अध्याय अट्ठासी -- वृकासुर से शिवजी की रक्षा (10.88)
1 राजा परीक्षित ने कहा: जो देवता, असुर तथा मनुष्य परम वैरागी शिव की पूजा करते हैं, वे सामान्यतया धन सम्पदा तथा इन्द्रिय-तृप्ति का आनन्द प्राप्त करते हैं, जबकि लक्ष्मीपति भगवान हरि की पूजा करने वाले, ऐसा नहीं कर पाते।
2 हम इस विषय को ठीक से समझना चाहते हैं, क्योंकि यह हमें अत्यधिक परेशान किये हुए है। दरअसल इन विपरीत चरित्रों वाले दोनों प्रभुओं की पूजा करने वालों को, जो फल मिलते हैं, वे अपेक्षा के विपरीत होते हैं।
3 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: शिवजी सदैव अपनी निजी शक्ति, प्रकृति के साथ संयुक्त रहते हैं। प्रकृति के तीन गुणों के अनुरोध पर अपने को तीन रूपों में प्रकट करते हुए वे सतो, रजो तथा तमोगुणी अहंकार के त्रितत्त्व को धारण करने वाले हैं।
4 उसी मिथ्या अहंकार के सोलह तत्त्व विकार-रूप में निकले हैं। जब शिवभक्त इन तत्त्वों में से किसी भी विकार की पूजा करता है, तो उसे उसी के अनुरूप सभी प्रकार का भोग्य ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
5 किन्तु भगवान हरि का भौतिक गुणों से कोई सरोकार नहीं रहता। वे सर्वदृष्टा नित्य साक्षी भगवान हैं, जो भौतिक प्रकृति के परे हैं। जो उनकी पूजा करता है, वह भी उन्हीं की तरह भौतिक गुणों से मुक्त हो जाता है।
6 तुम्हारे बाबा राजा युधिष्ठिर ने अपना अश्वमेध यज्ञ पूरा कर लेने के बाद भगवान अच्युत से यही प्रश्न पूछा था, जब वे भगवान से धर्म की व्याख्या सुन रहे थे।
7 राजा के स्वामी तथा प्रभु श्रीकृष्ण, जो सारे लोगों को परम लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे, इस प्रश्न से प्रसन्न हुए। भगवान ने निम्नवत उत्तर दिया, जिसे राजा ने उत्सुकतापूर्वक सुना।
8 भगवान ने कहा: यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हूँ, तो मैं धीरे धीरे उसे उसके धन से वंचित करता जाता हूँ। तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग कर देते हैं। इस प्रकार वह कष्ट पर कष्ट सहता है।
9 जब वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है, तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ।
10 इस तरह धीर बना हुआ व्यक्ति ब्रह्म को, जो आत्मा की सर्वाधिक सूक्ष्म तथा पूर्ण अभिव्यक्ति से एवं अन्तहीन जगत से परे है, सर्वोच्च सत्य के रूप में पूरी तरह से अनुभव करता है। इस तरह यह अनुभव करते हुए कि परम सत्य उसके अपने अस्तित्व का आधार है, वह भौतिक जीवन के चक्र से मुक्त हो जाता है।
11 चूँकि मुझे पूजना कठिन है, इसलिए सामान्यतया लोग मुझे पूजने से कतराते हैं और शीघ्र तुष्ट होने वाले अन्य देवों की पूजा करते हैं। जब लोग इन देवों से राजसी ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, तो वे उद्धत, गर्वोन्मत्त तथा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करनेवाले बन जाते हैं। वे उन देवताओं को भी अपमानित करने का दुस्साहस करते हैं, जिन्होंने उन्हें वर दिये हैं।
12 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्य देवता किसी को शाप या आशीर्वाद देने में समर्थ हैं। शिव तथा ब्रह्मा शाप देने या वर देने में बहुत शीघ्रता करते हैं, किन्तु हे राजन, भगवान अच्युत ऐसे नहीं हैं।
13 इस सम्बन्ध में एक प्राचीन ऐतिहासिक विवरण बतलाया जाता है कि किस तरह वृकासुर को वर माँगने के लिए कहने से कैलाश पर्वत के स्वामी संकट में पड़ गये।
14 एक बार मार्ग में शकुनि-पुत्र वृक नामक असुर की नारद से भेंट हो गयी। इस दुष्ट ने उनसे पूछा कि तीन प्रमुख देवों में से, किसे सबसे जल्दी प्रसन्न किया जा सकता है।
15 नारद ने उससे कहा: तुम शिव की पूजा करो, तो तुम्हें शीघ्र ही सफलता प्राप्त हो सकेगी। वे अपनी पूजा करने वालों के रंचमात्र भी उत्तम गुणों को देखकर तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी रंचमात्र भी त्रुटि देखकर तुरन्त कुपित होते हैं।
16 वे दस सिर वाले रावण से तथा बाण से तब प्रसन्न हो उठे, जब उनमें से प्रत्येक ने राज्य दरबार के वन्दीजनों की तरह उनके यश का गायन किया। तब शिवजी ने उन दोनों को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की, किन्तु इसके फलस्वरूप, उन्हें दोनों के कारण महान संकट उठाना पड़ा।
17 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार उपदेश पाकर, वह असुर केदारनाथ में शिवजी की पूजा करने गया, जहाँ वह अपने शरीर से मांस के टुकड़े काट-काट कर पवित्र अग्नि में, जो कि शिवमुख है, आहुतियाँ देने लगा।
18-19 देवता का दर्शन न पाकर वृकासुर हताश हो गया। अन्त में सातवें दिन केदारनाथ की पवित्र नदी में अपने बाल भिगोकर तथा उन्हें गीला ही रहने देकर, उसने एक कुल्हाड़ा उठाया और अपना सिर काटने लगा। लेकिन उसी क्षण परम दयालु शिवजी यज्ञ-अग्नि से प्रकट हुए, जो साक्षात अग्नि देव जैसे लग रहे थे। ऐसी स्थिति में शिवजी ने असुर को आत्महत्या करने से रोकने के लिए उसकी दोनों बाँहें पकड़ लीं। शिवजी के स्पर्श करने से वृकासुर, एक बार फिर पूर्ण हो गया।
20 शिवजी ने उससे कहा: हे मित्र, बस करो, बस करो, तुम जो भी चाहो, मुझसे माँगो। मैं तुम्हें वही वर दूँगा। हाय! तुमने वृथा ही अपने शरीर को इतनी पीड़ा पहुँचाई, क्योंकि जो लोग शरण के लिए मेरे पास पहुँचते हैं, उनके द्वारा मात्र जल की भेंट से मैं प्रसन्न हो जाता हूँ।
21 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा: उस पापी वृक ने भगवान से जो वर माँगा, वह सारे जीवों को भयाक्रान्त करने वाला था। वृक ने कहा, “मैं जिसके भी सिर पर अपने हाथ रखूँ, उसकी मृत्यु हो जाये।"
22 यह सुनकर भगवान रुद्र कुछ विचलित से लगे। फिर भी हे भारत, उन्होंने अपनी सहमति दिखाने के लिए ॐ का उच्चारण किया और व्यंग्य-हँसी के साथ वृक को वर दे दिया कि, मानो विषैले सर्प को दूध दे दिया हो।
23 भगवान शम्भू के वर की परीक्षा करने के लिए असुर ने उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास किया। तब शिवजी को अपने किये हुए पर भय लगने लगा।
24 जब असुर उनका पीछा करने लगा, तो शिवजी भय से काँपते हुए उत्तर में स्थित अपने निवास से तेजी से भागने लगे। जहाँ तक पृथ्वी, आकाश तथा ब्रह्माण्ड के छोर हैं, वहाँ तक वे दौड़ते रहे।
26 बड़े बड़े देवता, यह न जानने से कि वर का निराकरण कैसे किया जाये, केवल मौन रह सकते हैं। शिवजी समस्त अंधकार के परे वैकुण्ठ के तेजस्वी धाम पहुँचे, जहाँ साक्षात भगवान नारायण प्रकट होते हैं। यह धाम उन विरक्तों का गन्तव्य है, जिन्हें शान्ति प्राप्त हो चुकी है और जो अन्य प्राणियों के प्रति हिंसा छोड़ चुके हैं। वहाँ जाकर कोई फिर से नहीं लौटता।
27-28 अपने भक्तों के कष्टों को हरनेवाले भगवान ने दूर से ही देख लिया कि शिवजी संकट में हैं। अतएव अपनी योगमाया शक्ति से उन्होंने ब्रह्मचारी छात्र का रूप धारण कर लिया, जो उपयुक्त मेखला, मृगचर्म, दण्ड तथा जपमाला से युक्त था और वृकासुर के समक्ष आये। अपने हाथ में कुश घास पकड़े हुए, उन्होंने असुर का विनीत भाव से स्वागत किया।
29 भगवान ने कहा: हे शकुनिपुत्र, तुम थके हुए लग रहे हो। तुम इतनी दूर क्यों आये हो? कुछ क्षण के लिए विश्राम कर लो। आखिर मनुष्य का शरीर ही सारी इच्छाओं को पूरा करने वाला है।
30 हे विभो, यदि आप हमें इस योग्य समझते हैं, तो हमें बतलाइये कि आप क्या करना चाहते हैं। सामान्यतया मनुष्य अन्यों से सहायता लेकर अपने कार्यों को सिद्ध करता है।
31 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह मधुर अमृत की वर्षा करने वाली वाणी में भगवान द्वारा प्रश्न किये जाने पर वृक को लगा कि उसकी थकावट मिट गई है। उसने भगवान से अपने द्वारा की गई हर बात बतला दी।
32 भगवान ने कहा: यदि ऐसा ही है, तो हम शिव के कहने पर विश्वास नहीं कर सकते। शिव तो प्रेतों तथा पिशाचों के वही स्वामी हैं, जिन्हें दक्ष ने एक मानवभक्षी पिशाच बनने का शाप दिया था।
33 हे असुर-श्रेष्ठ, यदि उन पर तुम्हें विश्वास है, क्योंकि वे ब्रह्माण्ड के गुरु हैं, तो अविलम्ब तुम अपना हाथ अपने सिर पर रखो और देख लो कि क्या होता है।
34 हे दानव-श्रेष्ठ, यदि किसी तरह भगवान शम्भू के शब्द असत्य सिद्ध होते हैं, तो उस झूठे का वध कर दो, जिससे वह दुबारा झूठ न बोल सके।
35 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार भगवान के मोहक चतुर शब्दों से मोहित होकर मूर्ख वृक ने बिना समझे कि वह क्या कर रहा है, अपने सिर पर अपना हाथ रख दिया।
36 उसका सिर तत्क्षण विदीर्ण हो गया, मानो वज्र द्वारा प्रहार हुआ हो और वह असुर भूमि पर गिर कर मर गया। आकाश से “जय हो,” "नमस्कार है” तथा “साधु साधु” जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ीं।
37 पापी वृकासुर के मारे जाने पर उत्सव मनाने के लिए दैवी ऋषियों, पितरों तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा की। अब शिवजी खतरे से बाहर थे।
38-39 तब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने खतरे से बाहर हुए गिरीश को सम्बोधित किया, “हे महादेव, मेरे प्रभु, देखें न, यह दुष्ट व्यक्ति अपने ही पाप के फलों से किस तरह मारा गया है। निस्सन्देह, यदि कोई जीव महान सन्तों का अपमान करता है, तो वह सौभाग्य की आशा कैसे कर सकता है? ब्रह्माण्ड के स्वामी तथा गुरु के प्रति अपराध करने के विषय में, तो कहा ही क्या जा सकता है।”
40 भगवान हरि साक्षात प्रकट परम सत्य, परमात्मा तथा अचिन्त्य शक्तियों के असीम सागर हैं। जो कोई भी, उनके द्वारा शिव को बचाने की इस लीला को कहेगा या सुनेगा, वह सारे शत्रुओं तथा जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जायेगा।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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