मूल:
का ते कान्ता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कुत आयातः, तत्त्वं चिन्तयं यदिदं भ्रातः॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, भज गोविन्दं मूढ़मते।
हिन्दी:
कान्ता तेरी कौन, कौन सुत? यह अपार संसार महा-अद्भूत,
किसका, कौन, कहाँ से आया? चिन्तन कर तू बन्धु, ध्यान्युत॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
भाई, तुम्हारी पत्नी कौन है? तुम्हारा पुत्र कहाँ से आया? कौन किसका है? तुम स्वयं कौन हो? ये सब बातें अति विचित्र हैं व्यर्थ चिन्ताओं में समय नष्ट न करके इन बातों पर भी जरा विचार करो।
इस श्लोक में श्री शंकराचार्य कुछ मूल प्रश्नों को हमारे सामने रख रहे हैं जिससे हम भी कुछ सोचने को मजबूर हों। प्रश्न बड़े सीधे हैं, और हम समय के लिए समकालीन भी - हमारी प्रेयसी, पत्नी का हमारे साथ कहाँ तक सम्बन्ध रहता है? हमारा पुत्र, जिसपर हमें बहुत प्यार आता है, वह है कौन...कहाँ से हमारे जीवन में आ जाता है? हम स्वयं कौन हैं, किसके हैं, कहाँ से इस धरा पर आए हैं? इसके पहले कहाँ थे? स्वयंभू तो हम हैं नहीं? तब फ़िर जिसके साथ हम जीते हैं, जिनपर हम आसक्त हो जाते हैं...उनके साथ हमारा बन्धन किस प्रकार का है? यही सब यक्ष-प्रश्न है जो विचारणीय है। व्यर्थ की आसक्ति एवं चिन्ता हमें छोड़नी चाहिए। मोह के छुटने पर हीं चित्त को शान्ति मिलेगी। क्षणभंगुर शरीर और शाश्वत आत्मा को एक नहीं मानना चाहिए। शरीर और शरीरी का भेद समझना चाहिए। माया के वश में हम न हों क्योंकि तब केवल दुःख-ही-दुःख है।
शी शंकर इन्हीं सब बातों से हमें सावधान कर रहे हैं। अपने "आत्मषट्क" या "निर्वाण-सुक्त" में शंकर इसी बात को अलग तरीके से और थोड़े दार्शनिक अंदाज में कहते हैं, जिसका अंतिम सुक्त कुछ इस प्रकार है -
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो, विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय, चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥
श्री शंकराचार्य इसीलिए कहते हैं - "संसारोऽयमतीव विचित्रः" - यह संसार अत्यन्त विचित्र है, नानारूपी है, सुन्दर प्रतीत होनेवाला है, अतीव आकर्षक है, इसके तत्त्व को समझना सरल नहीं। पर ऐसा भी नहीं हैं कि यह काम कठिन है। इसको समझा जा सकता है...भगवान के भजन के द्वारा... भज गोविन्दं भज गोविन्दं, भज गोविन्दं मूढ़मते...
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥
Comments
There are so many 'vaads" and you can't say that this one is better than the that one.....so plz accept. Shankaracharya is too too big in stature than we all mortals. Thats why I have quoted him here.
This is Impersonal - Maayavadi
" अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो, विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय, चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥ "