10881751493?profile=RESIZE_584x

अध्याय चार – ब्रह्माण्ड में हिरण्यकशिपु का आतंक (7.4)

1 नारद मुनि ने कहा: ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु की दुष्कर तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न थे। अतएव जब उसने वरों की याचना की तो उन्होंने निस्सन्देह वे दुर्लभ वर प्रदान कर दिये।

2 ब्रह्माजी ने कहा: हे हिरण्यकशिपु, तुमने जो वर माँगे हैं, वे अधिकांश मनुष्यों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो पाते हैं। हे पुत्र, यद्यपि ये वर सामान्यतया उपलब्ध नहीं हो पाते, तथापि मैं तुम्हें प्रदान करूँगा।

3 तब अमोघ वर देने वाले ब्रह्माजी दैत्यों में श्रेष्ठ हिरण्यकशिपु द्वारा पूजित महर्षियों एवं साधु पुरुषों द्वारा प्रशंसित होकर वहाँ से प्रस्थान कर गये।

4 ब्रह्माजी से आशीष तथा कान्तियुक्त स्वर्णिम देह पाकर असुर हिरण्यकशिपु अपने भाई के वध का स्मरण करता हुआ, भगवान विष्णु का ईर्ष्यालु बना रहा।

5-7 हिरण्यकशिपु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विजेता बन गया। इस महान असुर ने तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा निम्न) को जीत लिया जिसमें मनुष्यों, गन्धर्वों, गरुड़ों, महासर्पों, चारणों, विद्याधरों, महामुनियों, यमराज, मनुष्यों, यक्षों, पिशाचों, भूत-प्रेतों तथा उनके स्वामियों के लोक सम्मिलित थे। उसने उन अन्य ग्रहों के शासकों को भी हरा दिया जहाँ जीव रहते थे और उन्हें अपने अधीन कर लिया। सबके निवासों को जीतकर उसने उनकी शक्ति तथा प्रभाव को छीन लिया।

8 समस्त ऐश्वर्य से युक्त हिरण्यकशिपु स्वर्ग के सुप्रसिद्ध नन्दन उद्यान में रहने लगा, जिसका भोग देवता करते हैं। वस्तुतः वह स्वर्ग के राजा इन्द्र के अत्यन्त ऐश्वर्यशाली महल में रहने लगा। इस महल को प्रत्यक्षतः देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने निर्मित किया था और इसे इतने सुन्दर ढंग से बनाया गया था मानो सम्पूर्ण विश्व की लक्ष्मी वहीं निवास कर रही हो।

9-12 राजा इन्द्र के आवास की सीढ़ियाँ मूँगे की थीं, फर्श अमूल्य पन्ने से जटित था, दीवालें स्फटिक की थीं और खम्भे वैदूर्य मणि के थे। उसके अद्भुत वितान (चँदोवे) सुन्दर ढंग से सजाये गये थे, आसन मणियों से जटित थे और झाग के सदृश श्वेत रेशमी बिछौने मोतियों से सजाये गये थे। महल की स्त्रियाँ जिनके सुन्दर दाँत तथा अद्भुत रमणीय मुख थे, वे महल में इधर-उधर विचर रही थीं, उनके घुँघुरुओं से मधुर झनकार निकल रही थी और वे रत्नों में अपने सुन्दर प्रतिबिम्ब देख रही थीं। अकारण ही दण्डित कर सताये गये देवताओं को हिरण्यकशिपु के चरणों पर सिर झुकाना पड़ता था। इस प्रकार से वह इन्द्र के आवास में रहते हुए सबों पर कठोरता से शासन कर रहा था।

13 हे राजन, हिरण्यकशिपु सदा ही तीक्ष्ण गन्ध वाली सुरा पिये रहता था, अतएव उसकी ताम्र जैसी (लाल) आँखें सदैव चढ़ी रहती थीं। उसने योग की महान तपस्या की थी और यद्यपि वह निन्दनीय था, किन्तु तीन देवताओं – ब्रह्मा, विष्णु, तथा शिव – के अतिरिक्त सारे देवता अपने-अपने हाथों में विविध भेंटें लेकर उसे प्रसन्न करने के लिए उसकी सेवा करते थे।

14 हे पाण्डु के वंशज महाराज युधिष्ठिर, हिरण्यकशिपु ने राजा इन्द्र के सिंहासन पर आसीन होकर अपने निजी बल से अन्य सारे ग्रहों के निवासियों को वश में किया। विश्वावसु तथा तुम्बुरु नामक दो गन्धर्व, मैं (नारद), विद्याधर, अप्सराएँ एवं साधुओं ने उसका यशोगान करने के लिए बारम्बार उसकी स्तुतियाँ की।

15 वर्णाश्रम धर्म का पालन करनेवाले पुरुष बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करके उसकी पूजा करते, तो वह यज्ञों की आहुतियाँ देवताओं को न देकर स्वयं ले लेता था।

16 ऐसा प्रतीत होता है मानों सात द्वीपों वाली पृथ्वी हिरण्यकशिपु के भय से, बिना जोते-बोये ही अन्न प्रदान करती थी। इस प्रकार यह वैकुण्ठ लोक की सुरभि या स्वर्गलोक की कामदूधा गायों के समान थी। पृथ्वी पर्याप्त अन्न प्रदान करती, गाएँ प्रचुर दूध देतीं तथा आकाश अनोखी घटनाओं से सुसज्जित रहता था।

17 ब्रह्माण्ड के विविध सागर अपनी पत्नी स्वरूप नदियों तथा उनकी सहायक नदियों की लहरों से हिरण्यकशिपु के उपयोग हेतु विविध प्रकार के रत्नों की आपूर्ति करते थे। ये सागर लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दुग्ध, दही तथा मीठे जल के थे।

18 पर्वतों के मध्य घाटियाँ हिरण्यकशिपु की क्रीड़ास्थली बन गई जिसके प्रभाव से समस्त पौधे सभी ऋतुओं में प्रचुर फूल तथा फल देने लगे। जल वृष्टि कराना, सुखाना तथा जलाना जो विश्व के तीन विभागाध्यक्षों अर्थात इन्द्र, वायु तथा अग्नि के गुण हैं, वे अब इन देवताओं की सहायता के बिना अकेले हिरण्यकशिपु द्वारा निर्देशित होने लगे।

19 समस्त दिशाओं को वश में करने की शक्ति प्राप्त करके तथा यथासम्भव सभी प्रकार की इन्द्रिय-तृप्ति का भोग करने के बावजूद हिरण्यकशिपु असंतुष्ट रहा, क्योंकि वह अपनी इन्द्रियों को वश में करने के बजाय उनका दास बना रहा।

20 इस प्रकार अपने ऐश्वर्य से अत्यधिक गर्वित एवं प्रामाणिक शास्त्रों के विधि-विधानों का उल्लंघन करते हुए हिरण्यकशिपु ने काफी समय बिताया। अतएव उसे चार कुमारों ने, जो कि प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे, शाप दे दिया।

21 हिरण्यकशिपु द्वारा दिये गये कठोर दण्ड से सबके सब, यहाँ तक कि विभिन्न लोकों के शासक भी, अत्यधिक त्रस्त थे। वे अत्यन्त भयभीत तथा उद्विग्न होकर और अन्य किसी का आश्रय न पा सकने के कारण अन्ततः पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की शरण में आये।

22-23 हम उस दिशा को सादर नमस्कार करते हैं जहाँ भगवान स्थित हैं, जहाँ संन्यास आश्रम में रहने वाले विशुद्ध आत्मा महान साधु पुरुष जाते हैं और जहाँ जाकर वे फिर कभी नहीं लौटते। बिना सोये, अपने मन को पूर्णतया वश में करके तथा केवल अपनी श्वास पर जीवित रहकर विभिन्न लोकपालों ने ऐसा ध्यान करके ह्रिषीकेश की पूजा करनी प्रारम्भ की।

24 तब उन सबों के समक्ष एक दिव्य वाणी प्रकट हुई जो भौतिक नेत्रों से अदृश्य पुरुष से निकली थी। यह वाणी मेघ की ध्वनि के समान गम्भीर, अत्यन्त प्रोत्साहन देने वाली तथा सभी प्रकार का भय भगाने वाली थी।

25-26 भगवान की वाणी इस प्रकार गुंजायमान हुई – हे परम श्रेष्ठ विद्वानों, डरो मत। तुम सब का कल्याण हो। तुम सभी – मेरी स्तुति, श्रवण तथा कीर्तन द्वारा मेरे भक्त बनो, क्योंकि इनका उद्देश्य सभी जीवों के लिए हितकारी है। मैं हिरण्यकशिपु के कार्यकलापों से परिचित हूँ और उन्हें शीघ्र ही रोक दूँगा, तब तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो।

27 जब कोई व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रतिनिधि देवताओं, समस्त ज्ञान के प्रदाता वेदों, गायों, ब्राह्मणों, वैष्णवों, धार्मिक सिद्धान्तों तथा अन्ततः मुझ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान से ईर्ष्या करता है, तो वह तथा उसकी सभ्यता दोनों अविलम्ब नष्ट हो जाएँगी।

28 जब हिरण्यकशिपु अपने ही पुत्र परम भक्त प्रह्लाद को सतायेगा, जो अत्यन्त शान्त, गम्भीर तथा शत्रुरहित है, तो मैं ब्रह्मा के समस्त वरों के होते हुए भी उसका तुरन्त ही वध कर दूँगा ।

29 परम साधु नारद मुनि ने आगे कहा: जब सभी के गुरु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने देवताओं को इस तरह आश्वस्त कर दिया तो उन सबने उन्हें प्रणाम किया और विश्वस्त होकर लौट आये कि अब तो हिरण्यकशिपु एक तरह से मर चुका है।

30 हिरण्यकशिपु के चार अद्भुत सुयोग्य पुत्र थे जिसमें से प्रह्लाद नामक पुत्र सर्वश्रेष्ठ था। निस्सन्देह प्रह्लाद समस्त दिव्य गुणों की खान थे, क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अनन्य भक्त थे।

31-32 [यहाँ पर हिरण्यकशिपु के पुत्र महाराज प्रह्लाद के गुणों का उल्लेख हुआ है] वे योग्य ब्राह्मण के रूप में पूर्णतया सुसंस्कृत, सच्चरित्र तथा परम सत्य को समझने के लिए दृढ़संकल्प थे। उन्हें अपनी इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण संयम था। परमात्मा की भाँति वे प्रत्येक जीव के प्रति दयालु थे और हर एक के श्रेष्ठ मित्र थे। वे सम्मानित व्यक्ति के साथ एक दास की भाँति व्यवहार करते, गरीबों के पिता तुल्य, समानधर्माओं के प्रति दयालु भ्राता की तरह अनुरक्त रहने वाले, आध्यात्मिक गुरुओं तथा पुराने गुरुभाइयों को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की तरह मानने वाले थे। वे उस बनावटी अभिमान से पूरी तरह मुक्त थे, जो उनकी अच्छी शिक्षा, धन, सौन्दर्य व राजसी जन्म के कारण सम्भव था।

33 यद्यपि प्रह्लाद महाराज का जन्म असुर वंश में हुआ था, किन्तु वे स्वयं असुर न होकर भगवान विष्णु के परम भक्त थे। अन्य असुरों की तरह वे कभी भी वैष्णवों से ईर्ष्या नहीं करते थे। भयावह परिस्थिति आने पर वे कभी उद्विग्न नहीं होते थे और वेदों में वर्णित सकाम कर्मों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी रुचि नहीं लेते थे। निस्सन्देह, वे हर भौतिक वस्तु को व्यर्थ मानते थे, इसलिए वे भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया रहित थे। वे सदैव अपनी इन्द्रियों तथा प्राणवायु पर संयम रखते थे। स्थिरबुद्धि तथा संकल्पमय होने के कारण उन्होंने सारी विषय-वासनाओं को दमित कर लिया था।

34 हे राजन, आज भी प्रह्लाद महाराज के सद्गुणों का यशोगान विद्वान सन्तों तथा वैष्णवों द्वारा किया जाता है। जिस तरह सारे सद्गुण सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान में विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार वे उनके भक्त प्रह्लाद महाराज में भी सदैव पाये जाते हैं।

35 हे राजा युधिष्ठिर, किसी भी सभा में जहाँ सन्तों तथा भक्तों की चर्चाएँ चलती हैं वहाँ पर असुरों के शत्रु देवतागण तक प्रह्लाद महाराज को परम भक्त के रूप में उदाहृत करते हैं। आपका तो कहना ही क्या जो प्रह्लाद महाराज का उदाहरण सदा देते रहते हैं।

36 भला ऐसा कौन है, जो प्रह्लाद महाराज के असंख्य दिव्य गुणों के नाम गिना सके? उनको वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण में अविचल श्रद्धा एवं अनन्य भक्ति थी। भगवान कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति अपनी पूर्व भक्ति के कारण स्वाभाविक थी। यद्यपि उनके सद्गुणों की गणना नहीं की जा सकती, किन्तु उनसे सिद्ध होता है कि वे महात्मा थे।

37 अपने बाल्यकाल के प्रारम्भ से ही प्रह्लाद महाराज को बालकों के खेल-कूद में अरुचि थी। निस्सन्देह, उन्होंने उन सबका परित्याग कर दिया था और कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन होकर शान्त तथा जड़ बने रहते थे। चूँकि उनका मन सदैव कृष्णभावनामृत से प्रभावित रहता था, अतएव वे यह नहीं समझ सके कि यह संसार किस प्रकार से इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में निमग्न होकर चलता रहता है।

38 प्रह्लाद महाराज सदैव कृष्ण के विचारों में डूबे रहते थे। इस प्रकार भगवान द्वारा आलिंगित होने से उन्हें यह भी पता नहीं चल पाता था कि उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ यथा बैठना, चलना, खाना, सोना, पीना तथा बोलना किस तरह स्वतः सम्पन्न हो जाया करती थीं।

39 कृष्णभावनामृत में आगे बढ़ते रहने से वह कभी रोता था, कभी हँसता था, कभी हर्षित होता था और कभी उच्च स्वर में गाता था।

40 कभी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का दर्शन करके प्रह्लाद महाराज पूर्ण उत्सुकतावश जोर से पुकारने लगते। कभी-कभी वे प्रसन्नतावश अपनी लज्जा छोड़ बैठते और हर्ष के भावावेश में नाचने लगते। कभी-कभी कृष्ण के भावों में विभोर होकर वे भगवान से एकाकार होने का अनुभव करते और उनकी लीलाओं का अनुकरण करते।

41 कभी-कभी भगवान के करकमलों का स्पर्श अनुभव करके वे आध्यात्मिक रूप से प्रसन्न होते और मौन बने रहते, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते (रोमांच हो आता) और भगवान के प्रेम के कारण उनके अर्धनिमीलित नेत्रों से अश्रु ढुलकने लगते।

42 पूर्ण, अनन्य भक्तों की संगति के कारण जिन्हें भौतिकता से कुछ भी लेना देना नहीं था, प्रह्लाद महाराज निरन्तर भगवान के चरणकमलों की सेवा में लगे रहते थे। जब वे पूर्ण आनन्द में होते तो उनके शारीरिक लक्षणों को देखकर आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन व्यक्ति भी शुद्ध हो जाते थे। दूसरे शब्दों में, प्रह्लाद महाराज उन्हें दिव्य आनन्द प्रदान करते थे।

43 हे राजा युधिष्ठिर, उस असुर हिरण्यकशिपु ने इस महान भाग्यशाली भक्त प्रह्लाद को सताया था, यद्यपि वह उसका ही पुत्र था।

44 महाराज युधिष्ठिर ने कहा: हे देवर्षि, हे श्रेष्ठ आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक, हिरण्यकशिपु ने शुद्ध तथा श्रेष्ठ सन्त प्रह्लाद महाराज को, अपना ही पुत्र होने पर भी किस प्रकार इतना अधिक कष्ट दिया? मैं इसे आपसे जानना चाहता हूँ।

45 माता तथा पिता सदा ही अपने बच्चो के प्रति वत्सल होते हैं। जब बच्चे अवज्ञाकारी होते हैं तो माता-पिता उन्हें किसी शत्रुतावश नहीं, अपितु उन्हें शिक्षा देने तथा उनके भले के लिए दण्ड देते हैं, तो हिरण्यकशिपु ने क्यों अपने इतने नेक पुत्र प्रह्लाद महाराज को प्रताड़ित किया ? यह सब जानने के लिए मैं अत्यन्त उत्सुक हूँ।

46 महाराज युधिष्ठिर ने आगे पूछा: भला एक पिता के लिए यह कैसे सम्भव हुआ कि वह अपने आज्ञाकारी, सदाचारी तथा पिता का सम्मान करने वाले पुत्र के प्रति इतना उग्र बना? हे ब्राह्मण, हे स्वामी, मैंने कभी ऐसा विरोधाभास नहीं सुना कि कोई वत्सल पिता अपने नेक पुत्र को मार डालने के उद्देश्य से उसे दण्डित करे। कृपा करके इस सम्बन्ध में हमारे संशयों को दूर कीजिये।

( समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान )

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.