कभी - कभी सोचता है मन
गोलोक
कितना पावन होगा
जहाँ बैठे होंगे खुद
मोहन
कितना मनभावन होगा

मोहन की मुस्कान
मुरली की तान
उनके घुंघुरू भी
करते होंगे गान

पिताम्बर भी करती होंगी
बातें कान्हा के मोर - मुकुट से
इठलाती होगी वैजयंती माला
मै तो लिपटी हूँ खुद कान्हा से

गैया चराते गोपाल
उनकी सेवा में लगे
सहस्रों लक्ष्मियाँ
आध्यात्मिक प्रकाश से
प्रकाशित
दिव्य अलौकिक दुनिया

कुछ भी जड़ नही
हर चीज होगी चेतन
जल और वायु भी
होंगे वहां के पावन

कितने नसीबवाले होंगे
जिन्हें मिला होगा
ये दुर्लभ आध्यात्मिक जग

कितना सुखद होगा
वो अहसास
भक्त का सिर
स्वयं भगवान का पग

उनके चरणों की सेवा
मोहन का दर्शन
जहाँ होंगे खुद रसराज
वहाँ कितना होगा आकर्षण

निहारते - निहारते संवारे को
आँखें थकती नही होंगी
साथ में राधिका भी तो
वहाँ दर्शन देती होंगी

जुगल जोड़ी की ये छटा
कैसे आँखों में समाती होगी
आत्मा की हर प्यास
इससे तृप्त हो जाती होगी

साक्षात कृष्ण हो सामने
भक्त क्या कर पाता होगा
उन्हें देखने के बाद भी
क्या सुध-बुध रह जाता होगा

नज़री क्या साँवरे के मुख से
कभी हट पाती होंगी
जब भी नज़र उस मोहनी
सूरत पे जाती होगी

कुंठा, कलह
मिलन , विरह

प्रेम की लहरी,
सुख का सागर

आनंद ही आनंद
इस जगत में जाकर

जिसकी कल्पना मात्र से
मेरा रोम - रोम पुलक रहा
बेचैन हो रही आत्मा
दिल दर्शन को तड़प रहा


वो गोलोक कैसा होगा
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