Our Sampradaya

THE DISCIPLIC SUCCESSION

1. Krishna

2. Brahma

3. Narada

4. Vyasa

5. Madhva

6. Padmanabha

7. Narahari

8. Madhava

9. Akshobhya

10. Jaya Tirtha

11. Jnanasindhu

12. Dayanidhi

13. Vidyanidhi

14. Rajendra

15. Jayadharma

16. Purusottama

17. Brahmanya Tirtha

18. Vyasa Tirtha

19. Lakshmipati

20. Madhavendra Puri

21. Ishvara Puri, (Nityananda, Advaita)

22. Lord Chaitanya

23. Rupa Goswami, (Svarupa, Sanatana Goswami)

24. Raghunatha, Jiva Goswami

25. Krishnadasa

26. Narottama

27. Vishvanatha

28. Srila Jagannatha Dasa Babaji Maharaja,(Srila Baladeva Vidyabhushana)

29. Srila Bhaktivinoda Thakura

30. Srila Gaurakishora Dasa Babaji Maharaja

31. Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura

32. AC Bhaktivedanta Swami Prabhupada

The correct process of receiving knowledge in any field is approaching a bona fide institute. Similarly, transcendental knowledge should be received through a bona fide disciplic succession

In Bhagavad-gita 4.2.Lord Krishna says:

evam parampara-praptam

imam rajarsayo viduh

sa kaleneha mahata

yogo nastah parantapa

Translation: “This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost”

There are four sampradayas or authorities on the science of bhakti.

Sri Krishna Chaitanya is like a desire tree, and in the form of Narayana, He is the original guru of the four sampradayas. Sri is the beloved of Narayana. She is His disciple as well. Her wonderful activities are elaborately described in all the Sastras. Sri is another name of Lakshmi. Her disciplic succession called the Sri sampradya has unlimited branches and sub-branches. After Ramanuja became the acarya in this sampradaya it took the name Ramanuja-sampradaya. Ramanujacharya earlier known as Laksmanacharya is the author of the Ramanuja-bhashya.

Lord Brahma is the leading disciple of the supreme Lord Narayana. His sampradaya is known as Brahma sampradaya with disciples all over the world. In this sampradaya, Sri Madhva significantly contributed by writing a commentary on the Brahma-sutras. After this the sampradaya became known as the Madhva-sampradaya.

The supreme Lord Narayana also has Lord Rudra as His disciple. Vishnusvami was a leading disciple in the Rudra Sampradaya. Vishnusvami was very influential and a learned scholar of all the scriptures. After him this disciplic succession came to be known as the Vishnusvami-sampradaya.

From the supreme Lord Narayana appeared the Hansa-avatara. In this disciplic succession came the four Kumaras headed by Sanaka Kumara. In this line Nimbaditya was a leading disciple. The name Nimbaditya sampradaya was thus established.This is known also as Nimbarka-sampradaya. The influence of Nimbarka sampradaya spread all over the world.

The Sri, Brahma, Rudra, and Kumara sampradayas spread their influence by dividing into other sampradayas. In the Ramanuja-sampradaya, Sri Ramanandacharya was highly respected. He had many disciples and grand-disciples. Similarly Sri Vallabhacharya appeared in the Vishnusvami-sampradaya. He wrote a commentary named Anubhasya, which is highly respected. His disciplic succession is known as the Vallabha-sampradaya.

Iskcon Founder-Acarya His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada comes in the brahma-madhva-gaudiya disciplic succession (see table on the right)
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Comments

  • संक्षेपत में श्री संप्रदाय दर्शनका संकेत किया जा रहा है। विशिष्टाद्वैत सिद्धान्तमें प्रकृति, जीव और ब्रह्म - ये तीन तत्त्व हैं। जीव चित् अर्थात् चेतन तत्त्व है उसीको जीवात्मा, प्रत्यगात्मा आदि नामोंसे जाना जाता है। वह नित्य, निरञ्जन और बहुत है। वह भगवान्‌का दास है। प्रकृति ही अचित् है। ये दोनों ही जगदीशके विशेषण तथा शरीर हैं और जगदीश हैं इन दोनोंके शरीरी। “जगत् सर्वं शरीरं ते- वा. रा. ६-११७-२७” (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपका शरीर है), “यस्य आत्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति (श. प. ब्रा. १४/६/६/५/३० ) ” आदि इस तथ्यमें प्रमाण हैं। इस प्रकार शरीरशरीरी भावसे जीव और माया दोनों ही परमात्माके विशेषण हैं । भगवान्का जीवसे अविनाभाव सम्बन्ध है। इस दर्शनमें प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द- ये तीन प्रमाण हैं। ब्रह्म प्रमेय और जीव प्रमाता है। प्रपत्ति ही हमारा योग है, विशिष्टाद्वैत ही हमारा वाद है, षडक्षर राममन्त्र एवं द्वादशाक्षर सीताराममन्त्र इसमें ज्ञेय हैं। श्रीसीताराम ही ध्येय हैं। जीवात्मा अणु और बहुत हैं। हमारे यहाँ सत्कार्यवाद तथा (अविकृत) परिणामवाद भी स्वीकृत है। क्योंकि ब्रह्मसूत्रकारने 'परिणामात् (वे. द. १.४.२७)' माना है। परिणाम भगवान्‌के शरीरभूत प्रकृतिमें होता है। जीवात्मा, परमात्मा तथा उनका सम्बन्ध हमारे लिए ज्ञेय है। ये तीनों ही नित्य हैं। इन्हीं में अर्थपञ्चक (स्वस्वरूप, परस्वरूप, उपायस्वरूप, फलस्वरूप तथा विरोधिस्वरूप ये पाँच ज्ञातव्य विषय) गतार्थ होता है। (छा. उप.) जैसा कि ऊपर कहा गया है कि श्रीसीताराम ही हमारे ध्येय हैं। यहाँ श्रीसीताजी व श्रीरामजी अपृथक् हैं। वस्तुतः वही परमात्मा हमारा बन्धु है, हमें उत्पन्न करता है, हमारा विधाता है- “स नो बन्धुर्जनिता स विधाता (यजु. - ३२।१०) ” । अथर्ववेदमें भी यही कहा गया है—“स नः पिता जनिता स उत बन्धुः - ( २।१।३)” अर्थात् वह हमारा पिता है, जनिता है तथा वह बन्धु है। और ऋग्वेद कहती है- “ त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूवविथ ।... ( ८/९८।११)” । भावार्थ यह कि हे सबको बसानेवाले तथा सैंकड़ों यज्ञ करनेवाले ! तू ही हमारा पिता और माता है।... अर्थात् राम स्वरूपसे पिता और सीता रूपसे माता हैं। अथर्व श्रुति तो स्पष्ट ही दोनोंका अभेद स्वीकारती है यथा- “ रामः सीता जानकी रामचन्द्रो नित्याखण्डो ये च पश्यन्ति धीराः। (अथर्व. श्रुति ) ” अर्थात् श्रीराम ही श्रीसीता हैं तथा श्रीसीता ही श्रीराम हैं, दोनोंमें कोई भेद नहीं। श्रीरामजी श्रीसीताजीसे कभी पृथक् हो ही नहीं सकते। भगवान् श्रीरामजी सच्चिदानन्द हैं तथा श्रीसीताजी संविदानन्द। दोनों ही परस्पर अभिन्न है। “सूर्यमण्डल मध्यस्थं रामं सीतासमन्वितम्” (श्रीरामस्तवराज स्तोत्रम् ॥५०॥) में श्रीरामको निरंतर जगज्जननी जनकनंदिनी माँ श्रीसीता समन्वित कहा गया है। इसी तथ्यके समर्थनमें सदाशिव संहिताका यह श्लोक भी द्रष्टव्य है- “रामस्सीता जानकी रामचन्द्रः नाणुर्भेदो ह्येतयोरिति कश्चित् । संतो मत्वा तत्त्वमेतद्धि बुद्धवा पारं जाताः संसृतेर्मृत्युकालात् ॥” एक शुक्लतेजोऽवच्छिन्न ब्रह्म हैं और एक श्यामतेजोऽवच्छिन्न ब्रह्म है। इसीलिए श्रीसीताजीको भी विशिष्ट तत्त्व परब्रह्म तत्त्व ही माना जाता है।

    बृहद्विष्णुपुराणमें भी इसका प्रमाण है। यथा— द्वौ च नित्यं द्विधारूपं तत्त्वतो नित्यमेकता। राममन्त्रे स्थिता सीता सीतामन्त्रे रघूत्तमः ॥”

    अथवा “ श्रीसीतारामनाम्नस्तु सदैक्यं नास्ति संशयः । इति ज्ञात्वा जपेद्यस्तु स धन्यो भाविनां नरः ॥” (ब्रह्म रामायण)

    इस दर्शनमें जीवात्मा और परमात्माके बीच स्वरूपसे भेद और सम्बन्धसे अभेद स्वीकारा गया है-

    द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ मु. तृतीय मुण्डक | १|१ ॥ इस मन्त्रमें जीव और ब्रह्मका स्वरूपगतभेद बहुत स्पष्ट रूपसे सिद्ध हुआ है और दोनोंमें परस्पर साधर्म्य और वैधर्म्यकी चर्चा की गई है। दोनोंकी मित्रता, शरीरमें साथ रहना, सुपर्णत्व— ये सब साधर्म्य है । किन्तु अन्तर यह है कि जीव बहुत है और परमात्मा एक; जीव अणु है और परमात्मा व्यापक; जीव अल्पज्ञ है और परमात्मा सर्वज्ञ; जीव सदोष है और परमात्मा निर्दोष; जीव समल है और परमात्मा निर्मल; जीव ससीम है और परमात्मा असीम; जीव अल्प है और परमात्मा भूमा; जीव संसारी है और परमात्मा असंसारी; जीव इन्द्रिय सापेक्ष है और परमात्मा इन्द्रिय निरपेक्ष; जीव मोह-विवश है और परमात्मा मोहातीत; जीव पराधीन है और परमात्मा स्वाधीन; जीव मायापतित है और परमात्मा मायापति। जहाँ-जहाँ जीव और ब्रह्ममें अभेदकी प्रतीति हो रही हो वहाँ-वहाँ शरीरशरीरिभाव सम्बन्धसे अभेद समझ लेना चाहिए, स्वरूपसे कभी नहीं।

    विशिष्टाद्वैत सिद्धान्तमें कार्यकारणभेदसे ब्रह्म दो प्रकार का है। कारणरूपसे परब्रह्म परमात्मा श्रीसीताराम साकेतमें विराजते हैं (तथा सबके व्यापक और सबसे परे हैं)। वहाँ भी शुद्ध चित् अचित् दोनों भगवान्‌के विशेषण हैं, और कार्यरूपमें जब परमात्मा संसारमें प्रवेश करते हैं (अन्तर्यामी रूपसे सबके साथ हैं) तब उन्हें कार्य-ब्रह्म कहा जाता है। वहाँ भी वह चित्-अचित् विशिष्ट हैं। इस प्रकार दोनों ही विशिष्ट कार्यकारण ब्रह्मोंका अद्वित होनेके कारण ब्रह्म विशिष्टाद्वैत हैं। अतः विशिष्टाद्वैतका निर्वचन करते हुए आचार्य कहते हैं— “विशिष्टं च विशिष्टं च विशिष्टे तयोरद्वैतं विशिष्टाद्वैतं तद् वदति व्यवस्थापयति इति विशिष्टाद्वैतवादः।” ब्रह्मके साथ जीवका तीन ही सम्बन्ध वेदमन्त्रोंमें प्रतिपादित है— पिता-पुत्र, स्वामी - सेवक, और सखा। 'अमृतस्य ते पुत्राः' तो बहुत प्रसिद्ध श्रुति है । ब्रह्मसूक्तकी श्रुति भी प्रसिद्ध है— 'ब्रह्मदाशा ब्रह्म दासाब्रह्म मे कितवः । अरंदासोनमीढुषे कराष्यहं देवाय भूर्णयेऽनागाः । (ऋ.वे. ७ । ८६ । ७), द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया...' (ऋ.वे. १/१६४ / २०), 'मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ' (ऋ. वे. १/१०१/५), 'मरिष्यते त्वातः सखा ।' (ऋ. वे. १/९१६/८ ) । जीवात्मा अणु, ईश्वराधीन तथा सीमित ज्ञानगुण सम्पन्न होनेसे सदैव ही अपनेको सेवक और परमात्माको सेव्य ही मानता है और उचित भी यही है-

    आत्मदास्यं हरेः स्वाम्यं स्वभावं च सदा स्मर । (हारित स्मृति)

    सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि । (मा. ७/ ११९)

    बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज संघाती ॥ (मा.१/२०/४)

    सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥ (मा. १ | २१७/४)

    पर (सगुण ब्रह्म) और अपर (निर्गुण ब्रह्म) भेदसे भी ब्रह्म दो प्रकारका है। प्रश्न उठता है कि परको निर्गुण तथा अपरको सगुण क्यों नहीं कहा जाता? क्योंकि 'अणोरणीयान् महतो महीयान् । महामायापतिको दोषोंसे भरी हुई बिचारी माया कैसे ढँक सकती है? इसलिए सम्पूर्ण कल्याण गुण- गणोंका निलय होनेके कारण सगुण ब्रह्म 'पर' है क्योंकि वह साधकोंको बहुत सुलभ है। निर्गुण ब्रह्म अपने गुणोंको छिपानेके कारण बहुत ही दुर्लभ एवं दुराराध्य हैं। इसीलिए श्रुतिने निर्गुण ब्रह्मको अपर कहा । गीता (१०।१२ ) में सगुण ब्रह्म श्रीकृष्णके प्रति अर्जुनद्वारा परब्रह्म शब्दका उच्चारण ही परम प्रमाण है— “परब्रह्म परमधाम पवित्रं परमं भवान् ॥”

    एक बात और भी स्पष्ट होनी चाहिए और वह यह कि श्रीरामानन्द- सम्प्रदायकी मान्यतामें श्रीहनुमान्जी श्रीराम-मन्त्र परम्पराके तृतीय आचार्य (सर्वप्रथम श्रीराघवेन्द्र सरकारने श्रीराम-मन्त्र सीताजीको दिया था और श्रीसीताजीने हनुमान्जीको ।) हैं।

    नारद भक्तिसूत्र श्रीहनुमान्जीको भक्तिका आचार्य मानता है— “इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भया एकमताः कुमारव्यासशुकशाण्डिल्यगर्गविष्णुकौण्डिन्यशेषोद्धवारुणिबलिहनुमद्विभीषणादयो भक्त्याचार्यः ॥ ८३ ॥”

    महाशिवसंहिताके अनुसार भी- आचार्यं हनूमन्तं त्यक्त्वा ह्यन्यमुपासते । क्लिश्यन्ति चैव ते मुग्धा मूलहाः पल्लवाश्रिताः ॥ हनुमत्परमाचार्यं विनाऽऽचार्यो न कोऽपि च । इति पद्धतिनिर्णीतं पूर्वोक्तं च मयोदितम् ॥

    अतः हनुमान्जीकी उपासना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। और भी, इस सम्प्रदायके अनुसार श्रीरामजीका प्रसाद ही श्रीहनुमान्जी ग्रहण करते हैं, अतः श्रीरामजीको अर्पित की गयी वस्तु ही श्रीहनुमान्जीकी पूजामें प्रयुक्त होती है- श्रीरामस्य प्रसादो हि भुङ्क्ते श्रीमारुतात्मजः । अतः कपीशपूजायां हरेरर्पितमर्पयेत् ॥ इस सम्प्रदायानुसार श्रीहनुमान्जीका जन्म नहीं होता, वे तो भगवान् श्रीरामजीके नित्य मुक्त-परिकर है.

    नित्यकादाचित्कभेदान्मुक्तद्वैविध्यमुच्यते । नित्याः कदाचित्तत्रापि सिद्धाः सुपुरुषा वराः ॥ गर्भजन्मादिदुःखं येऽननुभूय स्थिताः सदा । सीतारामप्रियाः शश्वत्ते हनूमन्मुखा मताः ॥ (श्रीवैष्णवमताब्जभास्करः १४०-१४१)

    अर्थात्, नित्य एवं कादाचित्क भेदसे मुक्त (जीव) दो प्रकारके होते हैं। उनमें (नित्य एवं कादाचित्कमें) जो कभी भी गर्भवास, जन्मादिके दुःखको बिना अनुभव किये श्रीसीतारामजीके सदा प्रिय हनुमान् आदि सिद्ध, श्रेष्ठ, सुपुरुषके रूपमें सदा विराजमान रहते हैं वे नित्य मुक्त कहे जाते हैं।

    ब्रह्मको जानकर जीवात्मामें भी ब्रह्मके बहुतसे गुण आ जाते हैं। क्योंकि समान व्यक्ति अपने प्रतियोगीसे भिन्न होता ही है। अभेदमें कभी सादृश्य नहीं होता। जैसे— चन्द्र जैसा मुख । इस वाक्यमें मुख और चन्द्र दोनों अलग-अलग हैं। केवल चन्द्रमाका आह्लादकत्व मुखमें आ गया है। उसी प्रकार मुक्त जीवात्मामें परमात्माके केवल आठ गुण आविर्भूत हो जाते हैं। वे इस प्रकार हैं— अपहतपाप्मत्व, विजरत्व, विमृतित्व, विशोकत्व, अविजिघसत्व, अपिपासत्व, सत्यकामत्व, तथा सत्यसंकल्पत्व। अर्थात् ब्रह्मवेत्ता भी मुक्तावस्थामें ईश्वरकी ही भाँति पापरहित, वृद्धावस्थारहित. मरणरहित, शोकरहित, बुभुक्षारहित पिपासा रहित, सत्यकाम और सत्यसंकल्प हो जाता है। परन्तु जीवात्मा कभी भी परमात्माका श्रीवत्सलाञ्छन नहीं प्राप्त कर सकता। वह तो भगवान्‌का असाधारण धर्म है। जीवात्मामें जीव एवं प्रकृतिके सृजन, पालन तथा संहारकी सामर्थ्य नहीं होती।

    यह कम शब्दों में श्री संप्रदाय का सिद्धांत था।

    और यदि संपूर्ण रूप से श्री संप्रदाय का सिद्धांत जानना है तो सीताराम सीताराम सीताराम जपिए।

    अवध दुलारे अवध दुलारी सरकार की जय

    आनंद भाष्यकार श्रीमद जगद्गुरु रामानंदाचार्य भगवान की जय 🚩
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