2 - भज गोविन्दं

मूल:
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां कुरू सद्-बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तमं॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़्मते।

हिन्दी:
राग न रख धन के संचय में, हो वितृष्ण धर सुमति हृदय में।
अर्जित हो जो धन स्वकर्म से, रह उससे आनन्द अभय में॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़्मते।

श्री शंकराचार्य ने अपने पहले श्लोक में संसारी प्राणियों को यह चेतावनी दी थी कि पांडित्य और उससे मिलने वाली ख्याति के लोभ में पड़ कर ईश्वर को मत भूलो। इसके बाद इस दूसरे श्लोक में वो लोगों को धन की लालसा से होने वाले कष्ट से बचने की सलाह दे रहे हैं। यह देखते हुए भी कि पैसे के लोभ से सैकड़ों लोग अनेक कष्ट भुगतते हैं, लोगों के मन में धन-संग्रह करने की चाह हटती नहीं। इस तृष्णा पर मनुष्य को विजय पाने की कोशिश करनी चाहिए। धन का लोभ बुद्धि का नाश करने वाला है। परिश्रम और ईमानदारी से जो मिले उसी से संतुष्ट होना चाहिए। समझना चाहिए मेरे लिए हरि ने इतना हीं अभी तय किया है, और हरि-ईच्छा के आगे सर झुकाने में कोई दुःख, चिन्ता, परेशानी या बेचैनी नहीं होनी चाहिए।

श्री शंकराचार्य का यह उपदेश केवल ज्ञानमार्गियों के लिए नहीं बल्कि उन सब के लिए है जो शरीर-श्रम के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं। हम सब में अधिसंख्य ऐसे ही हैं। ज्ञान और भक्ति पर सब का अधिकार है। इस श्लोक में मुख्य बात संतोष का होना है। बिना इसके तृष्णा कभी शान्त नहीं होगी और बगैर तृष्णा के शान्त हुए सेवा नहीं हो सकेगा, फ़िर भक्ति भी नहीं मिलेगी और भक्ति के बिना श्रीकृष्ण नहीं मिलेंगे। श्री शंकराचार्य कह रहे हैं, इस तृष्णा को तुम अपना वैरी मानो, उस पर विजय प्राप्त करो और मन में प्रसन्नता लाओ।

आखिर हम चाहते क्या हैं? मन की शान्ति। तब फ़िर अच्छे तरीके से और परिश्रम से उपार्जित वित्त से क्यों न हम संतुष्ट हों? क्यों अधिकाधिक धन कमाने की इच्छा भी करें? क्यों व्यर्थ दुःख मोल लेने की मुर्खता करें?

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

This reply was deleted.