इस छ्ठे श्लोक को श्री शंकराचार्य ने तब कहा जब उस व्यक्ति ने उनसे पूछा, "अच्छा स्वजनों के बारे में आप शायद ठीक कह रहे हों। पर मेरी पत्नी मुझपर जो प्रेम प्रदर्शित करती है, वह कभी झूठा नहीं हो सकता} शरीरों के पृथक होने पर भी हम-दोनों एक हीं प्राणी के समान हैं। वह मेरे शरीर के छोटे-से-छोटे अंग को भी अपना हीं समझती है। ऐसी मेरी पत्नी जब मेरे पास बैठी है, तब क्या मेरे इस जीवन में कोई सार नहीं है?" श्री शंकर ने तब उत्तर दिया:
मूल:
यावत् पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायो देहापाये, भार्या विभ्यति तस्मिद् काये॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, भज गोविन्दं मूढ़मते।
हिन्दी:
जब तब् श्वास शेष है तन में, पूछी जाती कुशल भवन में।
यह शरीर निष्प्राण निरख कर, भय खाती भार्या मन में॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
अर्थात, जब तक तुम्हारे शरीर में प्राण है तभी तक तुम्हारी प्यारी पत्नी तुमसे प्रेम करेगी। किन्तु तुम्हारे निर्जीव शरीर को देख कर वही पत्नी डरकर दूर भागेगी। जिस जीवित शरीर का पत्नी ने आलिंगन किया, उसे पुचकारा और अपना ही समझा, श्वास बन्द होने पर उसी को भूत-प्रेत समझ लिया जाएगा। पत्नी और बाकी सब लोग भी उससे डरेंगे और उसको जल्दी-से-जल्दी नष्ट करने में लग जाएँगे। तुम्हारे जीते-जी उसने कई बार पूछा होगा - "अब दर्द कैसा है?... सोए कि नहीं?...पाँव दबा दूँ क्या?..." पर यदि मृत शरीर एकाएक हिलने लगे तो वही पत्नी चीखती हुई भाग जाएगी।
शारीरिक मोह की यही गति है। इसलिए आलिप्त हो कर अपना जीवन बिताना चाहिए। प्रत्येक वस्तु को परखना चाहिए और फ़िर जो भी करना उचित लगे वही करना चाहिए। झूठ को सच समझ कर क्लेश को नहीं प्राप्त होना चाहिए। जब तक शरीर में प्राण है तभी तक पत्नी, सन्तान, परिवार आदि का शरीर के साथ सम्बन्ध है, बाद में कुछ नहीं। हम सब सिर्फ़ शरीर नहीं है, और इस लिए वैसे सम्बन्धों जिसमें शरीर की महत्ता दिखे उन सब से थोड़ा सोच-विचार के बाद हीं झुड़ाव रखना चाहिए। हमारे सच्चे सम्बन्धी तो श्रीहरि हैं। उनसे हमारा नाता शाश्वत है, हमारे इस शरीर के जन्म से पहले से है और इस शरीर के अन्त के बाद भी रहने वाला है। इस सच को हम सब को समझना चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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