10892820299?profile=RESIZE_400x

अध्याय नवासी – कृष्ण तथा अर्जुन द्वारा ब्राह्मण पुत्रों का वापस लाया जाना (10.89)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: हे राजन, एक बार जब सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों का समूह वैदिक यज्ञ कर रहा था, तो उनके बीच यह वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ कि तीन मुख्य देवों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है?

2 हे राजन, इस प्रश्न का हल ढूँढने के इच्छुक ऋषियों ने ब्रह्मा के पुत्र भृगु को उत्तर खोजने के लिए भेजा। वे सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा के दरबार में गये।

3 यह परीक्षा लेने के लिए कि ब्रह्माजी कहाँ तक सतोगुण प्राप्त हैं, भृगु ने न तो उन्हें प्रणाम किया न ही स्तुतियों द्वारा उनका महिमा-गान किया। अतः वे भृगु पर क्रुद्ध हो गये।

4 यद्यपि उनके हृदय के भीतर अपने पुत्र के प्रति क्रोध उठ रहा था, तथापि ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि के प्रयोग से, उसे वैसे ही दबा लिया, जिस तरह अग्नि जल से बुझ जाती है।

5 तत्पश्चात भृगु कैलाश पर्वत पर गये। शिवजी उनका आलिंगन करने प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े।

6-7 किन्तु भृगु ने यह कहते हुए उनके आलिंगन का त्याग कर दिया कि आप तो विपथगामी हैं। यह सुनकर शिवजी क्रुद्ध हो उठे, उन्होंने अपना त्रिशूल उठा लिया और भृगु को जान से मारने ही वाले थे कि देवी उनके चरणों पर गिर पड़ीं और उन्होंने उन्हें शान्त करने के लिए कुछ शब्द कहे। तब भृगु वैकुण्ठ गये, जहाँ भगवान जनार्दन निवास करते हैं।

8-9 वे भगवान के पास तक गये। वहाँ भगवान श्रीलक्ष्मीजी की गोद में लेटे हुए थे। भृगु ने उनकी छाती पर पाँव से प्रहार किया। भगवान देवी लक्ष्मी सहित – आदर सूचित करने के लिए उठकर खड़े हो गये। शुद्ध भक्तों के चरम लक्ष्य भगवान ने मुनि के समक्ष अपना सिर झुकाया और उनसे कहा, “हे ब्राह्मण, आपका स्वागत है। आप इस आसन पर बैठें और कुछ क्षण विश्राम करें। हे प्रभु! "आपके आगमन पर ध्यान न दे पाने के लिए हमें क्षमा कर दें।”

10-11 कृपा करके, अपने पाँवों के प्रक्षालित जल को देकर, मुझे, मेरे धाम तथा लोकपालक भक्तों के राज्यों को पवित्र कीजिये। निस्सन्देह यही जल तीर्थस्थानों को पवित्र बनाता है। हे प्रभु, आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय बन गया हूँ। वह मेरी छाती पर निवास करने के लिए सहमत होंगी, क्योंकि आपके पाँव ने इसके सारे पापों को दूर कर दिया है।

12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान वैकुण्ठ द्वारा कहे गये गम्भीर शब्दों को सुनकर भृगु संतुष्ट तथा प्रसन्न हो उठे। वे भक्तिमय आनन्द से विह्वल होकर निःशब्द हो गए और उनकी आँखें अश्रुओं से भर आई।

13 हे राजन, तब भृगु वैदिक विद्वानों की यज्ञशाला में लौट आये और अपना सारा अनुभव कह सुनाया।

14-17 भृगु के विवरण को सुनकर चकित हुए मुनियों के सारे सन्देह दूर हो गये और वे आश्वस्त हो गये कि विष्णु सबसे बड़े देव हैं। उन्हीं से शान्ति, निर्भयता, धर्म के अनिवार्य सिद्धान्त, ज्ञान सहित वैराग्य, आठों योगशक्तियाँ तथा मन के सारे कल्मषों को धो डालने वाली, उनकी महिमा प्राप्त होती है। वे शान्त तथा समभाव वाले निपुण उन मुनियों के परम गन्तव्य जाने जाते हैं, जिन्होंने सारी हिंसा का परित्याग कर दिया है। उनका स्वरूप शुद्ध सत्त्वमय है और ब्राह्मण उनके पूज्य देव हैं। बुद्धिमान व्यक्ति, जिन्होंने आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर ली है, निःस्वार्थ भाव से उनकी पूजा करते हैं।

18 भगवान तीन प्रकार के व्यक्त प्राणियों में विस्तार करते हैं – ये हैं राक्षस, असुर तथा देवता। ये तीनों ही भगवान की भौतिक शक्ति से उत्पन्न हैं और उसके गुणों से बद्ध हैं। किन्तु इन तीन गुणों में से सतोगुण ही जीवन की अन्तिम सफलता प्राप्त करने का साधन है।

19 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले विद्वान ब्राह्मणों ने समस्त लोगों के संशयों को दूर करने के लिए यह निष्कर्ष निकाला। तत्पश्चात उन्होंने भगवान के चरणकमलों की भक्ति की और वे सभी उनके धाम को प्राप्त हुए।

20 श्री सूत गोस्वामी ने कहा: व्यासदेव मुनि के पुत्र श्रील शुकदेव गोस्वामी के कमलमुख से इस प्रकार सुगन्धित अमृत बहा। परम पुरुष का यह अद्भुत महिमा-गायन भौतिक संसार के सारे भय को नष्ट करने वाला है। जो यात्री इस अमृत को अपने कान के छेदों से निरन्तर पीता रहता है, वह सांसारिक जीवन के मार्गों पर भ्रमण करने से उत्पन्न थकान को भूल जायेगा।

21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: एक बार द्वारका में एक ब्राह्मण की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया किन्तु, हे राजन, यह नवजात शिशु पृथ्वी का स्पर्श करते ही मर गया।

22 ब्राह्मण ने उस मृत शरीर को ले जाकर राजा उग्रसेन के दरबार के द्वार पर रख दिया। फिर क्षुब्ध तथा दीन-हीन भाव से शोक-विलाप करता वह इस प्रकार बोला।

23 ब्राह्मण ने कहा: ब्राह्मणों के इस शठ, लालची शत्रु तथा इन्द्रिय-सुख में लिप्त रहने वाले अयोग्य शासक द्वारा, अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने में हुई, किसी त्रुटि के कारण मेरे पुत्र की मृत्यु हुई है।

24 हिंसा में सुख पाने वाले तथा अपनी इन्द्रियों को वश में न कर सकने वाले दुष्ट राजा की सेवा करने वाले नागरिकों को निरन्तर निर्धनता तथा दुख का सामना करना पड़ता है।

25 उस बुद्धिमान ब्राह्मण को अपने दूसरे तथा तीसरे पुत्र के साथ भी यही दुख भोगना पड़ा। प्रत्येक बार वह अपने मृत पुत्र का शरीर राजा के दरवाजे पर छोड़ जाता और वही शोक-गीत गाता।

26-27 जब उस ब्राह्मण का नौवाँ पुत्र मरा, तो भगवान केशव के निकट खड़े अर्जुन ने उस ब्राह्मण के विलाप को सुना अतः अर्जुन ने ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण, क्या बात है? क्या यहाँ पर कोई राजसी दरबार का निम्न सदस्य अर्थात क्षत्रिय-बन्धु नहीं है, जो अपने हाथ में धनुष लेकर आपके घर के सामने खड़ा रहे? ये क्षत्रिय ऐसा आचरण कर रहे हैं, मानो यज्ञ में व्यर्थ ही लगे हुए ब्राह्मण हों।

28 “जिस राज्य में ब्राह्मण अपनी नष्ट हुई सम्पत्ति, पत्नी तथा सन्तान के लिए शोक करते हैं, उसके शासक निरे वञ्चक हैं, जो अपना उदर पोषण करने के लिए राजाओं का अभिनय करते हैं।"

29 हे प्रभु, मैं ऐसे अत्यन्त दुखियारे आप तथा आपकी पत्नी की सन्तान की रक्षा करूँगा। यदि मैं यह वचन पूरा न कर सका, तो मैं अग्नि में प्रवेश करूँगा।

30-31 ब्राह्मण ने कहा: न तो संकर्षण, वासुदेव, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रद्युम्न, न अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध ही, मेरे पुत्रों को बचा सके तो फिर तुम क्यों ऐसा कौशल करने का प्रयास करने जा रहे हो, जिसे ब्रह्माण्ड के स्वामी भी नहीं कर सके? हमें तुम पर विश्वास नहीं हो रहा।

32 श्री अर्जुन ने कहा: हे ब्राह्मण, मैं न तो संकर्षण हूँ, न कृष्ण और न ही कृष्ण का पुत्र, प्रत्युत मैं गाण्डीवधारी अर्जुन हूँ।

33 हे ब्राह्मण, शिवजी को भी तुष्ट करने में सफल मेरी क्षमता को कम न करें। हे स्वामी, मैं आपके पुत्रों को वापस ले आऊँगा, चाहे मुझे युद्ध में साक्षात काल को ही क्यों न पराजित करना पड़े।

34 हे शत्रुओं को सताने वाले, इस तरह अर्जुन द्वारा आश्वस्त किये जाने पर अर्जुन के पराक्रम की घोषणा सुनकर तुष्ट हुआ ब्राह्मण अपने घर चला गया।

35 वह पूज्य ब्राह्मण पत्नी के प्रसवकाल के समय अत्यन्त चिन्तित होकर अर्जुन के पास गया और उनसे याचना की – “कृपा करके मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लें, बचा लें।”

36 शुद्ध जल का स्पर्श, भगवान महेश्वर को नमस्कार तथा दैवी अस्त्रों के लिए मंत्रों का स्मरण करके अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष की डोरी चढ़ाई।

37 अर्जुन ने विविध प्रक्षेपास्त्रों से लगे बाणों द्वारा उस सौरी (प्रसूति)-गृह को घेर दिया। उसने बाणों का एक सुरक्षात्मक पिंजरा बनाकर उस गृह को चारों ओर से आच्छादित कर दिया।

38 ब्राह्मण की पत्नी ने बालक को जन्म दिया वह नवजात शिशु कुछ समय तक तो रोता रहा, किन्तु सहसा वह सशरीर आकाश में अदृश्य हो गया।

39 तब उस ब्राह्मण ने कृष्ण की उपस्थिति में अर्जुन का उपहास किया, “जरा देखो तो मैं कितना मूर्ख हूँ कि मैंने इस डींग मारने वाले नपुंसक पर विश्वास किया।”

40 जब न ही प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, राम और न ही केशव किसी व्यक्ति को बचा सकते हैं, तो भला अन्य कौन उसकी रक्षा कर सकता है?

41 “इस झूठे अर्जुन को धिक्कार है, इस आत्म-प्रशंसक के धनुष को धिक्कार है। अर्जुन यह सोचते हुए मोहग्रस्त हो चुका है कि वह ऐसे व्यक्ति को वापस ला सकता है, जिसे विधाता ने उठा लिया है।"

42 जब वह बुद्धिमान ब्राह्मण अर्जुन को भला-बुरा कहकर अपमानित कर रहा था, तो अर्जुन ने तुरन्त ही संयमनी पुरी जाने के लिए, जहाँ यमराज का वास है, योगविद्या का प्रयोग किया।

43-44 वहाँ ब्राह्मण पुत्र को न देखकर अर्जुन अग्नि, निरऋति, सोम, वायु तथा वरुण की पुरियों में गया। हाथ में हथियार तैयार रखे हुए उसने अधोलोक से लेकर स्वर्ग के ऊपर तक ब्रह्माण्ड के सारे प्रदेशों में खोज की। अन्त में ब्राह्मण के पुत्र को कहीं भी न पाकर, अर्जुन ने अपना वचन पूरा न करने के कारण पवित्र अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय किया किन्तु जब वह ऐसा करने जा रहा था, तो भगवान कृष्ण ने उसे रोक लिया और उससे निम्न-लिखित शब्द कहे।

45 भगवान कृष्ण ने कहा: मैं तुम्हें ब्राह्मण के पुत्र दिखलाऊँगा, अतः तुम स्वयं को इस प्रकार छोटा मत बनाओ। यही मनुष्य, जो अभी हमारी आलोचना करते हैं, शीघ्र ही हमारी निष्कलुष कीर्ति को स्थापित करेंगे।

46 अर्जुन से इस प्रकार कहकर भगवान ने अर्जुन को अपने दैवीरथ में बैठाया और वे दोनों एकसाथ पश्चिम दिशा की ओर रवाना हो गये।

47 भगवान का रथ मध्यवर्ती ब्रह्माण्ड के सात द्वीपों के ऊपर से गुजरा। तब उस रथ ने लोकालोक सीमा पार की और पूर्ण अंधकार के विशाल क्षेत्र में प्रवेश किया।

48-49 उस अंधकार में रथ के शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष तथा बलाहक नामक घोड़े अपना मार्ग भटक गये। हे राजन, उन्हें इस अवस्था में देखकर, योगेश्वरों के भी परम स्वामी भगवान कृष्ण ने रथ के आगे, अपने सुदर्शन चक्र को भेज दिया। वह चक्र सैकड़ों सूर्य की तरह चमक रहा था।

50 भगवान का सुदर्शन चक्र अपने प्रज्ज्वलित तेज के साथ अंधकार में प्रविष्ट हुआ। मन की गति से आगे बढ़ते हुए उसने आदि पदार्थ से विस्तीर्ण भयावह घने अंधकार को उसी तरह काट दिया, जिस तरह भगवान राम के धनुष से छूटा तीर–शत्रु की सेना को काटता हुआ निकल जाता है।

51 सुदर्शन चक्र के पीछे जाता हुआ, रथ अंधकार को पार कर सर्वव्यापी ब्रह्म-ज्योति के अनन्त आध्यात्मिक प्रकाश में जा पहुँचा। इस चमचमाते तेज को देखकर अर्जुन की आँखें दुखने लगीं, अतः उसने आँख बन्द कर लीं।

52 उस क्षेत्र से वे जलराशि में प्रविष्ट हुए, जो शक्तिशाली वायु द्वारा मथी जा रही विशाल लहरों से तेजयुक्त थी। उस समुद्र के भीतर अर्जुन ने एक अद्भुत महल देखा, जो उसके द्वारा अभी तक देखी गई हर वस्तु से अधिक चमकीला था। इसका सौन्दर्य चमकीली मणियों से जड़े हुए हजारों अलंकृत खम्भों के कारण बढ़ गया था।

53 उस स्थान पर विशाल विस्मयकारी अनन्त शेष सर्प था, जो अपने हजारों फनों पर स्थित मणियों से निकलने वाले प्रकाश से चमचमा रहा था और फनों से दुगुनी भयावनी आँखों से परावर्तित हो रहा था । वह श्वेत कैलाश पर्वत की तरह लग रहा था और उसकी गर्दन तथा जीभ गहरे नीले रंग की थीं।

54-56 तत्पश्चात अर्जुन ने सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान भगवान महाविष्णु को सर्पशय्या पर सुखपूर्वक बैठे देखा। उनका नील वर्ण घने बादल के रंग का था, वे सुन्दर पीताम्बर पहने थे और उनका मुखमण्डल मनोहर लग रहा था। उनकी चौड़ी आँखें अत्यन्त आकर्षक थीं। उनके आठ लम्बे सुन्दर बाजू थे। उनके बालों के घने गुच्छे – मुकुट तथा कुण्डलों को विभूषित करनेवाले बहुमूल्य मणियों के गुच्छों से परावर्तित प्रकाश से नहाये हुए थे। वे कौस्तुभ मणि, श्रीवत्स चिन्ह तथा जंगली फूलों की माला धारण किये हुए थे। सर्वोच्च ईश्वर की सेवा में सुनन्द तथा नन्द जैसे निजी संगी, उनका चक्र तथा अन्य हथियार साकार होकर उनकी संगिनी शक्तियाँ पुष्टि, श्री, कीर्ति, अजा एवं उनकी विविध योगशक्तियाँ थीं।

57 भगवान कृष्ण ने इस अनन्त रूप में अपनी ही वन्दना की और अर्जुन ने भी महाविष्णु के दर्शन से चकित होकर उन्हें नमस्कार किया। तत्पश्चात ये दोनों हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़े थे, तो ब्रह्माण्ड के समस्त पालकों के परम स्वामी महाविष्णु मुसकाये और अत्यन्त गम्भीर वाणी में उनसे बोले।

58 महाविष्णु ने कहा: मैं ब्राह्मणों के पुत्रों को यहाँ ले आया था, क्योंकि मैं आप दोनों के दर्शन करना चाह रहा था। आप मेरे अंश हैं, जो धर्म की रक्षा हेतु पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। ज्योंही आप पृथ्वी के भारस्वरूप असुरों का वध कर चुकें आप तुरन्त ही मेरे पास यहाँ वापस आ जाँय।

59 हे महापुरुषों में श्रेष्ठ, यद्यपि आपकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं, किन्तु सामान्य जनों के लाभ हेतु आप नर तथा नारायण मुनियों के रूप में अपने धार्मिक आचरण का आदर्श प्रस्तुत करते रहें।

60-61 सर्वोच्च लोक के परमेश्वर द्वारा इस तरह आदेश दिये जाकर कृष्ण तथा अर्जुन ने ॐ का उच्चारण करके अपनी सहमति व्यक्त की और तब सर्वशक्तिमान महाविष्णु को नमन किया। ब्राह्मण-पुत्रों को लेकर वे द्वारका लौट आये और उन्हें ब्राह्मण को सौंप दिया। वे शिशु वैसे ही रूप में थे, जैसे वे खो गये थे।

62-65 विष्णुधाम को देखकर अर्जुन पूर्णतः विस्मित थे। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य की अद्वितीय शक्ति का प्रदर्शन कृष्ण की कृपा की अभिव्यक्ति मात्र है। अब चूँकि भगवान ने अनेक राजाओं का वध कर दिया था, शेष कार्य अर्जुन पर छोड़ दिया ताकि युधिष्ठिर धार्मिक सिद्धान्तों से राज काज सम्पन्न कर सकें। अपनी सर्वश्रेष्ठता का प्रदर्शन, के उपरान्त भगवान ने उपयुक्त अवसरों पर ब्राह्मणों तथा प्रजा पर इच्छित वस्तुओं की ऐसे वर्षा की, जैसे इन्द्र जल की वर्षा करता है। भगवान कृष्ण ने इस जगत में ऐसी ही अन्य लीलाएँ कीं। सामान्य मानव-जीवन के आनन्द का भोग किया और अनेक यज्ञ सम्पन्न किये।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

E-mail me when people leave their comments –

You need to be a member of ISKCON Desire Tree | IDT to add comments!

Join ISKCON Desire Tree | IDT

Comments

  • https://youtu.be/0nV-ZE7Wu7E
    🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे-
    -------हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏
  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे🙏
This reply was deleted.