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अध्याय छह - प्रह्लाद द्वारा अपने असुर सहपाठियों को उपदेश (7.6)

1 प्रह्लाद महाराज ने कहा: पर्याप्त रूप से बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के प्रारम्भ अर्थात बाल्यकाल से ही अन्य सारे कार्यों को छोड़कर भक्ति कार्यों के अभ्यास में इस मानव शरीर का उपयोग करे। यह मनुष्य-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है और अन्य शरीरों की भाँति नाशवान होते हुए भी अर्थपूर्ण है, क्योंकि मनुष्य जीवन में भक्ति सम्पन्न की जा सकती है। यदि निष्ठापूर्वक किंचित भी भक्ति की जाये तो पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सकती है।

2 यह मनुष्य-जीवन भगवदधाम जाने का अवसर प्रदान करता है, अतएव प्रत्येक जीव को विशेष रूप से उसे, जिसे मनुष्य जीवन मिला है, भगवान विष्णु के चरणकमलों की भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए। यह भक्ति स्वाभाविक है क्योंकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु सर्वाधिक प्रिय, आत्मा के स्वामी तथा अन्य सभी जीवों के शुभचिन्तक हैं।

3 प्रह्लाद महाराज ने कहा: हे दैत्य कुल में उत्पन्न मेरे मित्रों, शरीर के सम्पर्क से इन्द्रियविषयों से जो सुख अनुभव किया जाता है, वह तो किसी भी योनि में अपने विगत सकाम कर्मों के अनुसार प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा सुख बिना प्रयास के उसी तरह स्वतः प्राप्त होता है, जिस प्रकार हमें दुख प्राप्त होता है।

4 केवल इन्द्रिय-तृप्ति या भौतिक सुख के लिए आर्थिक विकास द्वारा प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे समय तथा शक्ति की हानि होती है और वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता। यदि कोई कृष्णभावनामृत को लक्ष्य बनाकर प्रयत्न करे तो वह निश्चित रूप से आत्म-साक्षात्कार के आध्यात्मिक पद को प्राप्त कर सकता है। आर्थिक विकास में अपने आपको संलग्न रखने से ऐसा कोई लाभ प्राप्त नहीं होता ।

5 अतएव इस संसार में रहते हुए (भवम आश्रितः) भले तथा बुरे में भेद करने में सक्षम व्यक्ति को चाहिए कि जब तक शरीर हष्ट-पुष्ट रहे और जर्जर हो जाने से चिन्ताग्रस्त न हो तब तक वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करे।

6 प्रत्येक व्यक्ति की अधिकतम आयु एक सौ वर्ष है, किन्तु जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, उसकी आयु के आधे वर्ष तो रात्रि में बारह घण्टे अज्ञान में सोते हुए बीत जाते हैं। अतएव ऐसे व्यक्ति की आयु केवल पचास वर्ष ही रह जाती है।

7 मनुष्य अपने बाल्यकाल की सुकोमल अवस्था में, जब सभी मोहग्रस्त होते हैं, दस वर्ष बिता देता है। इसी प्रकार किशोर अवस्था में वह अगले दस वर्ष, खेल-कूद में लगकर बिता देता है। इस प्रकार से बीस वर्ष व्यर्थ चले जाते हैं। इसी तरह से वृद्धावस्था में जब मनुष्य अक्षम हो जाता है और वह भौतिक कार्यकलाप भी सम्पन्न नहीं कर पाता, उसमें उसके बीस वर्ष और निकल जाते हैं।

8 जिनके मन तथा इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं वह अतृप्त कामेच्छाओं तथा प्रबल मोह के कारण पारिवारिक जीवन में अधिकाधिक आसक्त होता जाता है। ऐसे पागल मनुष्य के जीवन के शेष वर्ष भी व्यर्थ जाते हैं, क्योंकि वह इन वर्षों में भी अपने को भक्ति में नहीं लगा पाता।

9 ऐसा कौन मनुष्य होगा जो अपनी इन्द्रियों को वश में करने में असमर्थ होने के कारण गृहस्थ जीवन से अत्यधिक आसक्त रहकर अपने आपको मुक्त कर सके? आसक्त गृहस्थ (पत्नी, बच्चे तथा अन्य सम्बन्धी) के स्नेह-बन्धन से अत्यन्त दृढ़ता के साथ बँधा रहता है।

10 धन इतना प्रिय होता है कि लोग इसे मधु से मीठा मानने लगते हैं, अतएव ऐसा कौन होगा जो धन संग्रह करने की तृष्णा का परित्याग कर सकता है और वह भी गृहस्थ जीवन में? चोर, व्यावसायिक नौकर (सैनिक) तथा व्यापारी अपने प्रिय प्राणों की बाजी लगाकर भी धन प्राप्त करना चाहते हैं।

11-13 भला ऐसा मनुष्य, जो अपने परिवार के प्रति अत्यधिक स्नेहिल हो और जिसके हृदय में सदैव उनकी आकृतियाँ रहती हों, वह किस तरह उनका संग छोड़ सकता है? विशेषकर पत्नी सदैव अत्यन्त दयालु तथा सहानुभूति पूर्ण होती है और अपने पति को सदैव एकान्त में प्रसन्न करती है। भला ऐसा कौन होगा जो ऐसी प्रिय तथा स्नेहिल पत्नी की संगति का त्याग करता हो? छोटे-छोटे बालक तोतली बोली बोलते हैं, जो सुनने में अत्यन्त मधुर लगती है और उनके पिता सदैव उनके मधुर शब्दों के विषय में सोचते रहते हैं। वह भला उनका संग किस तरह छोड़ सकता है? किसी भी मनुष्य को अपने वृद्ध माता-पिता, अपने पुत्र तथा पुत्रियाँ भी अत्यन्त प्रिय होते हैं। पुत्री अपने पिता की अत्यन्त लाड़ली होती है और अपनी ससुराल में रहती हुई भी वह उसके मन में बसी रहती है। भला कौन है, जो इस संग को छोड़ेगा? इसके अतिरिक्त भी घर में अनेक अलंकृत साज-सामान होते हैं और अनेक पशु तथा नौकर भी रहते हैं। भला ऐसे आराम को कौन छोड़ना चाहता है? आसक्त गृहस्थ उस रेशम-कीट की तरह है, जो अपने चारों ओर धागा बुनकर अपने को बन्दी बना लेता है और फिर उससे निकल पाने में असमर्थ रहता है। केवल दो इन्द्रियों--जनेन्द्रिय तथा जिह्वा की तुष्टि के लिए मनुष्य भौतिक दशाओं से बँध जाता है। कोई इनसे कैसे बच सकता है?

14 अत्यधिक आसक्त मनुष्य यह नहीं समझ सकता कि वह अपना बहुमूल्य जीवन अपने परिवार के ही पालन-पोषण में व्यर्थ बिता रहा है। वह यह भी नहीं समझ पाता कि इस मनुष्य-जीवन का, जो परम सत्य के साक्षात्कार के लिए उपयुक्त है, उद्देश्य अनजाने ही विनष्ट हुआ जा रहा है। फिर भी वह इतनी चतुरता एवं सावधानी से देखता रहता है कि दुर्व्यवस्था के कारण एक भी दमड़ी न खोई जाए। इस प्रकार यद्यपि संसार में आसक्त व्यक्ति सदैव तीनों प्रकार के कष्ट सहता रहता है, किन्तु वह इस संसार के प्रति अरुचि उत्पन्न नहीं कर पाता।

15 यदि कोई मनुष्य पारिवारिक भरण-पोषण के कर्तव्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने के कारण अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता और उसका मन सदैव इसी में डूबा रहता है कि धन का संग्रह कैसे करे। यद्यपि वह जानता रहता है कि जो अन्यों का धन लेता है उसे राजकीय नियमों और मृत्यु के बाद यमराज के नियमों द्वारा दण्डित होना पड़ेगा। तो भी वह धन अर्जित करने के लिए दूसरों को धोखा देता रहता है।

16 हे मित्रों, हे असुरपुत्रों, इस भौतिक जगत में शिक्षा में अग्रणी लगने वाले व्यक्तियों में भी यह विचार करने की प्रवृत्ति होती है "यह मेरा है और यह पराया है।" इस प्रकार वे सीमित पारिवारिक जीवन की धारणा में अपने परिवारों को जीवन की आवश्यकताएँ प्रदान करने में लगे रहते हैं मानो अशिक्षित कुत्ते-बिल्ली हों। वे आध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकते; प्रत्युत वे मोहग्रस्त तथा अज्ञान से पराभूत हैं ।

17 हे मित्रों, हे दैत्य पुत्रों, यह निश्चित है कि भगवान के ज्ञान से विहीन कोई भी अपने को किसी काल या किसी देश में मुक्त करने में समर्थ नहीं रहा है। उल्टे, ऐसे ज्ञान-विहीन लोग भौतिक नियमों से बँध जाते हैं। वे वास्तव में इन्द्रियविषय में लिप्त रहते हैं और उनका लक्ष्य स्त्रियाँ होती हैं। निस्सन्देह, ऐसे लोग आकर्षक स्त्रियों के हाथ के खिलौने बने रहते हैं। ऐसी जीवन-धारणाओं के शिकार बनकर वे बच्चों, नातियों तथा पनातियों से घिरे रहते हैं और इस तरह वे भव-बन्धन की जंजीरों से जकड़े जाते हैं।

18 जो लोग ऐसी जीवन-धारणा में बुरी तरह लिप्त रहते हैं, वे दैत्य कहलाते हैं। इसलिए यद्यपि तुम सभी दैत्यों के पुत्र हो, किन्तु ऐसे व्यक्तियों से दूर रहो और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण की शरण ग्रहण करो जो समस्त देवताओं के उद्गम हैं, क्योंकि नारायण-भक्तों का चरम लक्ष्य भव-बन्धन से मुक्ति पाना है।

19 हे दैत्यपुत्रों, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही समस्त जीवों के पिता और आदि परमात्मा हैं। फलस्वरूप उन्हें प्रसन्न करने में या किसी भी दशा में उनकी पूजा करने में बच्चे या वृद्ध को कोई अवरोध नहीं होता। जीव तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का अन्तःसम्बन्ध एक तथ्य है अतएव भगवान को प्रसन्न करने में कोई कठिनाई नहीं है।

20-23 परम नियन्ता पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान जो अच्युत तथा अजेय हैं जीवन के विभिन्न रूपों में यथा पौधे जैसे स्थावर जीवों से लेकर प्रथम सृजित प्राणी ब्रह्मा तक में उपस्थित हैं। वे अनेक प्रकार की भौतिक सृष्टियों में भी उपस्थित हैं तथा सारे भौतिक तत्त्वों, सम्पूर्ण भौतिक शक्ति एवं प्रकृति के तीनों गुणों (सतो, रजो तथा तमो गुण) के साथ-साथ अव्यक्त प्रकृति एवं मिथ्या अहंकार में भी उपस्थित हैं। एक होकर भी वे सर्वत्र उपस्थित रहते है। वे समस्त कारणों के कारण दिव्य परमात्मा भी हैं, जो सारे जीवों के अन्तस्थल में प्रेक्षक के रूप में उपस्थित हैं। उन्हें व्याप्य तथा सर्वव्यापक परमात्मा के रूप में इंगित किया गया है, लेकिन वास्तव में उनको इंगित नहीं किया जा सकता। वे अपरिवर्तित तथा अविभाज्य हैं। वे परम सच्चिदानन्द के रूप में अनुभव किये जाते हैं। माया के आवरण से ढके होने के कारण नास्तिक को वे अविद्यमान प्रतीत होते हैं।

24 अतएव हे असुरों से उत्पन्न मेरे प्यारे तरुण मित्रों, तुम सब ऐसा करो कि वे परम भगवान, जो भौतिक ज्ञान की धारणा से परे हैं, वे तुम पर प्रसन्न हों। तुम अपना आसुरी स्वभाव त्याग दो और शत्रुता या द्वैत-रहित होकर कर्म करो। सभी जीवों में भक्ति जगाकर उन पर दया प्रदर्शित करो और इस प्रकार उनके हितैषी बनो।

25 जिन भक्तों ने समस्त कारणों के कारण, समस्त वस्तुओं के आदि स्रोत पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को प्रसन्न कर लिया है उनके लिए कुछ भी अलभ्य नहीं है। भगवान असीम आध्यात्मिक गुणों के आगार हैं। अतएव उन भक्तों के लिए जो प्रकृति के गुणों से परे हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के सिद्धान्तों का पालन करने से क्या लाभ, क्योंकि ये तो प्रकृति के गुणों के प्रभावों के अन्तर्गत स्वतः प्राप्य हैं। हम भक्तगण सदैव भगवान के चरणकमलों का यशोगान करते हैं अतएव हमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की याचना नहीं करनी चाहिए।

26 धर्म, अर्थ तथा काम--इन तीनों को वेदों में त्रिवर्ग अर्थात मोक्ष के तीन साधन कहा गया है। इन तीन वर्गों के अन्तर्गत ही शिक्षा तथा आत्म-साक्षात्कार, वैदिक आदेशानुसार सम्पन्न कर्मकाण्ड, विधि तथा व्यवस्था विज्ञान एवं जीविका अर्जित करने के विविध साधन आते हैं। ये तो वेदों के अध्ययन के बाह्य विषय हैं अतएव मैं उन्हें भौतिक मानता हूँ। किन्तु मैं भगवान विष्णु के चरणकमलों में समर्पण को दिव्य मानता हूँ।

27 समस्त जीवों के शुभचिन्तक एवं मित्र पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान नारायण ने यह दिव्य ज्ञान पहले परम सन्त नारद को दिया। ऐसा ज्ञान नारद जैसे सन्त पुरुष की कृपा के बिना समझ पाना कठिन है, किन्तु जिसने भी नारद की शिष्य-परम्परा की शरण ले रखी है, वह इस गुह्य ज्ञान को समझ सकता है।

28 प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: मैंने यह ज्ञान भक्ति में सदैव तल्लीन रहने वाले परम सन्त नारद से प्राप्त किया है। यह ज्ञान भागवत धर्म कहलाता है, जो अत्यन्त वैज्ञानिक है। यह तर्क तथा दर्शन पर आधारित है और समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त है।

29-30 दैत्य पुत्रों ने उत्तर दिया: हे प्रह्लाद, न तो तुम और न ही हम शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के अतिरिक्त अन्य किसी अध्यापक या गुरु को जानते हैं। अन्ततः हम बच्चे हैं और वे हमारे नियंत्रक हैं। तुम जैसे सदैव महल के भीतर रहने वाले के लिए ऐसे महापुरुष की संगति कर पाना अत्यन्त कठिन है। हे परम भद्र मित्र, क्या तुम यह बतलाओगे कि तुम्हारे लिए नारद से सुन पाना कैसे सम्भव हो सका? इस सम्बन्ध में हमारी शंका दूर करो।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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