मरण कर लेते हैं तथा इस मेले की असत्यता को समझ जाते हैं तब हम मेले की सैर करके (अर्थात पूरी तरह मेले से अनासक्त रहते हुए ) ईश्वर के पास भगवद्धाम वापिस लौट जाते हैं।
हम सभी जीवात्माएँ इस सृष्टि में ईश्वर की सेवा के लिए ही अस्तित्व रखती हैं। यदि हम यह सेवा नहीं कर पाते हैं तथा स्वयं को भौतिक जगत के प्रति अपनी आसक्ति से भी मुक्त नहीं करा पाते हैं तो यही इस संसार में हमारे दुःखों का कारण बन जाता है। श्रीकृष्ण की ओर उन्मुख होना एवं उनकी महिमा को जानने का प्रयत्न करना , इसी से समस्त कष्टों एवं चिंताओं से मुक्ति संभव है।
प्रश्न २: जीवन में गुरु का क्या महत्व है ?
उत्तर : गुरु ईश्वर की ओर सही ढंग से चलने के लिए उचित मार्गदर्शन प्रदान करता है। गुरु वह व्यक्ति हो सकता है जो या तो स्वयं को भौतिक आसक्तियों से मुक्त कर चुका है अथवा निकलने के लिए दृढ़ रूप से प्रयासरत है। जो व्यक्ति स्वयं भौतिक प्रलोभनों में बुरी तरह लिप्त है व निकलने के लिए प्रयासरत भी नहीं है उसे गुरु नहीं बनाया जा सकता।
प्रश्न ३ : क्या वास्तव में माया ने हमें पकड़ रख है ?
उत्तर : माया ने हमें नहीं पकड़ रखा है वरन हमने उसे पकड़ रखा है। माया सिर्फ भौतिक संसार के विभिन्न प्रलोभनों रूप में हमें सदैव आकर्षित करती रहती है। वास्तव में तो हम ही उसकी ओर आकर्षित हुए रहते हैं।
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