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अध्याय अठहत्तर – दन्तवक्र, विदूरथ तथा रोमहर्षण का वध (10.78)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अन्य लोकों को गये हुए शिशुपाल, शाल्व तथा पौण्ड्रक के प्रति मैत्री-भाव होने से दुष्ट दन्तवक्र बहुत ही क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में प्रकट हुआ। हे राजन, एकदम अकेला, पैदल एवं हाथ में गदा लिए उस बलशाली योद्धा ने अपने पदचाप से पृथ्वी को हिला दिया।

3 दन्तवक्र को पास आते देखकर भगवान कृष्ण ने तुरन्त अपनी गदा उठा ली। वे अपने रथ से नीचे कूद पड़े और आगे बढ़ रहे अपने प्रतिद्वन्द्वी को रोका, जिस तरह तट समुद्र को रोके रहता है।

4 अपनी गदा उठाते हुए करुष के दुर्मद राजा ने भगवान मुकुन्द से कहा, “अहो भाग्य! अहो भाग्य! कि तुम आज मेरे समक्ष आये हो।"

5 “हे कृष्ण तुम मेरे ममेरे भाई हो, किन्तु तुमने मेरे मित्रों के साथ हिंसा की है और अब मुझे भी मार डालना चाहते हो। इसलिए मैं तुम्हें अपनी वज्र सरीखी गदा से मार डालूँगा।

6 अपने मित्रों का कृतज्ञ मैं तुम्हें मारकर उनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा। सम्बन्धी के रूप में तुम मेरे शरीर के भीतर रोग की तरह प्रच्छन्न शत्रु हो।

7 इस तरह कटु वचनों से कृष्ण को उत्पीड़ित करने का प्रयास करते हुए, जिस तरह किसी हाथी को तेज अंकुश चुभाया जा रहा हो, दन्तवक्र ने अपनी गदा से भगवान के सिर पर आघात किया और शेर की तरह गर्जना की।

8 यद्यपि दन्तवक्र की गदा से उन पर आघात हुआ, किन्तु यदुओं के उद्धारक कृष्ण युद्धस्थल में अपने स्थान से रंच-भर भी नहीं हिले। प्रत्युत अपनी भारी कौमोदकी गदा से उन्होंने दन्तवक्र की छाती के बीचों-बीच प्रहार किया।

9 गदा के प्रहार से दन्तवक्र का हृदय छितरा गया, जिससे वह रक्त वमन करने लगा और निर्जीव होकर भूमि पर गिर गया।

10 हे राजन, तब उस असुर के शरीर से एक अत्यन्त सूक्ष्म एवं अद्भुत प्रकाश की चिनगारी सबके देखते-देखते निकली और कृष्ण में प्रवेश कर गई, ठीक उसी तरह जब शिशुपाल मारा गया था।

11 लेकिन तभी दन्तवक्र का भाई विदूरथ अपने भाई की मृत्यु के शोक में डूबा हाँफता हुआ आया और वह अपने हाथ में तलवार तथा ढाल लिए हुए था। वह भगवान को मार डालना चाहता था।

12 हे राजेन्द्र, ज्योंही विदूरथ ने कृष्ण पर आक्रमण किया, उन्होंने अपने छुरे जैसी धार वाले सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।

13-15 शाल्व तथा उसके सौभयान के साथ-साथ दन्तवक्र तथा उसके छोटे भाई को, जो सब किसी अन्य प्रतिद्वन्द्वी के समक्ष अजेय थे, इस तरह विनष्ट करने के बाद देवताओं, मनुष्यों, ऋषियों, सिद्धों, गन्धर्वों, विद्याधरों, महोरगों के अतिरिक्त अप्सराओं, पितरों, यक्षों, किन्नरों तथा चारणों ने भगवान की प्रशंसा की। जब ये सब उनका यशोगान कर रहे थे और उन पर फूल बरसा रहे थे, तो भगवान गणमान्य वृष्णियों के साथ उत्सवपूर्वक सजाई हुई अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुए।

16 इस तरह समस्त योगशक्ति तथा ब्रह्माण्ड के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण सदैव विजयी होते हैं। एकमात्र पाशविक दृष्टि वाले ही यह सोचते हैं कि कभी-कभी उनकी हार होती है।

17 तब बलराम ने सुना कि कुरुगण पाण्डवों के साथ युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। तटस्थ होने के कारण वे तीर्थस्थानों में स्नान के लिए जाने का बहाना करके वहाँ से कूच कर गये।

18 प्रभास में स्नान करके तथा देवताओं, ऋषियों, पितरों एवं वरेषु मानवों का सम्मान करने के बाद वे ब्राह्मणों को साथ लेकर सरस्वती के उस भाग में गये, जो पश्चिम में समुद्र की ओर बहती है।

19-20 भगवान बलराम ने चौड़े बिन्दु-सरस सरोवर, त्रितकूप, सुदर्शन, विशाल, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ तथा पूर्ववाहिनी सरस्वती को देखा। हे भारत, वे यमुना तथा गंगा नदियों के तटवर्ती सारे तीर्थस्थानों में गये और तब वे नैमिषारण्य आये, जहाँ ऋषिगण बृहद यज्ञ सत्र सम्पन्न कर रहे थे।

21 भगवान के आगमन पर, उन्हें पहचान लेने पर, दीर्घकाल से यज्ञ कर रहे मुनियों ने खड़े होकर, नमस्कार करके तथा उनकी पूजा करके, समुचित ढंग से उनका सत्कार किया।

22 अपनी टोली समेत इस प्रकार पूजित होकर भगवान ने सम्मान-आसन ग्रहण किया। तब उन्होंने देखा कि व्यासदेव का शिष्य रोमहर्षण बैठा ही रहा था।

23 श्री बलराम यह देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुए कि सूत जाति का यह सदस्य किस तरह – उठकर खड़े होने, नमस्कार करने या हाथ जोड़ने में विफल रहा है और समस्त विद्वान ब्राह्मणों से ऊपर बैठा हुआ है।

24 बलराम ने कहा: चूँकि अनुचित रीति से संकर विवाह से उत्पन्न यह मूर्ख इन सारे ब्राह्मणों से ऊपर बैठा है और मुझ धर्मरक्षक से भी ऊपर, इसलिए यह मृत्यु का पात्र है।

25-26 यद्यपि यह दिव्य मुनि व्यास का शिष्य है और उनसे अनेक शास्त्रों को भलीभाँति सीखा है, जिसमें धार्मिक कर्तव्यों की संहिताएँ, इतिहास तथा पुराण सम्मिलित हैं, किन्तु इस सारे अध्ययन से उसमें सद्गुण उत्पन्न नहीं हुए हैं। प्रत्युत उसका शास्त्र अध्ययन किसी नट के द्वारा अपना अंश अध्ययन करने की तरह है, क्योंकि वह न तो आत्मसंयमी है, न विनीत है। वह व्यर्थ ही विद्वान होने का स्वाँग रचता है, यद्यपि वह अपने मन को जीत सकने में विफल रहा है।

27 इस संसार में मेरे अवतार का उद्देश्य ही यह है कि ऐसे दिखावटी लोगों का वध किया जाय, जो धार्मिक बनने का स्वाँग रचते हैं। निस्सन्देह, ये धूर्त सबसे बड़े पापी हैं।

28 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यद्यपि भगवान बलराम ने अपवित्र लोगों को मारना बन्द कर दिया था, किन्तु रोमहर्षण की मृत्यु तो होनी ही थी। अतः भगवान ने कुश घास के तिनके की नोक से छूकर उसका वध कर दिया।

29 सारे मुनि अत्यन्त कातरता से "हाय हाय" कहकर चिल्ला उठे। उन्होंने भगवान संकर्षण से कहा, “हे प्रभु, आपने यह एक अधार्मिक कृत्य किया है।"

30 हे यदुओं के प्रिय, हमने उसे आध्यात्मिक गुरु का आसन प्रदान किया था और उसे दीर्घ आयु के लिए एवं जब तक यह सत्र चलता है तब तक भौतिक पीड़ा से मुक्ति के लिए वचन दिया था।

31-32 आपने अनजाने में एक ब्राह्मण का वध कर दिया है। हे योगेश्वर, शास्त्रों के आदेश भी आपको आज्ञा नहीं दे सकते, किन्तु यदि आप स्वेच्छा से ब्राह्मण के इस वध के लिए संस्तुत शुद्धि कर लेंगे, तो हे सारे जगत के शुद्धिकर्ता, सामान्य लोग आपके उदाहरण से अत्यधिक लाभान्वित होंगे।"

33 भगवान ने कहा: मैं सामान्य लोगों के लाभार्थ इस हत्या के लिए अवश्य ही प्रायश्चित करूँगा। इसलिए कृपा करके मुझे जो कुछ अनुष्ठान सर्वप्रथम करना हो, उसका निर्धारण करें।

34 हे मुनियों, कुछ कहिये तो। आपने उसे जो भी दीर्घायु, शक्ति तथा इन्द्रिय शक्ति के लिए वचन दिये हैं, उन्हें मैं पूरा करवा दूँगा।

35 ऋषियों ने कहा: हे राम, आप ऐसा करें कि आपकी तथा आपके कुश अस्त्र की शक्ति एवं साथ ही हमारा वचन तथा रोमहर्षण की मृत्यु--ये सभी बने रहें।

36 भगवान ने कहा: वेद हमें उपदेश देते हैं कि मनुष्य की आत्मा ही पुत्र रूप में पुनः जन्म लेती है। इस तरह रोमहर्षण का पुत्र पुराणों का वक्ता बने और वह दीर्घायु, प्रबल इन्द्रियों तथा बल से युक्त हो।

37 हे मुनिश्रेष्ठों, आप मुझे अपनी इच्छा बता दें, मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा और हे बुद्धिमान मुनियों, मेरे लिए समुचित प्रायश्चित का भलीभाँति निर्धारण कर दें। क्योंकि मैं यह नहीं जानता कि वह क्या हो सकता है।

38 ऋषियों ने कहा: एक भयावना असुर, जिसका नाम बल्वल है और जो इल्वल का पुत्र है, हर प्रतिपदा को अर्थात शुक्लपक्ष के पहले दिन यहाँ आता है और हमारे यज्ञ को दूषित कर देता है।

39 हे दशार्ह-वंशज, कृपा करके उस पापी असुर का वध कर दें, जो हमारे ऊपर पीब, रक्त, मल, मूत्र, शराब तथा मांस डाल जाता है। आप हमारे लिए यही सबसे उत्तम सेवा कर सकते हैं।

40 तत्पश्चात आप बारह महीनों तक गम्भीर ध्यान के भाव में भारतवर्ष की परिक्रमा करें और तपस्या करते हुए विविध पवित्र तीर्थस्थानों में स्नान करें। इस तरह आप विशुद्ध हो सकेंगे।

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

  • 🙏हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
    हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे🙏
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