प्यारे कन्हैया,
तेरी ही पलकों के इशारे पर मुनि-मन-मोहिनी महामाया-नटी थिरक-थिरक कर नाच रही है। तेरे हीं संकेत से महान देव रुद्र अखण्ड ताण्डव-नॄत्य करते हैं। तुझे हीं रिझाने के लिए हाथ में वीणा लिए सदानन्दी नारद मतवाला नाच नाच रहे हैं। तेरी ही प्रसन्नता के लिए व्यास-वाल्मीकि और शुक-सनकादि घूम-घूमकर और झूम-झूमकर तेरा गुण-गान करते हैं। तेरा रूप तो बड़ा हीं अनोखा है, जब तेरी वह रूप-माधुरी खुद तुझी को दीवाना बनाए डालती है, तब ग्यानी-महात्मा, साधु-सन्तों और प्रेमी भक्तों के उस पर लोक-परलोक निछावर कर देने में तो आश्चर्य ही क्या है? आनन्द का तो तू असीम सागर है। तेरे आनन्द के किसी एक छुद्र कण को पाकर ही बड़े-बड़े विद्वान और तपस्वी लोग अपने जीवन को सार्थक समझते हैं। अनिर्वचनीय प्रेम का तो तू अचिन्त्यस्वरूप है। तुझ प्रेमस्वरूप के एक छोटे से परमाणु ने ही संसार के समस्त जननी-हृदयों में, समग्र शुद्ध प्रेमिक-प्रेमिकाओं के अन्तर में सम्पूर्ण मित्र-अंतस्तलों में और विश्व के अखिल प्रिय पदार्थों में प्रविष्ट होकर जगत को रसमय बना रखा है। ग्यान का अनन्त स्त्रोत तो तेरे उन चरणकमलों के रजकणों से प्रवाहित होता है, इसीसे बड़े-बड़े सन्त-महात्मा तेरी चरण-धूलि के लिए तरसते रहते हैं।

किसमें सामर्थ्य है जो तुझ सर्व-समर्थ के दिव्य गुणों की थाह भी पा सके? ऐसा कौन शक्ति सम्पन्न है जो तुम्झ अपार प्रकृति के परमात्मा के ग्यान की सीमा तक पहुँच सके? किसमें ऐसी ताकत हैजो तुझ सर्वरूप तथा साथ हीं अरूप की विश्वमोहिनी नित्य रूप-छ्टा का साक्षात्कार करके उसका यथार्थ वर्णन कर सके? कौन ऐसा सच्चा प्रेमी है जो तुझ अपार अलौकिक प्रेमार्णव में प्रवेश कर उसके अतल-तल में सदा के लिए डुबे बिना रह जाए? फ़िर बता तेरा वर्णन - तेरे रूप, गुण, ग्यान, और प्रेम का विवेचन कौन करे? और कैसे करे? प्यारे कृष्ण, बस तू तो सिर्फ़ तू ही है। तेरे लिए जो कहा जाए, वही थोड़ा है। तेरे रूप, गुण, ग्यान और प्रेम का दिव्य ध्यान-ग्यान जनित अनुभव भी तेरी कृपा बिना तुझ देश-काल कल्पनातीत अकल कल्याण-निधि के वास्तविक स्वरूप के कल्पित चित्र तक पहुँच कर भी उसका सच्चा वर्णन नहीं कर सकता। फ़िर अनुभव-शून्य मेरी कोरी कल्पनाओं की तो औकात हीं क्या है? वस्तुतः तेरे स्वरूप और गुणों का मनुष्यकृत महान-से-महान वर्णन भी यथार्थतत्व को बतलानेवाला न होने के कारण, महान तेज-पुंज सूर्यमण्डल को जरा-सा जुगनू बतलाने के सदृश एक प्रकार से तेरा अपमान ही है, पर तू तो दयामय है, कृपालु है। तेरे प्रेमी कहा करते हैं कि तू प्यारे-दुलारे नन्हें बच्चों की हरकतों पर कभी नाराज न होकर सदा प्यार करनेवाली जननी की भाँति किसी तरह भी अपना चिन्तन या नाम-गुण ग्रहण करनेवालें लोगों के प्रति प्रसन्न ही होता है। तू उनपर कभी नाराज होता ही नहीं। बस, इसी तेरे विरद के भरोसेपर मैंने भी यह मनमानी करने ही हिम्मत की है। ओह...फ़िर मैं भूला, मेरी मनमानी कैसी? नचानेवाला सुत्रधार तो तू ही है, मैं मनमानी करनेवाला पामर कौन? तू जो उचित समझे, वही कर...। तेरी लीला में आनाकानी कौन कर सकता है?

पर मेरे प्यारे साँवले, तुझसे एक प्रार्थना जरुर है। कभी-कभी अपनी मोहिनी मुरली का एक मीठा सूर सुना दिया कर और अगर जँचे तो लभी-कभी अपनी भुवन-विमोहिनी सौन्दर्य-सुधा की दो-एक बूँद पिलाने की भी दया....अगर कर दे तो....

तेरा, सिर्फ़ तेरा ही....

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Comments

  • Thank you Sushant Prabhu, its my first attempt of writing a letter to Lord.
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