अचिंत्य भेदाभेद लीलाधर हे
बड़ो खेल रचाया न्यारा तू
तू एक अनेक दिखे पर
आँख पड़ी जब माया धूल |
धरती तू, और गगन भी
सागर है तू, और बूँद भी तू
धारा बन खुद बह जावे
और बादल बन बरसे भी तू |
भूख भी तू, भोजन भी तू
जग का पालनहार भी तू
खुद भूखा बन भोग लगावे
और तृप्ती की तृप्ती भी तू |
जल भी तू, मदिरा भी तू
पदार्थ भी तू, और स्वाद भी तू
सुख में तू, दुःख में भी तू
आनंद भी तू, संघर्ष भी तू
दुनिया फिर क्यूँ भेद बतावे
जब तू ही तू, सब तू ही तू |
चोर भी तू,ठाकुर भी तू
स्वामी तू, चाकर भी तू
खुद ग्वाला बन गऊ चरावे
गाय भी तू दोहे भी तू |
भक्त तू ही, भगवान भी तू
जगत सकल सब प्राण भी तू
मैं नहीं, मेरा नहीं
तू ही तू, बस तू ही तू | |
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