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अध्याय ग्यारह -- भगवान रामचन्द्र का विश्व पर राज्य करना (9.11)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र ने एक आचार्य स्वीकार करके उत्तम साज समान के साथ बड़ी धूमधाम से यज्ञ सम्पन्न किये। इस तरह उन्होंने स्वयं ही अपनी पूजा की क्योंकि वे सभी देवताओं के परमेश्वर हैं।

2 भगवान रामचन्द्र ने होता पुरोहित को सम्पूर्ण पूर्व दिशा, ब्रह्मा पुरोहित को सम्पूर्ण दक्षिण दिशा, अर्ध्वर्यू पुरोहित को पश्चिम दिशा और सामवेद के गायक उदगाता पुरोहित को उत्तरदिशा दे दी। इस प्रकर उन्होंने अपना सारा साम्राज्य दान कर दिया।

3 तत्पश्चात यह सोचकर कि ब्राह्मण लोग निष्काम होते हैं अतएव उन्हें ही सारे जगत का स्वामी होना चाहिए, भगवान रामचन्द्र ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण के बीच की भूमि आचार्य को दे दी।

4 ब्राह्मणों को सर्वस्व दान देने के बाद भगवान रामचन्द्र के पास केवल उनके निजी वस्त्र तथा आभूषण बचे रहे और इसी तरह रानी सीतादेवी के पास उनकी नथुनी के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहा।

5 यज्ञकार्य में संलग्न सारे ब्राह्मण भगवान रामचन्द्र से अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि वे ब्राह्मणों के प्रति अत्यन्त वत्सल एवं अनुकूल थे। अतः उन्होंने द्रवित होकर दान में प्राप्त सारी सम्पत्ति उन्हें लौटा दी और इस प्रकार बोले।

6 हे प्रभु, आप सारे विश्व के स्वामी हैं। आपने हमें क्या नहीं दिया है? आपने हमारे हृदयों में प्रवेश करके अपने तेज से हमारे अज्ञान के अंधकार को दूर किया है। यही सर्वोत्कृष्ट उपहार है। हमें भौतिक दान की आवश्यकता नहीं है।

7 हे प्रभु, आप भगवान हैं और आपने ब्राह्मणों को अपना आराध्य देव स्वीकार किया है। आपका ज्ञान तथा स्मृति उद्विग्नता से कभी विचलित नहीं होते। आप इस संसार के सभी विख्यात पुरुषों में प्रधान हैं और आपके चरणों की पूजा मुनियों द्वारा की जाती है जो दण्ड के क्षेत्र से परे हैं। हे भगवान रामचन्द्र, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।

8 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: एक बार जब भगवान रामचन्द्र रात्रि में किसी को बताए बिना वेश बदलकर छिपकर अपने विषय में लोगों का अभिमत जानने के लिए घूम रहे थे तो उन्होंने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी सीतादेवी के विषय में अनुचित बातें कहते सुना।

9 (वह व्यक्ति अपनी कुलटा पत्नी से कह रहा था) तुम दूसरे व्यक्ति के घर जाती हो, अतएव तुम कुलटा तथा दूषित हो। अब मैं और अधिक तुम्हारा भार नहीं वहन कर सकता। भले रामचन्द्र जैसा पति सीता जैसी पत्नी को स्वीकार कर ले मैं उनकी तरह नहीं हूँ, अतएव मैं तुम्हें फिर से नहीं रख सकता।

10 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अल्पज्ञ तथा घृणित चरित्र वाले व्यक्ति अंटशंट बकते रहते हैं। ऐसे धूर्तों के भय से भगवान रामचन्द्रजी ने अपनी पत्नी सीतादेवी का परित्याग किया यद्यपि वे गर्भिणी थीं। इस तरह सीतादेवी वाल्मीकि मुनि के आश्रम में गई।

11 समय आने पर गर्भवती सीतादेवी ने जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया जो बाद में लव तथा कुश नाम से विख्यात हुए। उनका जातकर्म संस्कार वाल्मीकि मुनि द्वारा सम्पन्न हुआ।

12 हे महाराज परीक्षित, लक्ष्मणजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम अंगद और चित्रकेतु थे और भरतजी के भी दो पुत्र हुए जिनके नाम तक्ष तथा पुष्कल थे।

13-14 शत्रुध्न के सुबाहु तथा श्रुतसेन नाम के दो पुत्र हुए। जब भरत सभी दिशाओं को जीतने गए तो उन्हें करोड़ों गन्धर्वों का वध करना पड़ा जो सामान्यतया कपटी होते हैं। उन्होंने उनकी सारी सम्पत्ति छीन ली और उसे लाकर भगवान रामचन्द्र को अर्पित कर दिया। शत्रुध्न ने भी लवण नामक एक राक्षस का वध किया जो मधु राक्षस का पुत्र था। इस तरह उन्होंने मधुवान नामक महान जंगल में मथुरा नामक पुरी की स्थापना की।

15 अपने पति द्वारा परित्यक्ता सीतादेवी ने अपने दोनों पुत्रों को वाल्मीकि मुनि की देखरेख में छोड़ दिया। तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वी के भीतर समा गई।

16 सीतादेवी के पृथ्वी में प्रविष्ट होने का समाचार सुनकर भगवान रामचन्द्र निश्चित रूप से दुखी हुए। यद्यपि वे भगवान हैं, किन्तु सीतादेवी के महान गुणों का स्मरण करके वे दिव्य प्रेमवश अपने शोक को रोक न सके।

17 स्त्री तथा पुरुष अथवा नर और मादा के मध्य आकर्षण हर जगह और हर समय पाया जाता है जिससे हर व्यक्ति सदा भयभीत रहता है। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिवजी जैसे नियन्ताओं में भी ऐसी भावनाएँ पाई जाती हैं और उनके लिए भी ये भय के कारण हैं। तो फिर उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो इस भौतिक जगत में गृहस्थ-जीवन के प्रति आसक्त हैं?

18 सीता द्वारा पृथ्वी में प्रवेश करने के बाद भगवान रामचन्द्र ने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया और तेरह हजार वर्षों तक वे अनवरत अग्निहोत्र यज्ञ करते रहे।

19 यज्ञ पूरा कर लेने के बाद दण्डकारण्य में रहते हुए भगवान रामचन्द्र के जिन चरणकमलों में कभी-कभी काँटे चुभ जाते थे उन चरणकमलों को उन्होंने उन लोगों के हृदयों में रख दिया जो उनका निरन्तर चिन्तन करते हैं। तत्पश्चात वे ब्रह्मज्योति से परे अपने धाम वैकुण्ठलोक में प्रविष्ट हुए।

20 विभिन्न लीलाओं में सदैव संलग्न दिव्य देहधारी भगवान रामचन्द्र का वास्तविक यश इसमें नहीं है कि उन्होंने देवताओं के आग्रह पर बाणों की वर्षा करके रावण का वध किया और समुद्र पर सेतु का निर्माण किया। न तो कोई भगवान रामचन्द्र के तुल्य है न उनसे बढ़कर, अतएव उन्हें रावण पर विजय प्राप्त करने में वानरों से कोई सहायता लेने की आवश्यकता नहीं थी।

21 भगवान रामचन्द्र का निर्मल नाम तथा यश सारे पापों के फलों को नष्ट करने वाला है। सारी दिशाओं में वह उसी तरह विख्यात है जिस तरह समस्त दिशाओं पर विजय पाने वाले हाथी पर अलंकृत झूल हो। मार्कण्डेय ऋषि जैसे महान साधु पुरुष अब भी महाराज युधिष्ठिर जैसे सम्राटों की सभाओं में उनके गुणों का गान करते हैं। इसी तरह सारे ऋषि तथा देवता, जिनमें शिवजी तथा ब्रह्माजी भी सम्मिलित हैं, अपने-अपने मुकुटों को झुकाकर भगवान की पूजा करते हैं। मैं उन भगवान के चरणकमलों में, नमस्कार करता हूँ।

22 भगवान रामचन्द्र अपने धाम को लौट आए जहाँ भक्तियोगी जाते हैं। यही वह स्थान है जहाँ अयोध्या के सारे निवासी भगवान को उनकी प्रकट लीलाओं में नमस्कार करके, उनके चरणकमलों का स्पर्श करके, उन्हें पितृतुल्य राजा मानकर, उनकी बराबरी में बैठकर या लेटकर या मात्र उनके साथ रहकर, उनकी सेवा करने के बाद वापस गये।

23 हे राजा परीक्षित, जो भी व्यक्ति भगवान रामचन्द्र के गुणों से सम्बन्धित कथाओं को कानों सुनता है वह अन्ततोगत्वा ईर्ष्या के रोग से मुक्त हो जायेगा और फलस्वरूप कर्मबन्धन से छूट जायेगा।

24 महाराज परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा: भगवान ने स्वयं किस तरह का बर्ताव किया और अपने विस्तार (अंश) स्वरूप अपने भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया? और उनके भाइयों ने तथा अयोध्यावासियों ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया?

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया: अपने छोटे भाई भरत के आग्रह पर राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद भगवान रामचन्द्र ने अपने छोटे भाइयों को आदेश दिया कि वे बाहर जाकर सारे विश्व को जीतें जबकि वे स्वयं राजधानी में रहकर सारे नागरिकों तथा प्रासाद के वासियों को दर्शन देते रहे तथा अपने अन्य सहायकों के साथ राजकाज की निगरानी करते रहे।

26 भगवान रामचन्द्र के शासन काल में अयोध्या की सड़कें सुगन्धित जल से तथा हाथियों द्वारा अपनी सूँडों से छिड़के गये सुगन्धित द्रव की बूँदों से सींची जाती थीं।

27 जब नागरिकों ने देखा कि भगवान स्वयं ही इतने वैभव के साथ शहर के मामलों की देखरेख कर रहे हैं तो उन्होंने इस वैभव की भूरी-भूरी प्रशंसा की। सारे महल, महलों के द्वार, सभाभवन, चबूतरे, मन्दिर तथा अन्य ऐसे स्थान सुनहरे कलशों से सजाये और विभिन्न प्रकार की झण्डियों से अलंकृत किये जाते थे।

28 जहाँ कहीं भगवान रामचन्द्र जाते, वहीं केले के वृक्षों तथा फल-फूलों से युक्त सुपारी के वृक्षों से स्वागत-द्वार बनाये जाते थे। इन द्वारों को रंगबिरंगे वस्त्र से बनी पताकाओं, बन्दनवारों, दर्पणों तथा मालाओं से सजाया जाता था।

29 भगवान रामचन्द्र जहाँ कहीं भी जाते, लोग पूजा की सामग्री लेकर उनके पास पहुँचते और उनके आशीर्वाद की याचना करते। वे कहते, “हे प्रभु, जिस प्रकार आपने अपने वराह अवतार में समुद्र के नीचे से पृथ्वी का उद्धार किया, उसी तरह अब आप उसका पालन करें। हम आपसे यही आशीष माँगते हैं।“

30 तत्पश्चात दीर्घकाल से भगवान का दर्शन न किये रहने से, नर तथा नारी उन्हें देखने के लिए अत्यधिक उत्सुक होकर अपने-अपने घरों को त्यागकर महलों की छतों पर चढ़ गये। कमलनयन भगवान रामचन्द्र के मुखमण्डल का दर्शन करके न अघाने के कारण वे उन पर फूलों की वर्षा करने लगे।

31-34 तत्पश्चात भगवान रामचन्द्र अपने पूर्वजों के महल में गये। इस महल के भीतर विविध खजाने तथा मूल्यवान परिधान-भण्डार थीं। प्रवेश द्वार के दोनों ओर की बैठकें मूँगे से बनी थीं, आँगन वैदूर्यमणि के खम्भों से घिरा था, फर्श अत्यधिक पालिश की हुई मरकतमणि से बनी थीं और नींव संगरमरमर की बनी थी। सारा महल झण्डियों तथा मालाओं से सजाया गया था एवं मूल्यवान, चमचमाते मणियों से अलंकृत किया गया था। महल पूरी तरह मोतियों से सजाया गया था और धूप-दीप से घिरा था। महल के भीतर के स्त्री-पुरुष देवताओं के समान थे और वे विविध आभूषणों से अलंकृत थे। ये आभूषण उनके शरीर में पहने रहने के कारण सुन्दर लग रहे थे।

35 श्रेष्ठ विद्वान पण्डितों में अग्रणी भगवान रामचन्द्र ने उस महल में अपनी आह्लादिनी शक्ति सीतादेवी के साथ निवास किया और पूर्ण शान्ति का भोग किया।

36 धर्म के सिद्धान्तों का उल्लंघन किये बिना उन रामचन्द्र ने जिनके चरणकमलों की पूजा भक्तगण ध्यान में करते हैं, जब तक चाहा, दिव्य आनन्द की सारी सामग्री का भोग किया।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

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