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अध्याय नब्बे – भगवान कृष्ण की महिमाओं का सारांश (10.90)

1-7 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: लक्ष्मीपति भगवान सुखपूर्वक अपनी राजधानी द्वारका पुरी में रहने लगे, जो समस्त ऐश्वर्यों से युक्त थी और गणमान्य वृष्णियों तथा आलंकारिक वेषभूषा से सजी उनकी पत्नियों से आपूरित थी। नगर के प्रमुख मार्गों में मद चुवाते उन्मत्त हाथियों और सजे-धजे घुड़सवारों, पैदल सैनिकों तथा सोने से सुसज्जित चमचमाते रथों पर सवार सिपाहियों की भीड़ लगी रहती। शहर में पुष्पित वृक्षों की पंक्तियों वाले अनेक उद्यान तथा वाटिकाएँ थी, जहाँ भौंरे गुनगुनाते और विभिन प्रकार के पक्षी कलरव करते। भगवान कृष्ण अपनी सोलह हजार पत्नियों के एकमात्र प्रियतम थे। इतने ही रूपों में अपना विस्तार करके, उन्होंने प्रत्येक रानी के साथ उनके सुसज्जित आवासों में रमण किया। इन महलों के प्रांगण में निर्मल तालाब थे, जो खिले हुए उत्पल, कल्हार, कुमुद तथा अम्भोज कमलों के पराग-कणों से सुगन्धित थे और कूजते हुए पक्षियों के झुण्डों से भरे थे। सर्वशक्तिमान प्रभु इन तालाबों में तथा विविध नदियों में प्रवेश कर जल-क्रीड़ा का आनन्द प्राप्त करते।

8-9 जब गन्धर्वों ने हर्षपूर्वक मृदंग, पणव तथा आनक नामक ढोलों के साथ उनकी प्रशंसा में गीत गाये एवं सूतों, मागधों तथा वन्दियों ने वीणा बजाकर उनकी प्रशंसा में कविताएँ सुनाईं, तो भगवान कृष्ण अपनी पत्नियों के साथ जल-क्रीड़ा करने लगे। रानियाँ ठिठोली करती हुई, उन पर पिचकारियों से पानी के फुहारे छोड़ती और वे भी प्रत्युत्तर में उन पर पानी छिड़क देते। इस प्रकार से कृष्ण ने अपनी रानियों के साथ उसी तरह क्रीड़ा की, जिस तरह यक्षराज 'यक्षी अप्सराओं' के साथ क्रीड़ा करता है।

10-13 अपने प्रियतम पर जल छिड़कने से उनके विशाल जुड़ों से बँधे फूल बिखर गये। वे उनकी पिचकारी छीनने के बहाने, उनका आलिंगन कर लेती थीं। उनका स्पर्श करने से उनके मुखमण्डल हँसी से चमचमाने लगते, इस तरह कृष्ण की रानियाँ देदीप्यमान सौंदर्य से चमचमा रही थीं। तत्पश्चात, भगवान कृष्ण तथा उनकी पत्नियों ने जलक्रीड़ा के दौरान अपने पहने हुए गहने तथा वस्त्र, उन नटों तथा नर्तकियों को दे दिये जो गाना गाकर तथा वाद्य बजाकर, अपनी जीविका कमाते थे। इस तरह भगवान कृष्ण अपनी रानियों से क्रीड़ा करके और अपने हावभावों, बातों, चितवनों, हँसी, परिहास, छेड़छाड़ तथा आलिंगन द्वारा उनके हृदयों को पूरी तरह मुग्ध कर देते।

14 रानियाँ भावमय आत्मविस्मृति में जड़ बन जातीं और उनके मन एकमात्र कृष्ण में लीन हो जाते। तब, वे अपने कमलनेत्र प्रभु के विषय में सोचती हुई इस तरह बोलतीं मानों पागल (उन्मादग्रस्त) हों। कृपया ये शब्द मुझसे सुनें, जैसे जैसे मैं उन्हें बता रहा हूँ।

15 रानियों ने कहा: हे कुररी पक्षी, तुम विलाप कर रही हो। अब तो रात्रि है और भगवान इस जगत में कहीं गुप्त स्थान में सोये हुए हैं। किन्तु हे सखी, तुम जागी हुई हो और सोने में असमर्थ हो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी ही तरह कमलनेत्र भगवान की उदार कौतुक-भरी हँसीली चितवन से तुम्हारा हृदय अन्दर तक बिध गया हो ?

16 हे बेचारी चक्रवाकी, तुम अपनी आँखें मूँदकर भी अपने अदृष्ट साथी के लिए रातभर करुणापूर्वक बहकती रहती हो। अथवा कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारी ही तरह तुम भी अच्युत की दासी बन चुकी हो और अपने जूड़े में उस माला को लगाना चाहती हो, जिसे वे अपने पाद स्पर्श से धन्य कर चुके हैं?

17 हे प्रिय समुद्र, तुम सदैव गरजते रहते हो, रात में सोते नहीं। क्या तुम्हें उन्निद्र रोग हो गया है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुकुन्द ने हमारी ही तरह, तुमसे तुम्हारे चिन्ह छीन लिए हैं और तुम उन्हें फिर पाने में निराश हो।

18 हे प्रिय चन्द्रमा, घोर यक्ष्मा रोग (क्षयरोग) से ग्रसित होने से तुम इतने क्षीण हो गये हो कि तुम अपनी किरणों से अंधकार को भगाने में असफल हो। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम इसलिए अवाक प्रतीत हो रहे हो, क्योंकि हमारी ही तरह तुम भी मुकुन्द द्वारा दिये गये, उत्साहप्रद वादों को स्मरण नहीं कर सकते हो?

19 हे मलय समीर, ऐसा हमने क्या किया है कि तुम हमसे अप्रसन्न हो और हमारे उन हृदयों में प्रेमाकर्षण जागृत कर रहे हो, जो पहले ही गोविन्द की चितवनों से विदीर्ण हो चुके हैं?

20 हे पूज्य बादल, निस्सन्देह तुम यादवों के उन प्रधान के अत्यन्त प्रिय हो, जो श्रीवत्स का चिन्ह धारण किए हुए हैं। तुम भी हमारी ही तरह उनसे प्रेम द्वारा बद्ध हो और उनका ही चिन्तन करते हो। तुम्हारा हृदय हमारे हृदयों की ही तरह अत्यन्त उत्सुकता से किंकर्तव्यविमूढ़ है और जब तुम उनका बारम्बार स्मरण करते हो, तो आँसुओं की धारा बहाते हो। कृष्ण की संगति ऐसा ही दुख लाती है ।

21 रे मधुर कण्ठ वाली कोयल, तुम मृत को भी जीवित करनेवाली वह बोली बोल रही हो, जिसे हमने एक बार अत्यन्त मधुरभाषी अपने प्रेमी से सुनी थी। कृपा करके मुझे बताओ कि मैं तुम्हें प्रसन्न करने के लिए आज क्या कर सकती हूँ?

22 हे उदार पर्वत, तुम न तो हिलते-डुलते हो, न बोलते-चालते हो। तुम अवश्य ही किसी अत्यन्त महत्त्व वाली बात पर विचार कर रहे होगे। अथवा क्या तुम हमारी ही तरह अपने शिखिरों पर वसुदेव के लाड़ले के पाँवों को धारण करना चाहते हो?

23 हे समुद्र-पत्नी नदियों, अब तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। हाय! तुम एकदम दुबली हो गई हो और तुम्हारी कमलों की सम्पत्ति लुप्त हो गई है। तो क्या तुम हमारी तरह हो, जो इसलिए म्लान हो रही हैं, क्योंकि उन्हें हृदयों को ठगने वाले अपने प्रिय पति मधुपति की स्नेहिल चितवन नहीं मिल रही?

24 हे हंस, स्वागत है। कृपया यहाँ बैठो और थोड़ा दूध पियो। हमें अपने प्रिय शूरवंशी के कुछ समाचार बतलाओ। हम जानती हैं कि तुम उनके दूत हो। वे अजेय प्रभु कुशल से तो हैं? क्या हमारा वह अविश्वसनीय मित्र अब भी उन शब्दों का स्मरण करता है, जिन्हें उसने बहुत काल पूर्व कहा था? हम उसके पास क्यों जाँय और उसकी पूजा क्यों करें? हे क्षुद्र स्वामी के सेवक, जाकर उससे कहो कि वह लक्ष्मी के बिना यहाँ आकर हमारी इच्छाएँ पूरी करे। क्या वही एकमात्र स्त्री है, जो उसके प्रति विषेशरूप से अनुरक्त हो गया है?

25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: योग के समस्त ईश्वरों के ईश्वर भगवान कृष्ण के ऐसे भावमय प्रेम में बोलती तथा कार्य करती हुई, उनकी प्रिय पत्नियों ने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किया।

26 भगवान जिनका महिमागान असंख्य गीतों द्वारा असंख्य प्रकार से होता हैं, वे उन समस्त स्त्रियों के मन को बलपूर्वक आकर्षित करते हैं, जो उनके विषय में श्रवण मात्र करती हैं। तो फिर उन स्त्रियों के विषय में क्या कहा जाय, जो प्रत्यक्ष रूप से उनका दर्शन करती हैं?

27 उन स्त्रियों द्वारा, जिन्होंने शुद्ध प्रेमभाव से ब्रह्माण्ड के गुरु की सेवा की उनके द्वारा सम्पन्न महान तपस्या का भला कोई कैसे वर्णन कर सकता है? उन्हें अपना पति मानकर, उन्होंने उनके पाँव दबाने जैसी घनिष्ठ सेवाएँ कीं।

28 इस तरह वेदों द्वारा आदेशित कर्तव्यों का पालन करते हुए सन्त भक्तों के लक्ष्य भगवान कृष्ण ने बारम्बार प्रदर्शित किया कि कोई व्यक्ति घर पर किस तरह धर्म, आर्थिक विकास तथा नियमित इन्द्रिय तृप्ति के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।

29 धार्मिक गृहस्थ जीवन के सर्वोच्च आदर्शों को पूरा करते हुए, भगवान कृष्ण की 16100 से अधिक पत्नियाँ थीं। इन रत्न जैसी स्त्रियों में से रुक्मिणी इत्यादि आठ प्रमुख रानियाँ थीं।

30 हे राजन, मैं पहले ही इनके पुत्रों के साथ साथ इनका क्रमिक वर्णन कर चुका हूँ।

31 ऐसे भगवान कृष्ण ने, जिनका प्रयास कभी विफल नहीं होता, अपनी हर एक पत्नी से दस-दस पुत्र उत्पन्न किये।

32 इन असीम पराक्रम वाले पुत्रों में से अठारह महान ख्याति वाले महारथ थे। अब मुझसे उनके नाम सुनो।

33-34 इनके नाम थे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान, भानु, साम्ब, मधु, बृहदभानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि तथा न्यग्रोध।

35 हे राजाओं में श्रेष्ठ, मधु के शत्रु भगवान कृष्ण द्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रों में से रुक्मिणी-पुत्र प्रद्युम्न सर्वप्रमुख था। वह अपने पिता के ही समान था।

36 महारथी प्रद्युम्न ने रुक्मी की पुत्री रुक्मवती से विवाह किया, जिसने अनिरुद्ध को जन्म दिया। वह दस हजार हाथियों जितना बलवान था।

37 रुक्मी की पुत्री के पुत्र अनिरुद्ध ने रुक्मी के पुत्र की कन्या रोचना से विवाह किया। उससे वज्र उत्पन्न हुआ, जो यदुओं के मूसल-युद्ध के बाद बचने वालों में से एक था।

38 वज्र से प्रतिबाहु उत्पन्न हुआ, जिसका पुत्र सुबाहु था। सुबाहु का पुत्र शान्तसेन था और शान्तसेन से शतसेन उत्पन्न हुआ।

39 इस परिवार में ऐसा कोई भी व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ, जो निर्धन हो या सन्तानहीन, अल्पायु, निर्बल या ब्राह्मण संस्कृति के प्रति उपेक्षावान हो।

40 यदुवंश ने विख्यात कृत्यों वाले असंख्य महापुरुषों को जन्म दिया। हे राजन, उन सबों की गिनती दस हजार से अधिक वर्षों में भी नहीं की जा सकती।

41 मैंने प्रामाणिक स्रोतों से सुना है कि यदुवंश ने अपने बालकों को शिक्षा देने के लिए ही 3,88,00,000 (3 करोड़ 88 लाख) शिक्षक नियुक्त किये थे।

42 भला महान यादवों की गणना कौन कर सकता है, जबकि उनमें से राजा उग्रसेन के साथ तीन नील (3,00,00,00,00,00,000) परिचारक रहते थे।

43 दिति की जंगली सन्तानों ने जो भूतकाल में देवताओं तथा असुरों के मध्य हुए युद्धों में मारी गई थीं, मनुष्यों के बीच जन्म लिया और वे उद्धत होकर सामान्य जनता को सताने लगे थे।

44 इन असुरों का दमन करने के लिए भगवान हरि ने देवताओं से यदुकुल में अवतार लेने के लिए कहा। हे राजन ऐसे 101 कुल थे।

45 चूँकि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, अतएव यादवों ने उन्हें अपना परम प्रमाण (सत्ता) मान लिया और इन सबों में से, जो उनके घनिष्ठ संगी थे उन्होंने विशेष रूप से उन्नति की ।

46 वृष्णिजन कृष्णभावनामृत में इतने लीन थे कि वे सोते, बैठते, घूमते, बातें करते, खेलते, नहाते इत्यादि कार्य करते समय अपने शरीर की सुधि-बुधि भूल गये।

47 स्वर्ग की गंगा पवित्र तीर्थ है, क्योंकि उसका जल भगवान के चरणों को पखारता है। किन्तु जब भगवान ने यदुओं के बीच अवतार लिया, तो उनके यश के कारण पवित्र स्थान के रूप में गंगा नदी का महत्त्व कम हो गया। किन्तु कृष्ण से घृणा करने वालों तथा उनसे प्रेम करने वालों ने आध्यात्मिक लोक में उन्हीं के समान नित्य स्वरूप प्राप्त किया। अप्राप्य तथा परम आत्मतुष्ट लक्ष्मी जिनकी कृपा के लिए हर कोई संघर्ष करता है एकमात्र उन्हीं की हैं। उनके नाम का श्रवण या कीर्तन करने से समस्त अमंगल नष्ट हो जाता है। एकमात्र उन्हीं ने ऋषियों की विविध शिष्य परम्पराओं के सिद्धान्त निश्चित किये हैं। इनमें कौन-सा आश्चर्य है कि कालचक्र, जिसका हथियार हो, उसने पृथ्वी के भार को उतारा?

48 भगवान श्रीकृष्ण जननिवास के नाम से विख्यात हैं अर्थात वे समस्त जीवों के परम आश्रय हैं। वे देवकीनन्दन या यशोदानन्दन भी कहलाते हैं। वे यदुकुल के पथ-प्रदर्शक हैं और वे अपनी बलशाली भुजाओं से समस्त अमंगल को तथा समस्त अपवित्र व्यक्तियों का वध करते हैं। वे अपनी उपस्थिति से समस्त चर तथा अचर प्राणियों के अमंगल को नष्ट करते हैं। उनका आनन्दपूर्ण मन्द हासयुक्त मुख वृन्दावन की गोपियों के माधुर्य-रस को बढ़ाने वाला है। उनकी जय हो! और वे प्रसन्न हों!

49 अपने प्रति भक्ति के सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिए यदुश्रेष्ठ भगवान कृष्ण उन लीला-रूपों को स्वीकार करते हैं, जिनका यहाँ पर श्रीमदभागवत में महिमा-गान हुआ है। जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक उनके चरणकमलों की सेवा करने का इच्छुक हो, उसे उन कार्यकलापों को सुनना चाहिए, जिन्हें वे प्रत्येक अवतार में सम्पन्न करते हैं – वे कार्यकलाप, जो उनके द्वारा धारण किए जानेवाले रूपों के अनुरूप हैं। इन लीलाओं के वर्णनों को सुनने से सकाम कर्मों के फल विनष्ट होते हैं ।

50 नित्यप्रति अधिकाधिक निष्ठापूर्वक भगवान मुकुन्द की सुन्दर कथाओं के नियमित श्रवण, कीर्तन तथा ध्यान से मर्त्य प्राणी को भगवान का दैवीधाम प्राप्त होगा, जहाँ मृत्यु की दुस्तर शक्ति का शासन नहीं है। इसी उद्देश्य से अनेक व्यक्तियों ने, जिनमें बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हैं अपने-अपने संसारी घरों को त्याग कर जंगल की राह ली।

इस प्रकार श्रीमद भागवतम (दशम स्कन्धके समस्त अध्यायों के भक्ति वेदान्त श्लोकार्थ पूर्ण हुए।

-::हरि ॐ तत् सत्::-

समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र माँगीलाल चौहान

 

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Comments

  • नित्यप्रति अधिकाधिक निष्ठापूर्वक भगवान मुकुन्द की सुन्दर कथाओं के नियमित श्रवण, कीर्तन तथा ध्यान से मर्त्य प्राणी को भगवान का दैवीधाम प्राप्त होगा, जहाँ मृत्यु की दुस्तर शक्ति का शासन नहीं है।
    हरि बोल!
  • https://youtu.be/9DRXVx99Ss8
    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏
  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
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