आस्तिक आचरण
(Compiled from notes on lectures of H. H. Mahavishnu Goswami)
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Translated: Bhaktin Benu
निम्नलिखत उद्धरण राजकोट से हमारे गुरूदेव के द्वारा २९/१०/२००९ को दिये गये दीक्षा व्याख्यान से लिया गया है जिसमें महाराज हमें अपने जीवन में आस्तिक आचरण अपनाने के महत्व के बारे में बोल रहे हैं।
हम अभी तक दिव्य तरंगों का उद्देश्य नही समझे हैं। बार बार ये साबित हो चुका है कि इनका अस्तित्व है। सिर्फ यही है जो कार्यान्शील है और कुछ नहीं।
मनुष्य होने के नाते हम उत्कृष्ट बुद्धि रखते हैं। हम इस सबके के बारे में सोच सकते हैं। मान लो कि हम बीमार हैं तो हमें अस्पताल जाना पड़ेगा। पहले अस्पताल होते ही नहीं थे। और उनका होना बहुत सामान्य न था। हमनें देखा है कि पहले का समाज चिकित्सक मुक्त था। वे आवारा बिल्लियों की तरह थे। चिकित्सक हमारे समाज का हिस्सा नहीं थे। करीब ७० सालों में सारी सड़कें अस्पतालों से भर गई हैं। अब यहाँ अनगिनित अस्पताल हैं। यह समाज की आस्तिकता से नास्तिकता की ओर अधोगति को दर्शाता हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल आस्तिक बनकर हम अपने आप को ऊपर उठा सकते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् हमारी न्युनतम सेवा को भी स्वीकार करते हैं। जैसे ही हमारा झुकाव उनकी तरफ बढ़ता है, भगवान् भी हमारी ओर चलें आतें हैं। और यह हमें पता ही नहीं चल पाता है। अस्पताल में जाते ही चिकित्सक अधिक धन कमाने की लालसा में आपको गहन चिकित्सा विभाग (ICU) में भर्ती कर देते हैं। यमराज कहेंगे ICU ( I SEE YOU ) - मैं तुम्हे देखता हूँ। अगर यमराज को आना है तो वो कहीं भी आ सकते हैं। उसके लिए हमें गहन चिकित्सा विभाग (ICU) जाकर भूगतान करने व उनसे बात करने की क्या आवश्यकता हैं। विड़म्बना तो यह है कि चिकित्सक ही कुछ नहीं जानते हैं। उनका इलाज़ खून की जांच पर आधारित होता है।
सिडनी में एक चिकित्सक से मैंने पूछा कि खून की जांच कितने दिन तक मान्य रहती है।
उन्होंने कहा,"एक दिन तक मान्य रहती है। "
मैंने उनसे फिर पूछा, "क्या आप पूरे विश्वास से यह कह सकते हैं। "
चिकित्सक ने कहा, "नहीं नहीं, आधे दिन तक यह मान्य है। "
मैंने दोबारा पूछा, "क्या आप अभी भी विश्वास से यह कह रहे हैं। "
इस बार उन्होंने निशंका से कहा, "नहीं नहीं, यह केवल कुछ मिनट के लिए ही मान्य है। "
इस संसार में सब कुछ बदल रहा है। एक ही चीज़ बदलाव रहित है और वह खुद बदलाव है जो कभी नहीं बदलता। प्रत्येक क्षण प्रत्येक चीज़ बदल रही है। यदि इतना सब बदल रहा है तो हम खून की जांच की रिपोर्ट पर निर्भर कैसे रह सकते हैं। और यदि उनका इलाज़ इस रिपोर्ट पर आधारित होता है तो वह अवश्य ही गलत होगा। हर पल उन्हें अपनी औषधि बदलनी होगी। पूरा क्रम ही गलत दिशा में चल रहा है। किन्हीं कारणों से हमारे पास पर्याप्त मात्रा में धन है और हम ऐसे या वैसे कोशिश करते हैं। सच्चाई तो यह है कि जब चिकित्सक देखतें हैं कि कुछ भी ठीक नहीं हो पा रहा है तो वो मरीज़ को ऑक्सीजन लगा देतें हैं। ऑक्सीजन को प्राण वायु कहा जाता है। जीने के लिए हमें इसकी अत्यंत आवश्यकता होती है। और जीवन के लिए ताज़ा हवा की जरूरत होती है। यह ताज़ा हवा श्रीकृष्ण भगवान् और गौऔं से आती है। गौऔं के पास रहस्यमयी यौगिक शक्ति है जिससे वह ऑक्सीजन उत्पन्न कर सकती हैं और कार्बन ङॉईऑक्साइड अपने अन्दर ले सकती हैं। इससे दूषण भी दूर होता है और अतः गौऔं को पूजा जाता है। गौऔं से प्राप्त हर एक चीज़ हमारी बीमारी का इलाज़ है। बच्चों की सेहत के लिए गाय का दूध आवश्यक है। पहले हर एक घर के सामने एक गाय हुआ करती थी।
यह सभी रिपोर्ट और औषधियाँ अंत में हमारे शरीर को ऑक्सीजन देने का उद्धेश्य रखती है और ऑक्सीजन शरीर में जाकर पूरे शरीर में फ़ैल जाती है। कोई भी चीज़ जो शरीर में जाती है, वह पूरे शरीर में फैलती है। शरीर के प्रत्येक अंग को ऑक्सीजन की अन्दर व बाहर दोनों ओर से आवश्यकता होती हैँ होती है। ऑक्सीजन ब्रह्मज्योति द्वारा दिया गया उपहार है जो भगवान् के श्रीविग्रह से प्रस्फुटित हो रहा है। श्रीकृष्ण के द्वारा दिया गया वरदान किसी के भी द्वारा उत्पादित व उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। अतः भगवान् श्री कृष्ण के प्रभुत्व को स्वीकारा जाना चाहिए। जो इसे स्वीकारते है, वें उस हद तक खुश रहते हैं। इन सब निरर्थक बातों के बाद भी दोबारा हमें श्रीकृष्ण पर निर्भर रहना होता है। इसलिए हम उन पर शुरुआत से ही विश्वास करें, यही बेहतर होगा। ऐसा करने से हम पीड़ादाई इलाज़ से मुक्त हो जायेंगे। कोई भी रिपोर्ट एक मिनट से ज्यादा मान्य नहीं है और इसी तरह उन पर आधारित औषधियाँ भी मान्य नहीं है। लेकिन अपनी ही अज्ञानता के कारण हम सरल उपाय छोड़कर कठिन उपाय अपना रहे हैं। आज से ही हमे यह सब छोड़ कर सहिष्णु बनने का प्रयास करना चाहिए। बात तो यह है कि अब हम में सहिष्णुता रही ही नहीं है। छोटी छोटी बातों पर हम उत्तेजित हो जाते हैं। सय़ंमता अब रही ही नहीं है। हम समझदार नहीं है। हमें आज से ही सयंमी बनने का प्रयास करना चाहिए।
सयंमी मनुष्य का प्रमुख लक्षण यही है कि वह उत्तेजित करने वाली परिस्थितियों में भी उत्तेजित न हो। यही शुरुआत है। यही वास्तविक दीक्षा है। अन्यथा दीक्षित होने का क्या लाभ। फिर और कुछ नहीं सीखा जा सकता। सबसे पहले आपको यही सीखना होगा। इसके लिए श्रीकृष्ण नाम अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्रभुपाद बहुत उदार व्यक्ति थे और वह प्रत्येक जीव को इस समझ तक लाना चाहते थे। वे ईसाईयों से कहते थे कि मैं यहाँ तुम्हारा धर्म बदलने नहीं आया हूँ। आप ईशु ईशु का जप करो। इससे फरक नही पड़ता। सयंमी प्रवृतिहिन्दू, मुस्लिम या ईसाई धर्म नहीं है। हम इससे पूर्णतः ऊपर है। जब तक हम यह समझ विकसित नहीं कर लेते, दीक्षित होने का कोई लाभ नहीं है। यह एक शोभाचार बन गया है। जैसे ही हम धैर्य रखना सीख लेंगे, वैसे ही सब कुछ एकदम साफ़ हो जायेगा। मृदु स्वभाव से कुछ भी बनाया जा सकता हैं। शान्ति और धैर्य के बिना कुछ भी हल नहीं हो सकता है। शान्ति और धैर्य के स्थान पर हम क्रोध और उत्तेजना रख देते हैं। इससे सब कुछ नष्ट हो जाता है। और अगर हमने पहले यह नहीं किया है तो हमें आज से ही क्रोध व उत्तेजना का त्याग कर देना चाहिए।
अमरीकी बहुत धार्मिक नहीं होते हैं। अमरीकी डॉलर पर एक वाक्य लिखा है - 'हम भगवान् में विश्वास रखते हैं '। यह वाक्य उनकी रक्षा करता है। यूँ तो यह सिर्फ एक वाक्य है किन्तु कृष्ण इसे स्वीकारते है। लाखों ही हाथों में यह डॉलर जाते हैं। इससे हाथ शुद्ध हो जाते हैं। कोई इसे पढ़ता है तो उसके नेत्र शुद्ध हो जाते हैं। अगर कोई इसके बारे में सोचता है तो उसकी बुद्धि पवित्र हो जाती है। उनका पूरा जीवन पवित्र हो जाता है। यह दिखता नहीं परन्तु वह पवित्र हो जातें है। कृष्ण अपने नाम के द्वारा एक हाथ से दूसरे हाथ में जा रहे हैं। प्रभुपाद उदाहरण देते थे कि एक छोटा बच्चा यह नहीं जानता कि आग उसके हाथ की अँगुली जला सकती है पर वह जलाती हैं। हम भी छोटे बच्चे की तरह है और अनजाने में हम पर प्रभाव पड़ रहा है। आस्तिक्तावाद को किसी भी रूप में पूरे अस्तित्त्व में बहना चाहिए। यदि हमारे पास पर्याप्त आस्तिक्तावाद है, तो ही हमे इसे किसी और को दे सकेंगे। यह क्रिया बिना रुके चलनी चाहिए और प्रभुपाद हमारे जगत गुरु हैं। हम उनके कर्ज़दार हैं। हम उनके द्वारा लिखी पुस्तकें पढ़ कर यहाँ तक आए हैं। जिस भी दिन हम उनकी लिखी पुस्तक पढ़ते हैं उस दिन से ही हमारी कृष्णभावनामृत में शुरुआत हो जाती है। हमे तुच्छ विभागों में न बँट कर उदार बनना चाहिए। गुण हमे विभाजित करने की कोशिश करते हैं। उन्हें छोड़कर कृष्ण के साथ खुश रहो। अगर और कुछ नहीं कर सकते तो हमेशा दयालुता का सद्गुण अपनाओ। सत्व गुण सबसे उत्तम है लेकिन हमें शुद्ध सत्व की जरूरत है। सत्व गुण के प्रभाव में तुच्छ वस्तुएं अस्तित्त्व में नहीं रहती। यह सब कृष्ण की सत्ता हैं। केवल उदार स्वाभाव से ही आप इस ग्रह पर आरोग्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। अज्ञानता के कारण हम संकीर्ण विचारधारा वाले बन जाते हैं। अपने आप को इन तुच्छ गुणों में मत जाने दो। आज कृष्ण और अग्नि के समक्ष यह प्रण लो कि हम प्राकर्तिक वस्तुओं को धारण करेंगे। चिकित्सको ने मिटटी से स्नान व उससे जुड़ना शुरू कर दिया है। और वह जानते है कि यही प्रत्येक बीमारी का इलाज़ है क्योंकि प्रत्येक भौतिक वस्तु तीन चीज़ों से बनी है - पृथ्वी, अग्नि व जल। पृथ्वी, जल और अग्नि - तीनों मिलकर हमारे शरीर को स्वस्थ रखते हैं।
आज ही से कृपा करके आधुनिक इलाज़ में न पड़ें। उसे अपने समाज का हिस्सा बनाना बहुत ही मूर्खता बात है। प्रभुपाद चाहते थे कि हम भगवान् के परम तत्व में दृढ़ विश्वास बनायें और जो भी हमे उस दिव्य तत्व से दूर करता है, उसे त्याग दें। सादा सरल जीवन हमें धर्म परायण बना देगा। हमारा सरलता की तरफ कोई झुकाव नहीं रह गया है - पश्चिमी शिक्षा ने हमें यही उपहार दिया है। यह उपहार त्याग कर हमें वैदिक उपहार अपनाना चाहिए जो हमें भगवान् के करीब ला सके और हम स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें।
हम अभी तक दिव्य तरंगों का उद्देश्य नही समझे हैं। बार बार ये साबित हो चुका है कि इनका अस्तित्व है। सिर्फ यही है जो कार्यान्शील है और कुछ नहीं।
मनुष्य होने के नाते हम उत्कृष्ट बुद्धि रखते हैं। हम इस सबके के बारे में सोच सकते हैं। मान लो कि हम बीमार हैं तो हमें अस्पताल जाना पड़ेगा। पहले अस्पताल होते ही नहीं थे। और उनका होना बहुत सामान्य न था। हमनें देखा है कि पहले का समाज चिकित्सक मुक्त था। वे आवारा बिल्लियों की तरह थे। चिकित्सक हमारे समाज का हिस्सा नहीं थे। करीब ७० सालों में सारी सड़कें अस्पतालों से भर गई हैं। अब यहाँ अनगिनित अस्पताल हैं। यह समाज की आस्तिकता से नास्तिकता की ओर अधोगति को दर्शाता हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल आस्तिक बनकर हम अपने आप को ऊपर उठा सकते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् हमारी न्युनतम सेवा को भी स्वीकार करते हैं। जैसे ही हमारा झुकाव उनकी तरफ बढ़ता है, भगवान् भी हमारी ओर चलें आतें हैं। और यह हमें पता ही नहीं चल पाता है। अस्पताल में जाते ही चिकित्सक अधिक धन कमाने की लालसा में आपको गहन चिकित्सा विभाग (ICU) में भर्ती कर देते हैं। यमराज कहेंगे ICU ( I SEE YOU ) - मैं तुम्हे देखता हूँ। अगर यमराज को आना है तो वो कहीं भी आ सकते हैं। उसके लिए हमें गहन चिकित्सा विभाग (ICU) जाकर भूगतान करने व उनसे बात करने की क्या आवश्यकता हैं। विड़म्बना तो यह है कि चिकित्सक ही कुछ नहीं जानते हैं। उनका इलाज़ खून की जांच पर आधारित होता है।
सिडनी में एक चिकित्सक से मैंने पूछा कि खून की जांच कितने दिन तक मान्य रहती है।
उन्होंने कहा,"एक दिन तक मान्य रहती है। "
मैंने उनसे फिर पूछा, "क्या आप पूरे विश्वास से यह कह सकते हैं। "
चिकित्सक ने कहा, "नहीं नहीं, आधे दिन तक यह मान्य है। "
मैंने दोबारा पूछा, "क्या आप अभी भी विश्वास से यह कह रहे हैं। "
इस बार उन्होंने निशंका से कहा, "नहीं नहीं, यह केवल कुछ मिनट के लिए ही मान्य है। "
इस संसार में सब कुछ बदल रहा है। एक ही चीज़ बदलाव रहित है और वह खुद बदलाव है जो कभी नहीं बदलता। प्रत्येक क्षण प्रत्येक चीज़ बदल रही है। यदि इतना सब बदल रहा है तो हम खून की जांच की रिपोर्ट पर निर्भर कैसे रह सकते हैं। और यदि उनका इलाज़ इस रिपोर्ट पर आधारित होता है तो वह अवश्य ही गलत होगा। हर पल उन्हें अपनी औषधि बदलनी होगी। पूरा क्रम ही गलत दिशा में चल रहा है। किन्हीं कारणों से हमारे पास पर्याप्त मात्रा में धन है और हम ऐसे या वैसे कोशिश करते हैं। सच्चाई तो यह है कि जब चिकित्सक देखतें हैं कि कुछ भी ठीक नहीं हो पा रहा है तो वो मरीज़ को ऑक्सीजन लगा देतें हैं। ऑक्सीजन को प्राण वायु कहा जाता है। जीने के लिए हमें इसकी अत्यंत आवश्यकता होती है। और जीवन के लिए ताज़ा हवा की जरूरत होती है। यह ताज़ा हवा श्रीकृष्ण भगवान् और गौऔं से आती है। गौऔं के पास रहस्यमयी यौगिक शक्ति है जिससे वह ऑक्सीजन उत्पन्न कर सकती हैं और कार्बन ङॉईऑक्साइड अपने अन्दर ले सकती हैं। इससे दूषण भी दूर होता है और अतः गौऔं को पूजा जाता है। गौऔं से प्राप्त हर एक चीज़ हमारी बीमारी का इलाज़ है। बच्चों की सेहत के लिए गाय का दूध आवश्यक है। पहले हर एक घर के सामने एक गाय हुआ करती थी।
यह सभी रिपोर्ट और औषधियाँ अंत में हमारे शरीर को ऑक्सीजन देने का उद्धेश्य रखती है और ऑक्सीजन शरीर में जाकर पूरे शरीर में फ़ैल जाती है। कोई भी चीज़ जो शरीर में जाती है, वह पूरे शरीर में फैलती है। शरीर के प्रत्येक अंग को ऑक्सीजन की अन्दर व बाहर दोनों ओर से आवश्यकता होती हैँ होती है। ऑक्सीजन ब्रह्मज्योति द्वारा दिया गया उपहार है जो भगवान् के श्रीविग्रह से प्रस्फुटित हो रहा है। श्रीकृष्ण के द्वारा दिया गया वरदान किसी के भी द्वारा उत्पादित व उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। अतः भगवान् श्री कृष्ण के प्रभुत्व को स्वीकारा जाना चाहिए। जो इसे स्वीकारते है, वें उस हद तक खुश रहते हैं। इन सब निरर्थक बातों के बाद भी दोबारा हमें श्रीकृष्ण पर निर्भर रहना होता है। इसलिए हम उन पर शुरुआत से ही विश्वास करें, यही बेहतर होगा। ऐसा करने से हम पीड़ादाई इलाज़ से मुक्त हो जायेंगे। कोई भी रिपोर्ट एक मिनट से ज्यादा मान्य नहीं है और इसी तरह उन पर आधारित औषधियाँ भी मान्य नहीं है। लेकिन अपनी ही अज्ञानता के कारण हम सरल उपाय छोड़कर कठिन उपाय अपना रहे हैं। आज से ही हमे यह सब छोड़ कर सहिष्णु बनने का प्रयास करना चाहिए। बात तो यह है कि अब हम में सहिष्णुता रही ही नहीं है। छोटी छोटी बातों पर हम उत्तेजित हो जाते हैं। सय़ंमता अब रही ही नहीं है। हम समझदार नहीं है। हमें आज से ही सयंमी बनने का प्रयास करना चाहिए।
सयंमी मनुष्य का प्रमुख लक्षण यही है कि वह उत्तेजित करने वाली परिस्थितियों में भी उत्तेजित न हो। यही शुरुआत है। यही वास्तविक दीक्षा है। अन्यथा दीक्षित होने का क्या लाभ। फिर और कुछ नहीं सीखा जा सकता। सबसे पहले आपको यही सीखना होगा। इसके लिए श्रीकृष्ण नाम अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्रभुपाद बहुत उदार व्यक्ति थे और वह प्रत्येक जीव को इस समझ तक लाना चाहते थे। वे ईसाईयों से कहते थे कि मैं यहाँ तुम्हारा धर्म बदलने नहीं आया हूँ। आप ईशु ईशु का जप करो। इससे फरक नही पड़ता। सयंमी प्रवृतिहिन्दू, मुस्लिम या ईसाई धर्म नहीं है। हम इससे पूर्णतः ऊपर है। जब तक हम यह समझ विकसित नहीं कर लेते, दीक्षित होने का कोई लाभ नहीं है। यह एक शोभाचार बन गया है। जैसे ही हम धैर्य रखना सीख लेंगे, वैसे ही सब कुछ एकदम साफ़ हो जायेगा। मृदु स्वभाव से कुछ भी बनाया जा सकता हैं। शान्ति और धैर्य के बिना कुछ भी हल नहीं हो सकता है। शान्ति और धैर्य के स्थान पर हम क्रोध और उत्तेजना रख देते हैं। इससे सब कुछ नष्ट हो जाता है। और अगर हमने पहले यह नहीं किया है तो हमें आज से ही क्रोध व उत्तेजना का त्याग कर देना चाहिए।
अमरीकी बहुत धार्मिक नहीं होते हैं। अमरीकी डॉलर पर एक वाक्य लिखा है - 'हम भगवान् में विश्वास रखते हैं '। यह वाक्य उनकी रक्षा करता है। यूँ तो यह सिर्फ एक वाक्य है किन्तु कृष्ण इसे स्वीकारते है। लाखों ही हाथों में यह डॉलर जाते हैं। इससे हाथ शुद्ध हो जाते हैं। कोई इसे पढ़ता है तो उसके नेत्र शुद्ध हो जाते हैं। अगर कोई इसके बारे में सोचता है तो उसकी बुद्धि पवित्र हो जाती है। उनका पूरा जीवन पवित्र हो जाता है। यह दिखता नहीं परन्तु वह पवित्र हो जातें है। कृष्ण अपने नाम के द्वारा एक हाथ से दूसरे हाथ में जा रहे हैं। प्रभुपाद उदाहरण देते थे कि एक छोटा बच्चा यह नहीं जानता कि आग उसके हाथ की अँगुली जला सकती है पर वह जलाती हैं। हम भी छोटे बच्चे की तरह है और अनजाने में हम पर प्रभाव पड़ रहा है। आस्तिक्तावाद को किसी भी रूप में पूरे अस्तित्त्व में बहना चाहिए। यदि हमारे पास पर्याप्त आस्तिक्तावाद है, तो ही हमे इसे किसी और को दे सकेंगे। यह क्रिया बिना रुके चलनी चाहिए और प्रभुपाद हमारे जगत गुरु हैं। हम उनके कर्ज़दार हैं। हम उनके द्वारा लिखी पुस्तकें पढ़ कर यहाँ तक आए हैं। जिस भी दिन हम उनकी लिखी पुस्तक पढ़ते हैं उस दिन से ही हमारी कृष्णभावनामृत में शुरुआत हो जाती है। हमे तुच्छ विभागों में न बँट कर उदार बनना चाहिए। गुण हमे विभाजित करने की कोशिश करते हैं। उन्हें छोड़कर कृष्ण के साथ खुश रहो। अगर और कुछ नहीं कर सकते तो हमेशा दयालुता का सद्गुण अपनाओ। सत्व गुण सबसे उत्तम है लेकिन हमें शुद्ध सत्व की जरूरत है। सत्व गुण के प्रभाव में तुच्छ वस्तुएं अस्तित्त्व में नहीं रहती। यह सब कृष्ण की सत्ता हैं। केवल उदार स्वाभाव से ही आप इस ग्रह पर आरोग्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। अज्ञानता के कारण हम संकीर्ण विचारधारा वाले बन जाते हैं। अपने आप को इन तुच्छ गुणों में मत जाने दो। आज कृष्ण और अग्नि के समक्ष यह प्रण लो कि हम प्राकर्तिक वस्तुओं को धारण करेंगे। चिकित्सको ने मिटटी से स्नान व उससे जुड़ना शुरू कर दिया है। और वह जानते है कि यही प्रत्येक बीमारी का इलाज़ है क्योंकि प्रत्येक भौतिक वस्तु तीन चीज़ों से बनी है - पृथ्वी, अग्नि व जल। पृथ्वी, जल और अग्नि - तीनों मिलकर हमारे शरीर को स्वस्थ रखते हैं।
आज ही से कृपा करके आधुनिक इलाज़ में न पड़ें। उसे अपने समाज का हिस्सा बनाना बहुत ही मूर्खता बात है। प्रभुपाद चाहते थे कि हम भगवान् के परम तत्व में दृढ़ विश्वास बनायें और जो भी हमे उस दिव्य तत्व से दूर करता है, उसे त्याग दें। सादा सरल जीवन हमें धर्म परायण बना देगा। हमारा सरलता की तरफ कोई झुकाव नहीं रह गया है - पश्चिमी शिक्षा ने हमें यही उपहार दिया है। यह उपहार त्याग कर हमें वैदिक उपहार अपनाना चाहिए जो हमें भगवान् के करीब ला सके और हम स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें।
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