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अध्याय छह – यदुवंश का प्रभास गमन (11.6)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: तब ब्रह्माजी अपने पुत्रों तथा देवताओं एवं महान प्रजापतियों को साथ लेकर द्वारका के लिए रवाना हुए। सारे जीवों के कल्याणप्रदाता शिवजी भी अनेक भूत-प्रेतों से घिरकर द्वारका गये।

2-4 कृष्ण का दर्शन करने की आशा से शक्तिशाली इन्द्र अपने साथ मरुतों, आदित्यों, अश्विनियों, ऋभुओं, अंगिराओं, रुद्रों, विश्वेदेवों, साध्यों, गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सिद्धों, चारणों, गुह्यकों, महान ऋषियों, पितरों, विद्याधरों एवं किन्नरों को लेकर द्वारका नगरी पहुँचे। कृष्ण ने अपने दिव्य स्वरूप द्वारा सारे मनुष्यों को मोह लिया और समस्त जगतों में अपनी महिमा फैला दी। भगवान का यश ब्रह्माण्ड के भीतर समस्त कल्मष को नष्ट करनेवाला है।

5 समस्त प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यों से समृद्ध, सुशोभित द्वारका नगरी में देवताओं ने श्रीकृष्ण के अद्भुत रूप को अतृप्त नेत्रों से देखा।

6 देवताओं ने समस्त ब्रह्माण्डों के परम स्वामी को स्वर्ग के उद्यानों से लाये गये फूलों के हारों से ढक दिया। तब उन्होंने यदुवंश शिरोमणि भगवान की मोहक शब्दों तथा भावमय वचनों से प्रशंसा की।

7 देवता कहने लगे : हे प्रभु, बड़े बड़े योगी कठिन कर्म-बन्धन से मुक्ति पाने का प्रयास करते हुए अपने हृदयों में आपके चरणकमलों का ध्यान अतीव भक्तिपूर्वक करते हैं। हम देवतागण अपनी बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण, मन तथा वाणी आपको समर्पित करते हुए, आपके चरणकमल पर नत होते हैं।

8 हे अजित प्रभु, आप तीन गुणों से बनी अपनी मायाशक्ति को अपने ही भीतर अचिन्त्य व्यक्त जगत के सृजन, पालन तथा संहार में लगाते हैं। आप माया के परम नियन्ता के रूप में प्रकृति के गुणों की अन्योन्य क्रिया में स्थित जान पड़ते हैं, किन्तु आप भौतिक कार्यों द्वारा कभी प्रभावित नहीं होते। आप अपने नित्य आध्यात्मिक आनन्द में ही लीन रहते हैं, अतएव आप पर किसी भौतिक संदूषण का दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

9 हे सर्वश्रेष्ठ, जिनकी चेतना मोह से कलुषित है, वे केवल सामान्य पूजा, वेदाध्ययन, दान, तप तथा अनुष्ठानों द्वारा स्वयं को शुद्ध नहीं कर सकते।

10 जीवन में सर्वोच्च लाभ की कामना करनेवाले बड़े बड़े मुनि सदैव आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं। आपके आत्मसंयमी भक्तगण, आपके ही समान ऐश्वर्य पाने के लिए स्वर्ग से परे जाने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की पूजा प्रातः दोपहर तथा संध्या समय करते हैं। वे आपके चतुर्व्यूह रूप का ध्यान करते हैं। आपके चरणकमल उस प्रज्वलित अग्नि के तुल्य हैं, जो इन्द्रियतृप्ति विषयक समस्त इच्छाओं को भस्म कर देती है।

11 याज्ञिक लोग ऋग, यजु: तथा सामवेद में दी गई विधि के अनुसार यज्ञ की अग्नि में आहुति देते समय, आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं। इसी प्रकार योगीजन आपकी दिव्य योगशक्ति का ज्ञान प्राप्त करने की आशा से आपके चरणकमलों का ध्यान करते हैं और जो पूर्ण महाभागवत हैं, वे आपकी मायाशक्ति को पार करने की इच्छा से, आपके चरणकमलों की उचित विधि से पूजा करते हैं।

12 हे सर्वशक्तिमान, आप अपने सेवकों के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उस मुरझाई हुई (बासी) फूलमाला को स्वीकार कर लिया है, जिसे हमने आपके वक्षस्थल पर चढ़ाया था। चूँकि लक्ष्मी देवी आपके दिव्य वक्षस्थल पर वास करती हैं, इसलिए निस्सन्देह वे हमारी भेंटों को उसी स्थान पर अर्पित करते देखकर उसी तरह ईर्ष्या करेंगी, जिस तरह एक सौत करती है। फिर भी आप इतने दयालु हैं कि आप अपनी नित्य संगिनी लक्ष्मीदेवी की परवाह न करते हुए हमारी भेंट को सर्वोत्तम पूजा मानकर ग्रहण करते हैं। हे दयालु प्रभु, आपके चरणकमल हमारे हृदयों की अशुभ कामनाओं को भस्म करने के लिए प्रज्वलित अग्नि का कार्य करें।

13 हे सर्वशक्तिमान प्रभु, आपने अपने त्रिविक्रम अवतार में ब्रह्माण्ड के कवच को तोड़ने के लिए अपना पैर ध्वज-दण्ड की तरह उठाया और पवित्र गंगा को तीन शाखाओं में तीनों लोकों में से होकर विजय-ध्वजा की भाँति बहने दिया। आपने अपने चरणकमलों के तीन बलशाली पगों से बलि महाराज को उनके विश्वव्यापी साम्राज्य सहित वश में कर लिया। आपके चरण असुरों में भय उत्पन्न करके, उन्हें स्वर्ग-जीवन की सिद्धि प्रदान करते हैं। हे प्रभु, आपके चरणकमल कृपा करके, हमारे सभी पापकर्मों से हमें मुक्त करें।

14 आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, दिव्य आत्मा हैं, जो भौतिक प्रकृति तथा इसके भोक्ता दोनों से श्रेष्ठ हैं। आपके चरणकमल हमें दिव्य आनन्द प्रदान करें। ब्रह्मा इत्यादि सारे बड़े बड़े देवता देहधारी जीव हैं। आपके काल के वश में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते वे सब उन बैलों जैसे हैं, जिन्हें छिदे हुए उनकी नाक में पड़ी रस्सी (नथ) के द्वारा खींचा जाता है।

15 आप इस ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार के कारण हैं। आप प्रकृति की स्थूल तथा सूक्ष्म दशाओं को नियमित करनेवाले तथा प्रत्येक जीव को वश में करनेवाले हैं। कालरूपी चक्र की तीन नाभियों के रूप में आप सारी वस्तुओं का ह्रास करनेवाले हैं। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं।

16 हे प्रभु, आदि पुरुष-अवतार महाविष्णु अपनी सर्जक शक्ति आपसे ही प्राप्त करते हैं। इस तरह अच्युत शक्ति से युक्त वे प्रकृति में दृष्टिपात करके महत तत्व उत्पन्न करते हैं। तब भगवान की शक्ति से समन्वित यह महत तत्त्व अपने में से ब्रह्माण्ड का आदि सुनहला अंडा उत्पन्न करता है, जो भौतिक तत्त्वों के कई आवरणों (परतों) से ढका होता है।

17 हे प्रभु, आप इस ब्रह्माण्ड के परम स्रष्टा हैं और समस्त चर तथा अचर जीवों के परम नियन्ता हैं। आप हृषीकेश अर्थात सभी इन्द्रियविषयक कार्यों के परम नियन्ता हैं, और आप कभी भी इस भौतिक सृष्टि के भीतर अनन्त इन्द्रियविषय कार्यों के अधीक्षक के समय संदूषित या लिप्त नहीं होते। दूसरी ओर, अन्य जीव, यहाँ तक कि योगी तथा दार्शनिक भी उन भौतिक वस्तुओं का स्मरण करके विचलित तथा भयभीत रहते हैं।

18 हे प्रभु, आप सोलह हजार अत्यन्त सुन्दर राजसी पत्नियों के साथ रह रहे हैं। अपनी अत्यन्त लजीली तथा मुस्कान-भरी चितवन तथा सुन्दर धनुष-रूपी भौंहों से वे आपको उत्सुक प्रणय का सन्देश भेजती हैं। किन्तु वे आपके मन तथा इन्द्रियों को विचलित करने में पूरी तरह असमर्थ रहती हैं।

19 आपके विषय में वार्ता रूपी अमृतवाहिनी नदियाँ तथा आपके चरणकमलों के धोने से उत्पन्न पवित्र नदियाँ तीनों लोकों के सारे कल्मष को विनष्ट करने में समर्थ हैं। जो शुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे आपके चरणकमलों से निकलने वाली पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और आपकी महिमा की पवित्र कथाओं का उत्साहपूर्वक श्रवण करते हैं।

20 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: इस तरह ब्रह्माजी शिव तथा अन्य देवताओं समेत भगवान गोविन्द की स्तुति करने के बाद स्वयं आकाश में स्थित हो गये और उन्होंने भगवान को इस प्रकार से सम्बोधित किया।

21 ब्रह्मा ने कहा: हे प्रभु, इसके पूर्व हमने आपसे पृथ्वी का भार हटाने की प्रार्थना की थी। हे अनन्त भगवान, हमारी वह प्रार्थना पूरी हुई है।

22 हे प्रभु, आपने उन पवित्र लोगों के बीच धर्म की पुनर्स्थापना की है, जो सत्य से सदैव दृढ़तापूर्वक बँधे हुए हैं। आपने अपनी कीर्ति का भी सारे विश्व में वितरण किया है। इस तरह सारा संसार आपके विषय में श्रवण करके शुद्ध किया जा सकता है।

23 आपने यदुवंश में अवतार लेकर अपना अद्वितीय दिव्य रूप प्रकट किया है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कल्याण हेतु आपने उदार दिव्य कृत्य किये हैं।

24 हे प्रभु, कलियुग में पवित्र तथा सन्त पुरुष, जो आपके दिव्य कार्यों का श्रवण करते हैं और उनका यशोगान करते हैं, वे इस युग के अंधकार को सरलता से लाँघ जायेंगे।

25 हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, हे प्रभु, आप यदुकुल में अवतरित हुए हैं और अपने भक्तों के साथ आपने एक सौ पच्चीस शरद ऋतुएँ बिताई हैं।

26-27 हे प्रभु, इस समय देवताओं की ओर से, आपको करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा। आपने पहले ही अपने वंश को ब्राह्मण के शाप से उबार लिया है। हे प्रभु, आप सारी वस्तुओं के आधार हैं और यदि आप चाहें, तो अब वैकुण्ठ में अपने धाम को लौट जाय। साथ ही, हमारी विनती है कि आप सदैव हमारी रक्षा करते रहें। हम आपके विनीत दास हैं और आपकी ओर से हम ब्रह्माण्ड का कार्यभार सँभाले हुए हैं। हमें अपने लोकों तथा अनुयायियों समेत आपके सतत संरक्षण की आवश्यकता है।

28 भगवान ने कहा: हे देवताओं के अधीश ब्रह्मा, मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं तथा अनुरोध को समझता हूँ। पृथ्वी का भार हटाकर मैंने आप लोगों का सब कार्य पूर्ण कर दिया।

29 वही यादव-कुल, जिसमें मैं प्रकट हुआ, ऐश्वर्य में, विशेष रूप से अपने शारीरिक बल तथा साहस में, इस हद तक बढ़ गया कि सारे जगत को ही निगल जाना चाहता था। इसलिए मैंने उन्हें रोक दिया है, जिस तरह तट महासागर को रोके रहता है।

30 यदि मुझे यदुवंश के इन अतिशय घमण्ड से चूर रहनेवाले सदस्यों को हटाये बिना यह संसार त्यागना पड़ा, तो इनके असीम विस्तार के उफान से सारा संसार विनष्ट हो जायेगा।

31 अब ब्राह्मणों के शाप के कारण यदुवंश का विनाश पहले ही शुरु हो चुका है। हे निष्पाप ब्रह्मा, जब यह विनाश पूरा हो चूकेगा और मैं वैकुण्ठ जा रहा होऊँगा, तो मैं थोड़े समय के लिए तुम्हारे वास-स्थान पर अवश्य आऊँगा।

32 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ब्रह्माण्ड के स्वामी द्वारा ऐसा कहे जाने पर स्वयंभू ब्रह्मा उनके चरणकमलों पर गिर पड़े और उन्हें नमस्कार किया। तब सारे देवताओं से घिरे हुए ब्रह्माजी अपने निजी धाम लौट गये।

33 तत्पश्चात, भगवान ने देखा कि पवित्र नगरी द्वारका में भयंकर उत्पात हो रहे हैं। अतः एकत्रित वृद्ध यदुवंशियों से भगवान इस प्रकार बोले। भगवान ने कहा: ब्राह्मणों ने हमारे वंश को शाप दिया है। ऐसे शाप का परिहार असम्भव है, इसीलिए हमारे चारों ओर महान उत्पात हो रहे हैं।

35 हे आदरणीय वरेषूजनों, यदि हम अपने प्राणों को अक्षत रखना चाहते हैं, तो अब और अधिक काल तक हमें इस स्थान पर नहीं रहना चाहिए। आज ही हम परम पवित्र स्थल प्रभास चलें। हमें तनिक भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।

36 एक बार दक्ष के शाप के कारण चन्द्रमा यक्ष्मा से पीड़ित था, किन्तु प्रभास क्षेत्र में स्नान करने मात्र से चन्द्रमा अपने सारे पापों से तुरन्त विमुक्त हो गया और उसने अपनी कलाओं की अभिवृद्धि भी प्राप्त की।

37-38 प्रभास क्षेत्र में स्नान करने, वहाँ पर पितरों तथा देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि देने, पूज्य ब्राह्मणों को नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने तथा उन्हें ही दान का योग्य पात्र मानकर पर्याप्त दान देने से, हम निश्चय ही इन भीषण संकटों को पार कर सकेंगे, जिस तरह मनुष्य किसी उपयुक्त नाव में चढ़कर महासागर को पार कर सकता है।

39 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे कुरुनंदन, इस तरह भगवान द्वारा आदेश दिये जाने पर यादवों ने उस प्रभास क्षेत्र नामक पवित्र स्थान को जाने का निश्चय किया और उन्होंने अपने-अपने रथों में घोड़े जोत दिये।

40-41 हे राजन, उद्धव भगवान कृष्ण के सदा से ही श्रद्धावान अनुयायी थे। भयावने अपशकुनों को ध्यान में रखते हुए, यादवों के कूच को अत्यन्त निकट जानकर तथा भगवान के आदेशों को सुनकर उद्धव एकान्त स्थान में भगवान के पास गये। उन्होंने ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता के चरणकमलों पर अपना शीश झुकाया और हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार बोले।

42 श्री उद्धव ने कहा: हे प्रभु, हे देवों के परम ईश्वर, आपकी दिव्य महिमा का श्रवण और कीर्तन करने से ही जीव पवित्र होता है। हे प्रभु, ऐसा लगता है कि अब आप अपने वंश को समेट लेंगे और आप इस ब्रह्माण्ड में अपनी लीलाएँ भी बन्द कर देंगे। आप समस्त माया-शक्ति के परम नियन्ता और स्वामी हैं। यद्यपि आप अपने वंश को दिये गये ब्राह्मणों के शाप को मिटाने में पूर्णतया समर्थ हैं, किन्तु आप ऐसा नहीं कर रहे हैं और आपका तिरोधान सन्निकट है।

43 हे स्वामी, भगवान कृष्ण, मैं आधे क्षण के लिए भी आपके चरणकमलों का बिछोह सहन नहीं कर सकता। मेरी विनती है कि आप मुझे भी अपने साथ अपने धाम लेते चले।

44 हे कृष्ण, आपकी लीलाएँ मनुष्य प्रजाति के लिए अतीव शुभ हैं और कानों के लिए मादक पेय तुल्य हैं। ऐसी लीलाओं का आस्वादन करने पर लोग अन्य वस्तुओं की इच्छाएँ भूल जाते हैं।

45 हे प्रभु, आप परमात्मा हैं, इसलिए आप हमें सर्वाधिक प्रिय हैं। हम सभी आपके भक्त हैं, तो भला हम किस तरह आपको त्याग सकते हैं या आपके बिना क्षण भर भी रह सकते हैं? हम लेटते-बैठते, चलते, खड़े होते, नहाते, खेलते, खाते या अन्य कुछ करते, आपकी ही सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं।

46 आपके द्वारा उपभोग की गई मालाओं, सुगन्धित तेलों, वस्त्रों तथा गहनों से अपने को सजाकर तथा आपका जूठन खाकर हम आपके दास निश्चय ही आपकी माया को जीत सकेंगे।

47 आध्यात्मिक अभ्यास में गम्भीरता से प्रयास करनेवाले ऋषिगण, ऊर्ध्वरेता, शान्त तथा निष्पाप संन्यासी आध्यात्मिक धाम को प्राप्त करते हैं, जो ब्रह्म कहलाता है।

48-49 हे प्रभु, आपकी प्रेममयी लीलाएँ इस भौतिक जगत के भीतर सामान्य लोगों के कार्यकलापों की तरह मोहित करनेवाली हैं। हे महायोगी, यद्यपि हम सकाम कर्म के मार्ग पर विचरण करनेवाले बद्धजीव हैं, तथापि हम आपकी मुसकाती चितवन और हास-परिहास का स्मरण करते हुए, आपने जो भी अद्भुत कर्म किये हैं उन लीलाओं का स्मरण – कीर्तन करके और आपके भक्तों की संगति में आपके विषय में सुनकर – इस भौतिक जगत के अंधकार को पार कर जायेंगे।

50 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजा परीक्षित, इस तरह प्रार्थना किये जाने पर देवकी-पुत्र कृष्ण ने अपने प्रिय अनन्य दास उद्धव से कहा।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

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Comments

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