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श्री गुरु गौरांग जयतः

ॐ श्री गणेशाय नमः 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायणम नमस्कृत्यम नरं चैव नरोत्तमम

देवी सरस्वती व्यासं ततो जयम उदिरयेत

चित्रकेतु द्वारा स्तुति

श्रीमद भागवतम षष्ठ स्कन्ध अध्याय सोलह

31 परमेश्र्वर का दर्शन पाते ही महाराज चित्रकेतु के समस्त भौतिक कल्मष धूल गये और वे पूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण अपनी मूल कृष्णचेतना (भक्ति) में स्थित हो गये। वे पूर्णतः पवित्र हो जाने के कारण शांत एवं गंभीर हो गये, ईश्र्वर के प्रेमवश उनकी आँखों से अश्रु झरने लगे और अंत में उन्हें रोमांच हो आया। उन्होंने अत्यंत भक्ति तथा प्रेमपूर्वक आदि भगवान को सादर नमस्कार किया।

32 चित्रकेतु के प्रेमाश्रुओं से भगवान के चरणकमल का आसन (चौकी) बार-बार भीग जाता था। आल्हाद के कारण वाणी अवरुद्ध हो जाने से वे लंबे अंतराल तक भगवान की उचित स्तुति में एक भी शब्द का उच्चारण न कर पाये।

33 तत्पश्र्चात अपनी बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके और अपनी इंद्रियों को बाह्य विषयों से समेट कर वे अपनी भावनाओ को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द ढूंढ सके। इस प्रकार वे उन भगवान की स्तुति करने लगे जो साक्षात शास्त्रों (ब्रह्म-संहिता तथा नारद-पंचरात्र जैसी सात्वत संहिताओं) के स्वरूप हैं एवं सबों के गुरु हैं। उन्होंने निमन्वत स्तुति की।

34 चित्रकेतु ने कहा---हे अजेय भगवान! यद्यपि आपको कोई जीत नहीं सकता, किन्तु उन भक्तों के द्वारा अवश्य जीत लिए जाते हैं जिनका अपने मन तथा इंद्रियों पर संयम है। वे आपको इसलिए वश में रख पाते हैं क्योंकि आप उन भक्तों पर अकारण दयालु हैं, जो आपसे किसी प्रकार के लाभ की कामना नहीं करते। निस्संदेह, आप उन्हें अपने आपको प्रदान कर देते हैं; इसीलिए अपने भक्तों पर आपका भी पूरा नियंत्रण रहता है।

35 हे ईश्र्वर! यह दृश्य जगत तथा इसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार--ये सभी आपके ऐश्वर्य हैं। चूँकि ब्रह्मा तथा अन्य कर्ता (निर्माता) आपके अंश के भी क्षुद्र अंश हैं, अतः सृष्टि करने की उनकी आंशिक शक्ति उन्हें ईश्र्वर नहीं बना सकती। तो भी अपने को पृथक ईश्र्वर मान बैठने की चेतना उनके अहंकार मात्र की द्योतक है। यह वैध नहीं है।

36 आप इस दृश्य जगत के नन्हें से नन्हें कण-परमाणु से लेकर विराट ब्रह्मांडों तथा समस्त भौतिक शक्ति तक की प्रत्येक वस्तु के आदि, मध्य तथा अंत में विद्यमान हैं। फिर भी आप नित्य हैं, जिसका न कोई आदि है, न अंत या मध्य। आप इन तीनों स्थितियों में विद्यमान देखे जाते हैं। इस तरह आप अटल हैं। जब इस दृश्य जगत का अस्तित्व नहीं रहता तो आप आदि शक्ति के रूप में विद्यमान रहते हैं।

37 प्रत्येक ब्रह्मांड सात आवरणों--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सकल भौतिक शक्ति तथा अहंकार--से घिरा है जिनमें से प्रत्येक अपने से पहले वाले से दस गुना बड़ा है। इस ब्रह्मांड के अतिरिक्त भी असंख्य ब्रह्मांड हैं, जो असीम और विशाल हैं और आपमें स्थित परमाणुओं की भाँति चक्कर लगाते रहते हैं। इसलिए आप अनंत कहलाते हैं।

38 हे भगवन, हे परमेश्र्वर ! इंद्रियतृप्ति के भूखे तथा विभिन्न देवताओं की उपासना करने वाले अज्ञानी पुरुष नर-वेश में पशुओं के समान हैं। वे पाशविक वृत्ति के कारण आपकी उपासना न करके नगण्य देवताओं को, जो आपके यश की लघु चिनगारी के समान हैं, पूजते हैं। समस्त ब्रह्मांड के संहार के साथ ये देवता तथा इनसे प्राप्त आशीर्वाद उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार राजा की सत्ता छिन जाने पर राजकीय अधिकारी।

39 हे परमेश्र्वर ! यदि ऐश्वर्य द्वारा इंद्रियतृप्ति पाने के इच्छुक व्यक्ति भी समस्त ज्ञान के स्रोत तथा भौतिक गुणों से परे आपकी उपासना करते हैं, तो उनका पुनर्जन्म नहीं होता जिस प्रकार भुने बीज से पौधे नहीं उत्पन्न होते। जीवात्माओं को जन्म तथा मृत्यु का चक्र भोगना पड़ता है क्योंकि वे भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध हैं परंतु आप दिव्य हैं, अतः जो आपसे संगति करता है, वह भौतिक प्रकृति के बंधन से छूट जाता है।

40 हे अजित! जब आपने भागवत-धर्म कह सुनाया जो आपके चरणकमलों में शरण लेने के लिए अकलुषित धार्मिक प्रणाली थी, तो वह आपकी विजय थी। आत्मतुष्ट (आत्माराम) चतुःसन के समान निष्काम व्यक्ति, भौतिक कल्मष से मुक्त होने के लिए आपकी उपासना करते हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वे आपके चरणारविन्द की शरण प्राप्त करने के लिए भागवतधर्म को ग्रहण करते हैं।

41 भागवतधर्म को छोड़कर शेष सभी धर्म पारंपरिक विरोधाभासों से पूर्ण हैं और कर्मफल की सकाम विचारधारा और 'तू और मैं' तथा 'तेरा और मेरा' जैसे भेदभावों से पूर्ण हैं। श्रीमदभागवत के अनुयायियों में ऐसी चेतना नहीं रहती। वे कृष्णभावनामृत से पूरित रहते हैं और अपने को श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण को अपना मानते हैं। कुछ निम्नकोटि की भी धार्मिक पद्धतियाँ हैं, जो शत्रुओं को मारने या योगशक्ति प्राप्त करने के लिए निर्मित हैं, किन्तु ये काम तथा द्वेष से पूर्ण होने के कारण अशुद्ध एवं नाशवान हैं। द्वेषपूर्ण होने से वे अधर्म से पूर्ण हैं।

42 ऐसा धर्म जिससे अपने तथा परायों में द्वेष उत्पन्न होता है किस प्रकार लाभप्रद हो सकता है? ऐसे धर्म का पालन करने से कौन सा कल्याण हो सकता है? इससे आखिर क्या मिलेगा? आत्म द्वेष के द्वारा अपने आपको तथा अन्यों को कष्ट पहुँचा कर मनुष्य आपके (भगवान के) क्रोध का भाजन होता है और अधर्म करता है।

43 हे भगवन! जीवन के महाउद्देश्य से विचलित न होने वाले आपके दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य का वृत्तिपरक धर्म श्रीमदभागवत तथा भगवद्गीता में उपदिष्ट होना है। जो मनुष्य आपके आदेशानुसार इस धर्म का पालन करते हैं, जड़ तथा चेतन समस्त जीवात्माओं को समान मानते हैं और किसी को उच्च तथा निम्न नहीं मानते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। ऐसे आर्य आपकी अर्थात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की उपासना करते हैं।

44 हे भगवन! आपके दर्शनमात्र से किसी के लिए भी समस्त भौतिक कल्मषों से तुरंत मुक्त हो जाना असंभव नहीं है। आपको प्रत्यक्ष देखने की बात तो एक ओर रही; आपके पवित्र नाम को एक बार सुन लेने से ही चांडाल तक समस्त भौतिक कल्मष से विमुक्त हो जाते हैं। ऐसी दशा में आपके दर्शनमात्र से ऐसा कौन है, जो भौतिक कल्मष से मुक्त नहीं हो पायेगा?

45 अतः हे भगवन! आपके दर्शन मात्र से मेरे समस्त पापकर्मों के कल्मष एवं भौतिक आसक्ति तथा कामासक्त विषयों के फल, जिनसे मेरा मन तथा अंतःस्थल पूरित था, सदा-सर्वदा के लिए धो दिये हैं। जो कुछ नारद मुनि ने भविष्यवाणी की है, वह अन्यथा नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, नारद मुनि के द्वारा शिक्षित किए जाने के कारण ही मुझे आपका सान्निध्य प्राप्त हो सका है।

46 हे अनंत भगवान! इस भौतिक जगत में जीवात्मा जो भी करता है, वह आपको भली-भाँति विदित रहता है क्योंकि आप परमात्मा हैं। सूर्य की उपस्थिति में जुगनुओं के प्रकाश से कुछ भी उद्दीप्त नहीं होता? इसी प्रकार, चूँकि आप सब कुछ जानने वाले हैं, अतः आपकी उपस्थिति में मेरे बताने के लिए कुछ भी नहीं है।

47 हे भगवान ! आप ही इस दृश्य जगत के सृष्टा, पालक तथा संहारक हैं, किन्तु घोर संसारी तथा भेदवादी जनों के पास वे नेत्र ही नहीं होते जिनसे वे आपको देख सकें। वे आपकी वास्तविक स्थिति को न समझ पाने के कारण इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि यह दृश्य जगत आपके ऐश्वर्य से स्वतंत्र है। हे भगवान! आप परम विशुद्ध हैं और सभी छहों ऐश्वर्यों से ओतप्रोत हैं। अतः मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

48 हे भगवान! आपकी चेष्टा से ही भगवान ब्रह्मा, इन्द्र तथा दृश्य जगत के अन्य अधीक्षक अपने अपने कार्यों में निरत हो जाते हैं। हे ईश्वर! आपके द्वारा भौतिक शक्ति को देखे जाने पर ही इंद्रियाँ देख पाती हैं। अनंत भगवान समस्त ब्रह्मांडों को अपने सर पर सरसों के बीजों के समान धारण किये रहते हैं। हे सहस्र-फण वाले परम पुरुष ! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।

समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान

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