इस विस्तृत संसार से कभी सुख नहीं मिल सकता, क्योंकि इसमें जो जीव उत्पन्न होते है, वे मरने के लिए ही उत्पन्न होते है और जो मरते है, वे जन्म के लिए ही मरते है, उनको कुछ भी सुख नहीं मिलता।
जैसे मरीचिका को जल समझकर मुग्ध मृग वन में बड़ी दूर तक इधर - उधर भटकते रहता है, फिर भी कुछ नहीं मिलता, वैसे ही मूढ़बुद्धि हम लोग इस संसार में असत पदार्थों को सुख के साधन समझकर इधर - उधर खूब भटकते रहते है, पर हाथ कुछ नहीं लगता।
जैसे अरण्य में किसी गड्ढ़े में गिरे हुए मूढ़ मृग बहुत काल के बाद यह जान पाते है की हम गड्ढ़े के अन्दर गिर गए है, वैसे ही हम लोगों ने बहुत काल के बाद यह जाना कि हम व्यर्थ मोह में गिरे हुए है।
यह मोह किसी भी प्रकार का हो सकता है अथवा किसी से भी हो सकता है, यदि हम किसी वास्तु, व्यक्ति से मोह कर बैठते है तो वह हमे केवल दुःख देते है।इस पंक्ति को सिद्ध करने के लिए इतना बतलाना ही बहुत होगा कि जब धन की हानि होती है तब हमे दुःख होता है, किसी प्रियजन की हानि होने पर भी हमे दुःख ही होता है।
शास्त्रों की समझ से केवल परमात्मा का मोह ही ऐसा मोह है जिसमे कोई अस्थिरता नहीं है क्योंकि केवल परमात्मा ही है जो सदा स्थिर है इसीलिए "परम सुख केवल परमात्मा के चरणों में ही है"।
श्री हरि मेरे और मैं श्री हरि का
जय श्री हरि
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