मूल:
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीरक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः, पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, भज गोविन्दं मूढ़मते।
हिन्दी:
खेल-कूद में बीता बचपन, रमणी-राग-रंग-रत यौवन।
शेष समय चिन्ता में डूबा, किससे हो कब ब्रह्माराधन॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
बचपन खेल में बीत जाता है। युवास्था में मन विकारों में लीन रहता है। युवतियों के सिवाय और किसी विषय में चित्त नहीं लगता। बुढ़ापे में अपनी स्त्री और बच्चों की ही फ़िक्र लगी रहती है। सारी जिन्दगी इसी प्रकार बीती चली जाती है। ईश्वर को हम किसी भी अवस्था में याद नहीं करते। बाल्यकाल, युवावस्था और वार्धक्य - तीनों अवस्थाओं में मनुष्य क्रमशः खेल-कूद, कामोपभोग और चिन्ताओं में समय बिता देता है, ज्ञान की दिशा में बढ़ने का कभी प्रयास हीं नहीं करता।
यह जानते हुए भी कि इन चीजों में शाश्वत शान्ति नहीं मिलती, सब मोह-माया का बन्धन है - कोई सच्ची चीज को पहचानने का प्रयत्न हीं नहीं करता है। हमारे समाज में यह कहा जाता है कि भगवान-ध्यान पूजा-पाठ सब बुढ़ापे में आराम से किया जाएगा। हाँलाकि हम सब अपने आस-पास ऐसे लोगों के बरे में जानते-सुनते रहते हैं जिन्हें अपना शरीर बुढ़ापे से बहुत पहले हीं छोड़ना पड़ा। तब फ़िर हमारी क्या गारंटी है कि हम स्वयं के बुढ़े होने तक इसी मनुष्य शरीर के साथ रहेंगे? अब यह सोच आलस नहीं तो और क्या है? आलस और निद्रा को तो गीता में तमोगुण की पहचान बताया गया है। फ़िर सब देखते-सुनते हम क्यों तमोगुणी बनना पसन्द करते है? क्या यह मूर्खता की पराकाष्ठा नहीं है?
एक और बात, जब हम शारीरिक स्वस्थता के चरम पर होते हैं, जीवनी शक्ति अपने चरम पर होती है, तब अगर हम ईश-सेवा से मुँह चुराते है, आलस करते हैं तब क्या हमारे वार्धक्य में जब अहमारी जीवनी शक्ति क्षीण पड़ने लगेगी हम ज्यादा सजग, ज्यादा सचेत हो जाएँगे...क्या हमसे तब ईश-सेवा हो सकेगा क्या? इससे भी महत्वपूर्ण बात - क्या उस जीर्ण-शीर्ण शरीर से की गई आधे-अधूरी सेवा क्या परम-पुरूष, परम-श्रेष्ठ स्वीकार करेगा? अतः हम सब को चाहिए कि जितने जल्दी हो सके हम चेते...क्या पता बाद में समय मिले ना मिले....
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥
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