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अध्याय छब्बीस – नारकीय लोकों का वर्णन (5.26) 

1 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- हे महाशय, जीवात्माओं को विभिन्न भौतिक गतियाँ क्यों प्राप्त होती हैं? कृपा करके मुझसे कहें।

2 महामुनि श्रील शुकदेव बोले- हे राजन, इस जगत में सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में स्थित तीन प्रकार के कर्म होते हैं। चूँकि सभी मनुष्य इन तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, अतः कर्मों के फल भी तीन प्रकार के होते हैं। जो सतोगुण के अनुसार कर्म करता है, वह धार्मिक एवं सुखी होता है, जो रजोगुण में कर्म करता है उसे कष्ट तथा सुख के मिश्रित रूप में फल प्राप्त होते हैं और जो तमोगुण के वश में कर्म करता है, वह सदैव दुखी रहता है और पशुतुल्य जीवन बिताता है। विभिन्न गुणों से भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रभावित होने के कारण जीवात्माओं को विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं।

3 जिस प्रकार पवित्र कर्म करने से स्वर्गिक जीवन में विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं उसी प्रकार दुष्कर्म करने से नारकीय जीवन में विभिन्न गतियाँ प्राप्त होती हैं। जो तमोगुण से प्रेरित होने वाले दुष्कर्मों में प्रवृत्त होते हैं अपनी अज्ञानता की कोटि के अनुसार नारकीय जीवन में विभिन्न कोटियों में रखे जाते हैं। यदि कोई पागलपन के कारण तमोगुण में कार्य करता है, तो उसे सबसे कम कष्ट भोगना पड़ता है। जो दुष्कर्म करता है, किन्तु पवित्र और अपवित्र कर्मों का अन्तर समझता है, उसे मध्यम कष्टकारक नरक में स्थान मिलता है। किन्तु जो नास्तिकतावश बिना समझे-बुझे दुष्कर्म करता है उसे निकृष्ट नारकीय जीवन बिताना पड़ता है। अनादिकाल से अज्ञानतावश प्रत्येक जीव अनेकानेक कामनाओं के कारण हजारों प्रकार के नरक लोकों में ले जाया जाता रहा है। मैं यथासम्भव उनका वर्णन करने का यत्न करूँगा।

4 राजा परीक्षित ने श्रील शुकदेव गोस्वामी से पूछा- भगवान, क्या ये नरक ब्रह्माण्ड के बाहर, इसके भीतर या इसी लोक में भिन्न-भिन्न स्थानों पर हैं?

5 महर्षि श्रील शुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया – सभी नरकलोक तीनों लोकों तथा गर्भोदक सागर के मध्य में स्थित हैं। वे ब्रह्माण्ड के दक्षिण की ओर भूमण्डल के नीचे तथा गर्भोदक सागर के जल से थोड़ा ऊपर स्थित हैं। पितृलोक भी इसी गर्भोदक सागर तथा अध-लोकों के मध्य के प्रदेश में स्थित है, जिसमें अग्निष्वात्ता आदि पितृलोक के वासी परम समाधि में लीन होकर भगवान का ध्यान करते हैं और सदैव अपने गोत्र (परिवारों) की मंगल-कामना करते हैं।

6 पितरों के राजा यमराज हैं जो सूर्यदेव के अत्यन्त शक्तिशाली पुत्र हैं। वह अपने गणों सहित पितृलोक में रहते हैं और भगवान द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हुए यमदूत समस्त पापियों को मृत्यु के पश्चात उनके पास ले आते हैं। अपने कार्यक्षेत्र में लाए जाने के पश्चात उनके विशेष पापकर्मों के अनुसार यमराज अपना निर्णय देकर उनको समुचित दण्ड हेतु अनेक नरकों में से किसी एक में भेज देते हैं।

7 कुछ विद्वान नरक लोकों की कुल संख्या इक्कीस बताते हैं, तो कुछ अट्ठाईस। हे राजन, मैं क्रमश: उनके नाम, रूप तथा लक्षणों का वर्णन करूँगा। विभिन्न नरकों के नाम ये हैं – तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मी, वज्रकंटक-शाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान, क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दंदशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन तथा सूचीमुख। ये सभी लोक जीवात्माओं को दण्डित करने के लिए हैं।

8 हे राजन, जो पुरुष दूसरों की वैध पत्नी, सन्तान या धन का अपहरण करता है, उसे मृत्यु के समय क्रूर यमदूत काल के रस्सों में बाँधकर बलपूर्वक तामिस्र नामक नरक में डाल देते हैं। इस अंधकारपूर्ण लोक में यमदूत पापी पुरुषों को डाँटते, मारते, पीटते और प्रताड़ित करते हैं। उसे भूखा रखा जाता है और पीने को पानी भी नहीं दिया जाता है। इस प्रकार यमराज के क्रुद्ध दूत उसे कठोर यातना देते हैं और वह इस यातना से कभी-कभी मूर्छित हो जाता है।

9 जो व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को धोखा देकर उसकी पत्नी तथा सन्तान को भोगता है वह अन्धतामिस्र नामक नरक में स्थान पाता है। वहाँ पर उसकी स्थिति जड़ से काटे गए वृक्ष जैसी होती है। अन्धतामिस्र में पहुँचने के पूर्व ही पापी जीव को अनेक कठिन यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। ये यातनाएँ इतनी कठोर होती हैं की वह बुद्धि तथा दृष्टि दोनों को खो बैठता है। इसी कारण से बुद्धिमान जन इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं।

10 ऐसा व्यक्ति जो अपने शरीर को "स्व" मान लेता है अपने शरीर तथा अपनी पत्नी और पुत्रों के पालन के लिए धन कमाने के लिए अहर्निश कठोर श्रम करता है। ऐसा करने में वह अन्य जीवात्माओं के प्रति हिंसा कर सकता है। ऐसे पुरुष को मृत्यु के समय अपनी तथा अपने परिवार की देहों को त्यागना पड़ता है और अन्य प्राणियों के प्रति की गई ईर्ष्या का कर्मफल यह मिलता है कि उसे रौरव नामक नरक में फेंक दिया जाता है।

11 इस जीवन में ईर्ष्यालु व्यक्ति अनेक जीवात्माओं के प्रति हिंसक कृत्य करता है। अतः मृत्यु के पश्चात यमराज द्वारा नरक ले जाये जाने पर जो जीवात्माएँ उसके द्वारा पीड़ित की गई थीं वे रूरु नामक जानवर के रूप में प्रकट होकर उसे असह्य पीड़ा पहुँचाते हैं। विद्वान लोग इसे ही रौरव नरक कहते हैं। रूरु सर्प से भी अधिक ईर्ष्यालु होता है और प्रायः इस संसार में दिखाई नहीं पड़ता है।

12 जो व्यक्ति अन्यों को पीड़ा पहुँचाकर अपने ही शरीर का पालन करता है उसे दण्डस्वरूप महारौरव नामक नरक दिये जाने को अनिवार्य कहा गया है। इस नरक में क्रव्याद नामक रूरु पशु उसको सताते और उसका मांस खाते हैं।

13 क्रूर व्यक्ति अपने शरीर के पालन तथा अपनी जीभ की स्वाद पूर्ति के लिए निरीह जीवित पशुओं तथा पक्षियों को पका खाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की मनुजाद (मनुष्य-भक्षक) भी भर्त्सना करते हैं। अगले जन्मों में वे यमदूतों के द्वारा कुम्भीपाक नरक में ले जाये जाते हैं, जहाँ उन्हें उबलते तेल में भून डाला जाता है।

14 ब्राह्मण-हन्ता को कालसूत्र नामक नरक में रखा जाता है, जिसकी परिधि अस्सी हजार मील की है और जो पूरे का पूरा ताम्बे से बना है। इस लोक की ताम्र-सतह ऊपर से तपते सूर्य द्वारा और नीचे से अग्नि द्वारा तप्त होने से अत्यधिक गरम रहती है। इस प्रकार ब्राह्मण का वध करने वाला भीतर और बाहर से जलाया जाता है। भीतर-भीतर वह भूख-प्यास से और बाहर से झुलसा देने वाले सूर्य तथा ताम्र की सतह के नीचे की अग्नि से झुलसता रहता है। अतः वह कभी लेटता है, कभी बैठता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ता है। इस प्रकार वह उतने हजारों वर्षों तक यातना सहता रहता है जितने कि पशु-शरीर में रोमों की संख्या होती है।

15 यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विपत्ति न होने पर भी वैदिक पथ से हटता है, तो यमराज के दूत उसे असिपत्रवन नामक नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं। जब वह अत्यधिक पीड़ा के कारण इधर-उधर दौड़ता है, तो उसे अपने चारों ओर तलवार के समान तीक्ष्ण ताड़ वृक्षों की पत्तियों के बीच छटपटाता है। इस प्रकार पूरा शरीर क्षत-विक्षत होने से वह प्रति पग-पग पर मूर्छित होता रहता है और चीत्कार करता है, “हाय! अब मैं क्या करूँ? मैं किस प्रकार से बचूँ !” मान्य धार्मिक नियमों से विपथ होने का ऐसा ही दण्ड मिलता है।

16 अगले जन्म में यमदूत निर्दोष पुरुष या ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड देने वाले पापी राजा अथवा राज्याधिकारी को सूकरमुख नामक नरक में ले जाते हैं जहाँ उसे यमराज के दूत उसी प्रकार कुचलते है जिस प्रकार गन्ने को पेर कर रस निकाला जाता है। जिस प्रकार से निर्दोष व्यक्ति दण्डित होते समय अत्यन्त दयनीय ढंग से चिल्लाता है और मूर्छित होता है ठीक उसी तरह पापी जीवात्मा भी आर्तनाद करता एवं मूर्छित होता है। निर्दोष व्यक्ति को दण्ड देकर पीड़ित करने का यही फल है।

17 परमेश्वर की व्यवस्था से खटमल तथा मच्छर जैसे निम्न श्रेणी के जीव मनुष्यों तथा अन्य पशुओं का रक्त चूसते हैं। इन तुच्छ प्राणियों को इसका ज्ञान नहीं होता है कि उनके काटने से मनुष्यों को पीड़ा होती होगी। किन्तु उच्च श्रेणी के मनुष्यों – यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य – में चेतना विकसित रूप में होती है, अतः वे जानते हैं कि किसी का प्राणघात करना कितना कष्टदायक है, यदि ज्ञानवान होते हुए भी मनुष्य विवेकहीन तुच्छ प्राणियों को मारता है या सताता है, तो वह निश्चय ही पाप करता है। श्रीभगवान ऐसे मनुष्य को अन्धकूप में रखकर दण्डित करते हैं जहाँ वे समस्त पक्षी तथा पशु, सर्प, मच्छर, जूं, कीड़े, मक्खियाँ तथा अन्य प्राणी, जिनको उसने अपने जीवन काल में सताया था, उस पर चारों ओर से आक्रमण करते हैं और उसकी नींद हराम कर देते हैं। आराम न कर सकने के कारण वह अंधकार में घूमता रहता है। इस प्रकार अन्धकूप में उसे वैसी ही यातना मिलती है जैसी कि निम्न योनि के प्राणी को।

18 जो मनुष्य कुछ भोजन प्राप्त होने पर उसे अतिथियों, वृद्ध पुरुषों तथा बच्चों को न बाँट कर स्वयं खा जाता है अथवा बिना पंचयज्ञ किये खाता है, उसे कौवे के समान मानना चाहिए। मृत्यु के बाद वह सबसे निकृष्ट नरक कृमिभोजन में रखा जाता है। इस नरक में एक लाख योजन (800000 मील वाले) विस्तार वाला कीड़ों से परिपूर्ण एक कुण्ड है। वह इस कुण्ड में कीड़ा बनकर रहता है और दूसरों कीड़ों को खाता है और ये कीड़े उसे खाते हैं। जब तक वह पापी अपने पापों का प्रयश्चित नहीं कर लेता, तब तक वह कृमिभोजन के नारकीय कुण्ड में उतने वर्षों तक पड़ा रहता है, जितने योजन इस कुण्ड की चौड़ाई है।

19 हे राजन, जो पुरुष आपत्तिकाल न होने पर भी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी के रत्न तथा सोना लूट लेता है, वह सन्दंश नामक नरक में रखा जाता है। वहाँ पर उसकी चमड़ी संडासी और लोहे के गरम पिण्डों से उतारी जाती है। इस प्रकार उसका पूरा शरीर खण्ड-खण्ड कर दिया जाता है।

20 यदि कोई पुरुष या स्त्री विपरीत लिंग वाले अगम्य सदस्य के साथ संसर्ग करते हैं, तो मृत्यु के बाद यमराज के दूत उसे तप्तसूर्मी नामक नरक में दण्ड देते हैं। वहाँ पर ऐसे पुरुष तथा स्त्रियाँ कोड़े से पीटे जाते हैं। पुरुष को तप्तलोह की बनी स्त्री से स्त्री को ऐसी ही पुरुष-प्रतिमा से आलिंगित कराया जाता है। व्यभिचार के लिए ऐसा ही दण्ड है।

21 जो व्यक्ति विवेकहीन होकर–यहाँ तक कि पशुओं के साथ भी – व्यभिचार करता है तो उसे मृत्यु के बाद वज्रकंटकशाल्मली नामक नरक में ले जाया जाता है। इस नरक में वज्र के समान कठोर काँटों वाला सेमल का वृक्ष है। यमराज के दूत पापी पुरुष को इस वृक्ष से लटका देते हैं और घसीटकर नीचे की ओर खींचते हैं जिससे काँटों के द्वारा उसका शरीर बुरी तरह चिथड़ जाता है।

22 जो मनुष्य श्रेष्ठ कुल – यथा क्षत्रिय, राज परिवार या अधिकारी वर्ग – में जन्म ले करके नियत नियमों के पालन की अवहेलना करता है और इस प्रकार से अधम बन जाता है, वह मृत्यु के समय वैतरणी नामक नरक की नदी में जा गिरता है। यह नदी नरक को घेरने वाली खाई के समान है और अत्यन्त हिंस्र जलजीवों से पूर्ण है। जब पापी मनुष्य को वैतरणी नदी में फेंका जाता है, तो जल के जीव उसे तुरन्त खाने लगते हैं और पापमय शरीर होने के कारण वह अपने शरीर को त्याग नहीं पाता। वह निरन्तर अपने पापमय कर्मों को स्मरण करता है और मल, मूत्र, पीब, रक्त, केश, नख, हड्डी, मज्जा, मांस तथा चर्बी से भरी हुई उस नदी में अत्यधिक यातनाएँ पाता है।

23 निम्नकुल में जन्मी शूद्र स्त्रियों के निर्लज्ज पति पशुओं की भाँति रहते हैं, अतः उनमें आहरण शुचिता या नियमित जीवन का अभाव रहता है। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात पूयोद नामक नरक में फेंक दिये जाते हैं जहाँ वे मल, पीब, श्लेष्मा, लार तथा ऐसी ही अन्य वस्तुओं से पूर्ण समुद्र में रखे जाते हैं। जो शूद्र अपने को नहीं सुधार पाते वे इस सागर में गिरकर इन घृणित वस्तुओं को खाने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

24 यदि इस जीवन में उच्च वर्ग का मनुष्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) कुत्ते, गधे तथा खच्चर पालता है और जंगल में आखेट करने तथा वृथा ही पशुओं को मारने में अत्यधिक रुचि लेता है, तो मृत्यु के पश्चात वह प्राणरोध नामक नरक में डाला जाता है। वहाँ पर यमराज के दूत उसे लक्ष्य बनाकर अपने तीरों से बेध डालते हैं।

25 जो व्यक्ति इस जन्म में अपने ऊँचे पद पर गर्व करता है और केवल भौतिक प्रतिष्ठा के लिए पशुओं की बलि चढ़ाता है, उसे मृत्यु के पश्चात वैशसन नामक नरक में रखा जाता है। वहाँ यम के दूत उसे अपार कष्ट देकर अन्त में उसका वध कर देते हैं।

26 यदि कोई मूर्ख द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) भोगेच्छा से अपनी पत्नी को वश में रखने के लिये उसे वीर्य पीने को बाध्य करता है, तो मृत्यु के पश्चात उसे लालाभक्ष नरक में रखा जाता है। वहाँ उसे वीर्य की नदी में डाल कर वीर्य पीने को विवश किया जाता है।

27 इस जगत में कुछ लोगों का व्यवसाय ही लूटपाट करना है जो दूसरों के घरों में आग लगाते हैं अथवा उन्हें विष देते है। यही नहीं, राज्य-अधिकारी कभी-कभी वणिक जनों को आयकर अदा करने पर विवश करके तथा अन्य विधियों से लूटते हैं। मृत्यु के पश्चात ऐसे असुरों को सारमेयादन नामक नरक में रखा जाता है। उस नरक में सात सौ बीस कुत्ते हैं जिनके दाँत वज्र के समान कठोर हैं। ये कुत्ते यमराज के दूतों के आदेश पर ऐसे पापीजनों को भूखे भेड़ियों की भाँति निगल जाते हैं।

28 इस जीवन में जो व्यक्ति किसी की झूठी गवाही देने, व्यापार करते अथवा दान देते समय किसी भी तरह का झूठ बोलता है, वह मरने पर यमराज के दूतों द्वारा बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता है। ऐसा पापी आठ सौ मील ऊँचे पर्वत की चोटी से मुँह के बल अवीचिमत नामक नरक में नीचे फेंक दिया जाता है। इस नरक का कोई आधार नहीं होता और उसकी पथरीली भूमि जल की लहरों के समान प्रतीत होती है, किन्तु इसमें जल नहीं है; इसलिए इसे अवीचिमत (जलरहित) कहा गया है। वहाँ से बारम्बार गिराये जाने से उस पापी व्यक्ति के शरीर के छोटे छोटे टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते और उसे बारम्बार दण्ड सहना पड़ता है।

29 जो ब्राह्मणी या ब्राह्मण मद्यपान करता है उसे यमराज के दूत अयःपान नामक नरक में ले जाते हैं। यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य अथवा व्रत धारण करने वाला मोहवश सोमपान करता है तो वह भी इस नरक में स्थान पाता है। अयःपान नरक में यम के दूत उनकी छाती पर चढ़कर उनके मुँह के भीतर तप्त पिघला लोहा उड़ेलते हैं।

30 जो निम्न जाति में उत्पन्न होकर घृणित होते हुए भी इस जीवन में यह सोचकर झूठा गर्व करता है कि "मैं महान हूँ" और उच्च जन्म, तप, शिक्षा, आचार, जाति अथवा आश्रम में अपने से बड़ों का उचित आदर नहीं करता वह इसी जीवन में मृत-तुल्य है और मृत्यु के पश्चात क्षारकर्दम नरक में सिर के बल नीचे गिराया जाता है। वहाँ उसे यमदूतों के हाथों से अत्यन्त कठिन यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

31 इस संसार में ऐसे भी पुरुष या स्त्रियाँ हैं, जो भैरव या भद्रकाली को नर-बलि चढ़ाकर अपने द्वारा बलि किए गये शिकार का मांस खाते हैं। ऐसे यज्ञ करने वालों को मृत्यु के पश्चात यमलोक में ले जाया जाता है जहाँ उनके शिकार (मारे गये व्यक्ति) राक्षस का रूप धारण करके अपनी तेज तलवारों से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। जिस प्रकार इस लोक में नर-भक्षकों ने नाचते गाते हुए अपने शिकार का रक्तपान किया था उसी तरह उनके शिकार अब अपने वध करने वालों का रक्तपान करके आनन्दित होते हैं।

32 इस जीवन में कुछ व्यक्ति गाँव या वन में रक्षा के लिए आये हुए पशुओं तथा पक्षियों को शरण देते हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा का विश्वास हो जाने के बाद उन्हें बर्छे या डोरे में फाँस कर घोर पीड़ा पहुँचाकर उनसे खिलौने जैसा खेलते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के पश्चात यमराज के दूतों द्वारा शूलप्रोत नामक नरक में ले जाये जाते हैं जहाँ उनके शरीरों को तीक्ष्ण नुकीले भालों से छेदा जाता है। वे भूख तथा प्यास से तड़पते रहते हैं और उनके शरीरों को गीध तथा बगुले जैसे तीक्ष्ण चोंच वाले पक्षी चारों ओर से नोंचते हैं। इस प्रकार से यातना पाकर उन्हें पूर्वजन्म में किये गये पापकर्मों का स्मरण होता है।

33 जो व्यक्ति इस जीवन में ईर्ष्यालु सर्पों के समान क्रोधी स्वभाव वाले अन्य जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मृत्यु के पश्चात दंद्शूक नामक नरक में गिरते हैं। हे राजन, इस नरक में पाँच या सात फण वाले सर्प हैं, जो इन पापात्माओं को उसी प्रकार खा जाते हैं जिस प्रकार चूहों को सर्प खाते हैं।

34 जो व्यक्ति इस जीवन में अन्य जीवों को अन्धे कुएँ, खत्ती या पर्वत की गुफाओं में बन्दी बनाकर रखते हैं, वे मृत्यु के पश्चात अवट-निरोधन नामक नरक में रखे जाते हैं। वहाँ वे स्वयं अन्धे कुओं में धकेल दिये जाते हैं, जहाँ विषैले धुएँ से उनका दम घुटता है और वे घोर यातनाएँ उठाते हैं।

35 जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथियों अथवा अभ्यागतों को क्रोध भरी कुटिल दृष्टि से देखता है मानो उन्हें भस्म कर देगा, उसे पर्यावर्तन नामक नरक में ले जाकर रखा जाता है जहाँ उसे वज्र जैसी चोंच वाले गीध, बगुले, कौवे तथा इसी प्रकार के अन्य पक्षी घूरते हैं और सहसा झपट कर तेजी से उसकी आँखें निकाल लेते हैं।

36 जो व्यक्ति इस लोक में अथवा इस जीवन में अपनी सम्पत्ति पर अभिमान करता है, वह सदैव सोचता रहता है कि वह कितना धनी है और कोई उसकी बराबरी कर सकता है? उसकी नजर टेढ़ी हो जाती है और वह सदैव भयभीत रहता है कि कोई उसकी सम्पत्ति ले न ले। वह अपने से बड़े लोगों पर आशंका करता है। अपनी सम्पत्ति की हानि के विचार मात्र से उसका मुख तथा हृदय सूखने लगते हैं। अतः वह सदैव अति अभागे दुष्ट मनुष्य की तरह लगता है उसे वास्तविक सुख-लाभ नहीं हो पाता और वह यह नहीं जानता कि चिन्तामुक्त जीवन कैसा होता है। धन अर्जित करने, उसको बढ़ाने तथा उसकी रक्षा के लिए वह जो पापकर्म करता है उसके कारण उसे सूचीमुख नामक नरक में रखा जाता है जहाँ यमराज के दूत उसके सारे शरीर को दर्जियों की तरह धागे से सिल देते हैं।

37 हे राजन, यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नरक हैं। मैंने जिन पापी मनुष्यों का वर्णन किया है---और जिनका वहाँ पर उल्लेख नहीं हुआ – वे सब अपने पापों की कोटि के अनुसार इन विभिन्न नरकों में प्रवेश करेंगे। किन्तु जो पुण्यात्मा हैं, वे अन्य लोकों में, अर्थात देवताओं के लोकों में जाते हैं। तो भी अपने पुण्य-पाप के फलों के क्षय होने पर पुण्यात्मा तथा पापी दोनों ही पुनः पृथ्वी पर लौट आते हैं।

38 प्रारम्भ में (द्वितीय तथा तृतीय स्कन्ध में) मैं यह बता चुका हूँ कि मुक्तिमार्ग पर किस प्रकार अग्रसर हुआ जा सकता है। पुराणों में चौदह खण्डों में विभक्त अंड सदृश विशाल ब्रह्माण्ड की स्थिति का वर्णन किया गया है। यह विराट रूप भगवान का बाह्य शरीर माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति उनकी शक्ति और गुणों से हुई है। इसे ही सामान्यतः विराट रूप कहते हैं। यदि कोई श्रद्धा सहित भगवान के इस बाह्य रूप का वर्णन पढ़ता है अथवा इसके विषय में सुनता या फिर अन्यों को भागवत धर्म अथवा कृष्णभावनामृत समझाता है, तो आत्म-चेतना अथवा कृष्णभावनामृत में उनकी श्रद्धा तथा भक्ति क्रमशः बढ़ती जाती है। यद्यपि इस भावना को विकसित कर पाना कठिन है, किन्तु इस विधि से मनुष्य अपने को शुद्ध कर सकता है और धीरे-धीरे परम सत्य को जान सकता है।

39 जो मुक्ति का इच्छुक है, मुक्ति के पथ को ग्रहण करता है तथा बद्ध जीवन के प्रति आकृष्ट नहीं होता, वह यती या भक्त कहलाता है। ऐसे पुरुष को पहले भगवान के स्थूल विराट रूप का चिन्तन करते हुए मन को वश में करना चाहिए और तब धीरे-धीरे श्रीकृष्ण के दिव्य रूप (सत-चित-आनन्द-विग्रह) का चिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार उसका मन समाधि में स्थिर हो जाता है। भक्ति के द्वारा भगवान के सूक्ष्म रूप का साक्षात्कार किया जा सकता है और यही भक्तों का गन्तव्य है। इस प्रकार उसका जीवन सफल बन जाता है।

40 हे राजन, अभी मैंने तुमसे इस पृथ्वीलोक, अन्य लोक, उनके वर्ष, नदी एवं पर्वत का वर्णन किया है। मैंने आकाश, समुद्र, अधोलोक, दिशाएँ, नरक, ग्रह तथा नक्षत्रों का भी वर्णन किया है। ये भगवान के विराट रूप के अवयव हैं, जिन पर समस्त जीवात्माएँ आश्रित हैं इस प्रकार मैंने भगवान के बाह्य शरीर के अद्भुत विस्तार की व्याख्या की है।

स्कन्ध की समाप्ति के पहले यह उल्लिखित है :-

जिन विद्वानों को समस्त वैदिक शास्त्रों का ज्ञान है वे यह मानते हैं कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के असंख्य अवतार हैं। इन अवतारों की दो श्रेणियाँ की गई हैं – प्राभव तथा वैभव। शास्त्रों के अनुसार प्राभव अवतारों की भी दो श्रेणियाँ हैं – अनन्त तथा अवर्णित। श्रीमदभागवत के पंचम स्कन्ध में तृतीय से लेकर षष्ठम अध्याय तक ऋषभदेव का वर्णन है, किन्तु उनके सत रूप का विस्तृत वर्णन नहीं हुआ है। अतः उन्हें प्राभव अवतारों में दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत (अवर्णित) माना जाता है।

श्रीमदभागवत के प्रथम स्कन्ध अध्याय तीन श्लोक तेरह में कहा गया है "भगवान विष्णु आठवें अवतार में महाराज नाभि (आग्निध्र के पुत्र) के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने सिद्धि, जीवन की परमहंस अवस्था का मार्ग दिखलाया जिसकी उपासना वर्णाश्रम धर्म के सभी पालन करने वालों द्वारा की जाती है।"

ऋषभदेव श्रीभगवान हैं और उनका शरीर दिव्य सच्चिदानन्दविग्रह है। अतः यह पूछा जा सकता है कि वे मल-मूत्र किस प्रकार विसर्जित करते होंगे? इस प्रश्न का उत्तर गौड़ीय वेदान्त आचार्य बलदेव विद्याभूषण ने अपनी पुस्तक सिद्धान्त-रत्न (प्रथम भाग मूलपाठ 65-68) में दिया है।

जो पूर्ण ज्ञानी नहीं हैं, वे अभक्तों का ध्यान ऋषभदेव द्वारा मलमूत्र विसर्जित करने की ओर आकर्षित करते हैं क्योंकि वे दिव्य शरीर के सत-चित-आनन्द-विग्रह को नहीं समझ पाते।

श्रीमदभागवत (5.6.11) में इस युग के मोहग्रस्त तथा भ्रमित स्थिति वाले भौतिकतावादियों का पूरी तरह वर्णन हुआ है। ऋषभदेव ने कहा है – इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं "मेरा यह शरीर भौतिकतावादियों के लिए अचिन्त्य है।" (5.5.19) पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के मानवीय रूप को समझ पाना अत्यन्त दुष्कर है और सामान्य व्यक्ति के लिए तो यह अचिन्त्य है। इसलिए ऋषभदेव ने स्वतः बताया है कि उनका शरीर आत्ममय है। इसलिए वे मलमूत्र विसर्जित नहीं करते थे। यद्यपि वे ऊपर से मलमूत्र विसर्जित करते प्रतीत होते थे, किन्तु वह भी दिव्य होने के कारण सामान्य मनुष्य द्वारा अनुकरणीय नहीं है। श्रीमदभागवत में यह भी कहा है कि ऋषभदेव का मलमूत्र दिव्य सुगन्धी से युक्त था। भले ही कोई ऋषभदेव का अनुकरण कर ले, किन्तु वह सुगन्धित मल विसर्जित नहीं कर सकता।

श्रील शुकदेव गोस्वामी ने बताया है कि भगवान ऋषभदेव के लक्षणों को सुनने के बाद कोंक, वेंक तथा कुटक के राजा ने अर्हत नामक धार्मिक नियमों की प्रणाली का सूत्रपात किया। ये नियम वैदिक नियमों के अनुकूल नहीं थे, अतः इन्हें पाखण्ड धर्म कहा गया। अर्हत संप्रदाय के सदस्य ऋषभदेव के कार्यों को भौतिक मानते थे। किन्तु ऋषभदेव तो श्रीभगवान के अवतार हैं, अतः वे दिव्य पद पर हैं और उनकी समता कोई नहीं कर सकता। ऋषभदेव की लीलाओं की समाप्ति पर एक दावानल में सम्पूर्ण वन तथा भगवान का शरीर जलकर भस्म हो गया।

इसी प्रकार ऋषभदेव ने लोगों की अविद्या को भस्म कर डाला। अपने पुत्रों को दिए गये उपदेशों में उन्होंने परमहंसों के लक्षणों का प्राकट्य किया। श्रील बलदेव विद्याभूषण की टिप्पणी है कि श्रीमदभागवत के अष्टम स्कन्ध में ऋषभदेव का अन्य विवरण भी प्राप्त होता है, किन्तु वे ऋषभदेव इस स्कन्ध के ऋषभदेव से भिन्न हैं।

 

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (पंचम स्कन्ध) के समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरी ॐ तत सत::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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