हरे कृष्ण !
त्वया उप्भुक्त सक्र गंध वास: अलंकार चर्चिता ।
उच्छिष्ट भोजिन: दासा: तव मायाम जयेम हि ॥
श्री उद्धव ने कहा –
“ हे भगवन् ! आपके द्वारा भोगी गई मालाओं, सुगंधित तेलों, वस्त्रों तथा गहनों से अपने को सजाकर तथा आपकी जूठन खाने वाले हम आपके दास निश्चय ही आपकी माया को जीत सकेंगे ।“
यदि आपकी माया हम पर आक्रमण करे भी तो हे प्रभु ! हम उसे अपने शक्तिशाली हथियारों से आसानी से जीत लेंगे । ये हथियार हैं आपका जूठन, वस्त्र, गहने आदि । दूसरे शब्दों में, हम कृष्ण – प्रसादम से माया के उपर आसानी से विजय पा लेंगे – व्यर्थ के चिंतन तथा मनोरथ से नहीं ।
( श्रीमद्भागवतम ११/६/४६ )
सात्विक, राजसिक और तामसिक पुराण – विभाग
हे शुभदर्शन ! पुराण अठारह हैँ, मनीषिगण ने इस प्रकार उनके विभाग कहे हैँ :-
सात्विक् पुराण | राजसिक पुराण | तामसिक पुराण |
विष्णु पुराण | ब्रह्मवैवर्त पुराण | मत्स्य पुराण |
नारदीय पुराण | मार्कंडेय पुराण | कूर्म पुराण |
भागवत पुराण *** | भविष्य पुराण | लिंग पुराण |
गरूड़ पुराण | ब्रह्माण्ड पुराण | शिव पुराण |
पद्म पुराण | वामन पुराण | स्कंद पुराण |
वराह पुराण | ब्रह्म पुराण | अग्नि पुराण |
(ब्रह्मवैवर्त पुराण)
साधु – शास्त्र – कृपाय यदि कृष्णोन्मुख हय । सेइ जीव निस्तारे, माया ताहारे छाड़य ॥
साधु और शास्त्र की कृपा से यदि कोई जीव कृष्णोन्मुख होता है, तो माया उसको छोड़ देती है और तब वह जीव भव-सागर को अनायास ही पार कर जाता है ।
(चै. च. म. २०/१२०)
मुक्ता अपि लीलया निग्रहम कृत्वा भगवंतम भजंते ।
मुक्त पुरुषगण भी अपनी इच्छा से (अर्थात कर्म जनित नहीं) शरीर ग्रहण करके भगवान का भजन करते हैं। ( श्रीमद्भागवतम १०/८७/२१ )
कायमनोवाक्य के साथ पूर्ण समर्पित भाव से गुरु के पास जाएं ।
मूकं करोति वाचालम् पंगु लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वंदे परमानन्दमाधवम् ॥
जिसकी कृपा गूंगे को वाचाल एवं पंगु को पर्वत – लंघन करा सकती है, उसी परमानंद स्वरुप माधव की मैं वन्दना करता हूँ।
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां ह्र्दये न च ।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥
पद्मपुराणान्तर्गत कार्तिक माहात्म्य मेँ श्रीभगवान के वचन हैँ –
हे नारद ! मैँ वैकुण्ठ मेँ अथवा योगियों के ह्र्दय मेँ वास नहीं करता हूँ ( कभी वास करता हूँ कभी वहाँ से चला भी जाता हूँ ) किन्तु जहाँ मेरे भक्त मेरे नाम – गुण – लीला का गान करते हैँ, वहाँ मैँ बैठा ही रहता हूँ – निरन्तर वहाँ वास करता हूँ ।
प्रथमन्तु गुरुम् पूज्यम् ततश्चैव ममार्च्चनम् ।
कुर्वन् सिद्धिमवाप्नोति ह्यन्यथा निष्फलम् भवेत् ॥
सर्वप्रथम अपने श्रीगुरुदेव की पूजा करो, तदन्तर मेरा अर्चन करो| इस पद्ध्ति को अपनाने पर सहज ही सिद्धि प्राप्त कर सकोगे। इसके विपरीत करने पर तुम्हारा सब कुछ निष्फल हो जायेगा।
(हरि भक्ति विलास)
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