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अध्याय अठारह – राजा ययाति को यौवन की पुनः प्राप्ति (9.18)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, जिस तरह देहधारी आत्मा के छह इन्द्रियाँ होती हैं उसी तरह राजा नहुष के छह पुत्र थे जिनके नाम थे यति, ययाति, सनयती, आयति, वियति तथा कृति।

2 जब कोई मनुष्य राजा या सरकार के प्रधान का पद ग्रहण करता है तो वह आत्म-साक्षात्कार का अर्थ नहीं समझ पाता। यह जानकर, नहुष के सबसे बड़े पुत्र यति ने शासन सँभालना स्वीकार नहीं किया यद्यपि उसके पिता ने राज्य को उसे ही सौंपा था।

3 चूँकि ययाति के पिता नहुष ने इन्द्र की पत्नी शची को छेड़ा था, अतएव शची के अगस्त्य तथा अन्य ब्राह्मणों के शिकायत करने पर इन ब्राह्मणों ने नहुष को शाप दिया की वह स्वर्ग से गिरकर अजगर बन जाय। फलतः ययाति राजा बना।

4 राजा ययाति के चार छोटे भाई थे जिन्हें उसने चारों दिशाओं में शासन चलाने की अनुमति दे दी थी। ययाति ने शुक्राचार्य की बेटी देवयानी से एवं वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया और वह सारी पृथ्वी पर शासन करने लगा।

5 महाराज परीक्षित ने कहा: शुक्राचार्य अत्यन्त शक्तिसम्पन्न ब्राह्मण थे और महाराज ययाति क्षत्रिय थे। अतएव मैं यह जानने का इच्छुक हूँ की ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के बीच यह प्रतिलोम विवाह कैसे सम्पन्न हुआ?

6-7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एकबार वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जो अबोध, किन्तु स्वभाव से क्रोधी थी, शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा उसकी सैकड़ों सखियों के साथ राजमहल के बगीचे में घूम रही थी। यह बगीचा कमलिनियों तथा फूल-फल के वृक्षों से भरा हुआ था और उसमें मधुर गीत गाते पक्षी तथा भौरें निवास कर रहे थे।

8 जब तरुणी, कमलनयनी लड़कियाँ जलाशय के तीर पर आई तो उन्होंने स्नान का आनन्द लेना चाहा। फलतः किनारे पर अपने वस्त्र रखकर वे एक दूसरे पर जल उछाल उछालकर जल-क्रीड़ा करने लगीं।

9 जलक्रीड़ा करते हुए लड़कियों ने सहसा शिवजी को अपनी पत्नी पार्वती सहित ऊपर से जाते देखा जो बैल की पीठ पर आसीन थे। अतः लज्जित होकर वे तुरन्त जल से बाहर निकल आई और अपने वस्त्र पहन लिये।

10 शर्मिष्ठा ने अनजाने ही देवयानी का वस्त्र पहन लिया जिससे देवयानी को क्रोध आ गया और वह इस प्रकार बोली।

11 अरे जरा देखो न इस दासी शर्मिष्ठा को, इसने सारे शिष्टाचार को ताक पर रखकर मेरे वस्त्र धारण कर लिये हैं मानो यज्ञ के निमित्त रखे घी को कोई कुत्ता झपट ले।

12-14 हम उन योग्य ब्राह्मणों में से हैं जिन्हें भगवान का मुख माना गया है। ब्राह्मणों ने अपनी तपस्या से समग्र विश्व को उत्पन्न किया है और वे परम सत्य को अपने अन्तःकरण में सदैव धारण करते हैं। उन्होंने सौभाग्य के पथ का निर्देशन किया है जो वैदिक सभ्यता का पथ है। वे इस जगत में एकमात्र पूजनीय है अतएव उनकी स्तुति की जाती है और विभिन्न लोकों के नायक बड़े से बड़े देवता भी उनकी पूजा करते हैं – यहाँ तक कि सबको पवित्र करनेवाले, लक्ष्मीदेवी के पति, परमात्मा द्वारा भी वे पूजित हैं और हम तो इसलिए भी अधिक पूज्य हैं क्योंकि हम भृगुवंशी हैं। यद्यपि इस स्त्री का पिता असुर होकर हमारा शिष्य है तो भी इसने मेरे वस्त्र को उसी तरह धारण कर लिया है जिस तरह कोई शूद्र वैदिक ज्ञान का भार सँभाले हो।

15 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शर्मिष्ठा को जब इस तरह कठोर शब्दों से झिड़का गया तो वह अत्यधिक क्रुद्ध हो ऊठी। सर्पिणी की तरह गहरी साँस छोड़ती और अपने निचले होंठ को अपने दाँतों से चबाती वह शुक्राचार्य की पुत्री से इस तरह बोली।

16 अरे भिखारिन, जब तुम्हें अपनी स्थिति का पता नहीं है तो व्यर्थ ही क्यों इतना बड़बड़ा रही हो? क्या तुम लोग अपनी जीविका के लिए हम पर आश्रित रहकर कौवों की भाँति हमारे घर पर टकटकी नहीं लगाये रहते हो?

17 ऐसे अप्रिय वचनों का उपयोग करते हुए शर्मिष्ठा ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को फटकारा। उसने क्रोध में आकर देवयानी के वस्त्र छीन लिए और उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

18 देवयानी को कुएँ में धकेल कर शर्मिष्ठा अपने घर चली गई। तभी शिकार के लिए निकला राजा ययाति उस कुएँ पर पानी पीने के लिए आया और संयोगवश देवयानी को देखा।

19 देवयानी को कुएँ में देखकर राजा ययाति ने तुरन्त ही अपना ऊपरी वस्त्र दे दिया और दयालु होकर उसका हाथ पकड़ कर, उसे कुएँ से बाहर निकाला।

20-21 देवयानी प्रेमसिक्त शब्दों में राजा ययाति से बोली "हे परम वीर! हे राजा! हे शत्रुओं के नगरों के विजेता! आपने मेरा हाथ थामकर मुझे अपनी विवाहिता पत्नी के रूप में स्वीकार किया है। अब मुझे कोई दूसरा नहीं छूने पाये क्योंकि हमारा यह पति-पत्नी का सम्बन्ध भाग्य द्वारा सम्भव हो सका है, किसी व्यक्ति द्वारा नहीं।

22 कुएँ में गिर जाने के कारण मैं आपसे मिली। निस्सन्देह यह विधि का विधान था। जब मैंने प्रकाण्ड विद्वान बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दिया तो उसने मुझे यह शाप दिया कि तुझे ब्राह्मण पति नहीं प्राप्त हो सकेगा। अतएव हे महाभुज! मेरे किसी ब्राह्मण की पत्नी बनने की कोई सम्भावना नहीं है।"

23 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: शास्त्रों द्वारा ऐसे विवाह की अनुमति नहीं है अतएव राजा ययाति को यह अच्छा नहीं लगा, किन्तु विधाता द्वारा व्यवस्थित होने तथा देवयानी के सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट होने से उसने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

24 तत्पश्चात जब विद्वान राजा अपने राजमहल को वापस चला गया तो देवयानी रोती हुई घर लौटी और उसने अपने पिता शुक्राचार्य को शर्मिष्ठा के कारण घटी सारी घटना कह सुनाई। उसने बताया कि उसे किस तरह कुएँ में धकेला गया था किन्तु एक राजा द्वारा बचा ली गई।

25 जब शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ घटी घटना सुनी तो वे मन में अत्यन्त खिन्न हुए। पुरोहिती वृत्ति को धिक्कारते एवं उच्चवृत्ति (खेत में अन्न बीनने) की प्रशंसा करते हुए उन्होंने पुत्री सहित अपना घर छोड़ दिया।

26 राजा वृषपर्वा समझ गया कि शुक्राचार्य उसे प्रताड़ित करने या शाप देने आ रहे हैं। फलस्वरूप, इसके पूर्व कि शुक्राचार्य उसके महल में आयें, वृषपर्वा बाहर आ गया और मार्ग में ही अपने गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। इस प्रकार उनके रोष को रोकते हुए उन्हें प्रसन्न कर लिया।

27 शक्तिशाली शुक्राचार्य कुछ क्षणों तक क्रुद्ध बने रहे, किन्तु प्रसन्न हो जाने पर उन्होंने वृषपर्वा से कहा: हे राजन, देवयानी की इच्छा पूरी कीजिये क्योंकि वह मेरी पुत्री है और मैं इस संसार में न तो उसे छोड़ सकता हूँ न उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।

28 शुक्राचार्य के निवेदन को सुनकर वृषपर्वा देवयानी की मनोकामना पूरी करने के लिए राजी हो गया और वह उसके वचनों की प्रतीक्षा करने लगा। तब देवयानी ने अपनी इच्छा इस प्रकार व्यक्त की, “जब भी मैं अपने पिता की आज्ञा से विवाह करूँ तो मेरी सखी शर्मिष्ठा अपनी सखियों समेत मेरी दासी के रूप में मेरे साथ चले।”

29 वृषपर्वा ने बुद्धिमानी से सोचा कि शुक्राचार्य की अप्रसन्नता से संकट आ सकता है और उनकी प्रसन्नता से भौतिक लाभ प्राप्त हो सकता है। अतएव उसने शुक्राचार्य का आदेश शिरोधार्य किया और दास की तरह उनकी सेवा की। उसने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को देवयानी को सौंप दिया और शर्मिष्ठा ने अपनी अन्य हजारों सखियों सहित दासी की तरह उसकी सेवा की।

30 जब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति से कर दिया तो उसने शर्मिष्ठा को भी उसके साथ जाने दिया। लेकिन राजा को चेतावनी दी "हे राजन, इस शर्मिष्ठा को कभी अपनी सेज में अपने साथ शयन करने की अनुमति मत देना।"

31 हे राजा परीक्षित, देवयानी के सुन्दर पुत्र को देखकर एक बार शर्मिष्ठा समुचित अवसर पर राजा ययाति के पास पहुँची। उसने एकान्त में अपनी सखी देवयानी के पति राजा ययाति से प्रार्थना की कि उसे भी पुत्रवती बनायें।

32 जब राजकुमारी शर्मिष्ठा ने राजा ययाति से पुत्र के लिए याचना की तो अपने धर्म से अवगत राजा उसकी इच्छा पूरी करने के लिए राजी हो गया। यद्यपि उसे शुक्राचार्य की चेतावनी स्मरण थी, किन्तु इस मिलन को परमेश्वर इच्छा मानकर उसने शर्मिष्ठा से संसर्ग किया।

33 देवयानी ने यदु तथा तुर्वसु को जन्म दिया और शर्मिष्ठा ने द्रुहयु, अनु तथा पुरु को जन्म दिया।

34 जब गर्विली देवयानी बाहरी स्रोतों से जान गई कि शर्मिष्ठा उसके पति से गर्भवती हुई है तो वह क्रोध से पगला उठी और वह अपने पिता के घर (मायके) चली गई।

35 चूँकि राजा ययाति अत्यन्त कामी था अतएव वह अपनी पत्नी के पीछे-पीछे हो लिया। उसने उसे पकड़ कर मीठे-मीठे बोल कहकर तथा उसके पाँव दबाते हुए उसे प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु वह उसे किसी भी तरह मना न पाया।

36 शुक्राचार्य अत्यन्त क्रोधित थे। उन्होंने कहा, “अरे झूठे! मूर्ख! स्त्रीकामी! तुमने बहुत बड़ी गलती की है। अतएव मैं शाप देता हूँ कि तुम पर बुढ़ापा तथा अशक्तता का आघात पड़ जाय जिससे तुम कुरूप बन जाओ।"

37 राजा ययाति ने कहा:हे विद्वान पूज्य ब्राह्मण, अभी भी तुम्हारी पुत्री के साथ मेरी कामेच्छाएँ पूरी नहीं हुई।" तब शुक्राचार्य ने उत्तर दिया, “चाहो तो तुम अपने बुढ़ापे को किसी ऐसे व्यक्ति से बदल लो जो तुम्हें अपनी युवावस्था देने को तैयार हो।"

38 जब ययाति को शुक्राचार्य से यह वर प्राप्त हो गया तो उसने अपने सबसे ज्येष्ठ पुत्र से अनुरोध किया, “हे पुत्र यदु तुम मेरी वृद्धावस्था तथा अशक्तता के बदले में मुझे अपनी जवानी दे दो।"

39 “हे पुत्र, मैं अपनी कामेच्छाओं से अभी भी तुष्ट नहीं हो पाया। किन्तु यदि तुम मुझ पर दया करो तो अपने नाना द्वारा प्रदत्त बुढ़ापे को ले सकते हो तथा अपनी जवानी मुझे दे दो जिससे मैं कुछ वर्ष और जीवन का भोग कर लूँ।"

40 यदु ने उत्तर दिया: हे पिताजी, यद्यपि आप भी तरुण पुरुष थे, किन्तु आपने वृद्धावस्था प्राप्त कर ली है। किन्तु मुझे आपका बुढ़ापा तथा जर्जरता तनिक भी मान्य नहीं है क्योंकि भौतिक सुख का भोग किये बिना कोई विरक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

41 हे महाराज परीक्षित, ययाति ने इसी तरह अन्य पुत्रों से अर्थात तुर्वसु, द्रुहयु तथा अनु से वृद्धावस्था के बदले अपनी जवानी देने के लिए निवेदन किया लेकिन वे सभी अधर्मज्ञ थे इसलिए उन्होंने सोचा कि उनकी नाशवान जवानी शाश्वत है अतएव उन्होंने अपने पिता के आदेश को मानने से मना कर दिया।

42 तत्पश्चात राजा ययाति ने पुरु से, जो अपने इन तीनों भाइयों से उम्र में छोटा था किन्तु अधिक योग्य था, इस तरह निवेदन किया, “हे पुत्र, तुम अपने बड़े भाइयों की तरह अवज्ञाकारी मत बनो क्योंकि यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है।"

43 पुरु ने उत्तर दिया, हे महाराज, ऐसा कौन होगा जो अपने पिता के ऋण से उऋण हो सके? मनुष्य को पिता की ही कृपा से मानव जीवन प्राप्त होता है जिससे वह भगवान का संगी बनने में सक्षम हो सकता है।

44 “जो पुत्र अपने पिता की इच्छा को जानकर उसी के अनुसार कर्म करता है वह प्रथम श्रेणी का (उत्तम) होता है, जो अपने पिता की आज्ञा पाकर कार्य करता है वह द्वितीय श्रेणी का (मध्यम) होता है और जो पुत्र अपने पिता के आदेश का पालन अनादरपूर्वक करता है वह तृतीय श्रेणी का (अधम) होता है। किन्तु जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह अपने पिता के मल के समान है।"

45 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे महाराज परीक्षित, इस तरह पुरु अपने पिता ययाति की वृद्धावस्था को ग्रहण करके अत्यन्त हर्षित था। पिता ने अपने पुत्र की जवानी ग्रहण कर ली और फिर इस भौतिक जगत का भोग किया जैसी कि उसकी इच्छा थी।

46 तत्पश्चात राजा ययाति सात द्वीपों वाले विश्व का शासक बन गया और प्रजा पर पिता के समान शासन करने लगा। चूँकि उसने अपने पुत्र की जवानी ले ली थी अतएव उसकी इन्द्रियाँ अक्षत थीं और उसने जी भरकर भौतिक सुख का भोग किया।

47 महाराज ययाति की प्रिय पत्नी देवयानी अपने मन, वचन, शरीर तथा विविध सामग्री से सदैव एकान्त में अपने पति को यथासम्भव दिव्य आनन्द प्रदान करती रही।

48 राजा ययाति ने विविध यज्ञ सम्पन्न किये और उनमें उन्होंने समस्त देवताओं के आलय एवं समस्त वैदिक ज्ञान के लक्ष्य भगवान हरि को तुष्ट करने के लिए ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणाएँ दीं।

49 भगवान वासुदेव, जिन्होंने विराट जगत की सृष्टि की है, अपने को सर्वव्यापक रूप में प्रकट करते हैं जिस तरह आकाश बादलों को धारण करता है। जब इस सृष्टि का संहार हो जाता है तब सारी वस्तुएँ भगवान विष्णु में प्रवेश पाती हैं और सारे भेद-प्रभेद समाप्त हो जाते हैं।

50 महाराज ययाति ने उन भगवान की निष्काम भाव से पूजा की जो हर एक के हृदय में नारायण रूप में स्थित हैं और सर्वत्र विद्यमान रहकर भी आँखों से अदृश्य रहते हैं।

51 यद्यपि महाराज ययाति सारे विश्व के राजा थे और उन्होंने एक हजार वर्षों तक अपने मन तथा पाँच इन्द्रियों को भौतिक सम्पदा को भोगने में लगाया, किन्तु वे संतुष्ट नहीं हो सके।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

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