भगवत्कृपा के बिना कभी सुखी नहीं बन सकते --  प्रस्तुति ललित माधव दास

बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौ; ।

तप्तस्य तत्प्रिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्तावद् विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम्।।
(श्रीमद् भागवतम 7.9.19)
प्रहलाद महाराज ने प्रार्थना की-´हे नृसिंहदेव, हे परमेश्वर¡ देहात्मबुद्धि के कारण आपके द्वारा उपेक्षित देहधारी जीव अपने कल्याण के लिए कुछ भी नहीं कर पाते। वे जो भी उपचार करते हैं, उनसे यद्यपि क्षणिक लाभ पहुंचता है, किन्तु वे स्थायी नहीं रह पाते। उदाहरणार्थ, माता तथा पिता अपने बालक की रक्षा नहीं कर पाते, वैद्य तथ दवा रोगी का कष्ट दूर नहीं कर पाते तथा समुद्र में डूबते हुए मनुष्य को नाव नहीं बचा पाती।´
श्रील प्रभुपाद के तात्पर्य से-
माता तथा पिता की देख-रेख से, विभिन्न रोगों की दवा से तथा जल और वायु में सुरक्षा के साधनों से भौतिक जगत के विभिन्न कष्टों से छुटकारा पाने का प्रयास किया जाता है, किन्तु इनमें से किसी एक के भी द्वारा सुरक्षा निश्चित नहीं है । मनुष्य को भले ही क्षणिक लाभ मिल जाए, किन्तु इसमें स्थायी लाभ नहीं पहुंचता । माता-पिता के रहते हुए बच्चों की असामयिक मृत्यु, रोग तथा अन्य कष्टों से बचाया नहीं जा सकता। कोई भी, यहाँ तक कि माँ-बाप भी, उसकी सहायता नहीं कर सकते। अन्ततोगत्वा भगवान ही शरण बनते हैं और जो कोई उनकी शरण ग्रहण करता है उसकी रक्षा होती है। यह ध्रुव सत्य है। जैसा कि भगवान ने स्वयं भगवद् गीता (9.31) में कहा है- कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त; प्रणश्यति‑ हे कुन्तीपुत्र¡ तुम निर्भय होकर यह घोषित कर दो कि भगवान का भक्त कभी मरता नहीं। अतएव जब तक कोई भगवान की कृपा द्वारा रक्षित न हो तब तक कोई प्रचार सफल नहीं होता। फलस्वरूप मनुष्य को भगवत्कृपा पर पूरी तरह निर्भर रहना चाहिए। यद्यपि नैत्यिक कर्म के रूप में अन्य उपचार विधियों को स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान द्वारा उपेक्षित है उसकी रक्षा कोई नहीं कर पाता। इस भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति का सामना करता है, किन्तु अन्ततोगत्वा वह प्रकृति के वशीभूत हो जाता है। अतएव यद्यपि तथाकथित दार्शनिक तथा विज्ञानीभी प्रकृति के प्रहार पर विजय पाना चाहते हैं, किन्तु वे भी ऐसा नहीं कर पाते। भगवान कृष्ण भगवद् गीता (13.9) में कहते हैं कि संसार के असली दुःख चार हैं –जन्ममृतयुजराव्याधि– अर्थात् जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग। विश्व के इतिहास में कभी कोई प्रकृति के द्वारा आरोपित इन दुखों पर विजय नहीं पा सका। प्रकृते; क्रियमाणानि गुणे; कर्माणि सर्वश;। प्रकृति इतनी प्रबल है कि कोई भी उसके कठोर नियमों पर विजय नहीं पा सका। अतएव तथाकथित विज्ञानियों, दार्शनिकों, धर्मज्ञों तथा राजनीतिज्ञों को यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि वे जनता को सुविधाएँ प्रदान नहीं कर सकते। उन्हें जनता को जाग्रत बनाने के लिए जोरदार प्रचार करना चाहिए और उन्हें कृष्णभावनामृत स्तर तक उठाना चाहिए। हमारे द्वारा विश्व भर में कृष्णभावनामृत को प्रसारित करने का जो विनम्र प्रयास किया जा रहा है वह  शान्तिमय एवं सुखी जीवन लाने की एक मात्र औषधि है। हम भगवत्कृपा के बिना कभी सुखी नहीं बन सकते (त्वद् उपेक्षितानाम्)। यदि हम अपने परम पिता को अप्रसन्न करते रहे तो न तो हम भौतिक जगत में, न स्वर्गलोक में, न ही अधोलोक में कभी भी सुखी बन सकते हैं।
 

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