अध्याय चौहत्तर - राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का उद्धार (10.74)
1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस प्रकार जरासन्ध वध तथा सर्वशक्तिमान कृष्ण की अद्भुत शक्ति के विषय में भी सुनकर राजा युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान से इस प्रकार कहा।
2 श्री युधिष्ठिर ने कहा: तीनों लोकों के प्रतिष्ठित गुरु तथा विभिन्न लोकों के निवासी एवं शासक आपके आदेश को, जो विरले ही किसी को मिलता है, सिर-आँखों पर लेते हैं।
3 वही कमलनेत्र भगवान आप उन दीन मूर्खों के आदेशों को स्वीकार करते हैं, जो अपने आपको शासक मान बैठते हैं, जबकि हे सर्वव्यापी, यह आपके पक्ष में महान आडम्बर है।
4 किन्तु वस्तुतः परम सत्य, परमात्मा, अद्वितीय आदि पुरुष का तेज उनके कर्मों से न तो किसी प्रकार बढ़ता है, न घटता है, जिस प्रकार सूर्य का तेज उसकी गति से घटता-बढ़ता नहीं है।
5 हे अजित माधव, आपके भक्त तक "मैं तथा मेरा" और "तुम तथा तुम्हारा" में कोई अन्तर नहीं मानते, क्योंकि यह तो पशुओं की विकृत प्रवृत्ति है।
6 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कहकर राजा युधिष्ठिर ने तब तक प्रतीक्षा की जब तक यज्ञ का उपयुक्त समय निकट नहीं आ गया। तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ कराने के लिए उन उपयुक्त पुरोहितों का चुनाव किया, जो विद्वान थे।
7-9 उन्होंने कृष्ण-द्वैपायन, भरद्वाज, सुमन्त, गौतम तथा असित के साथ ही वसिष्ठ, च्यवन, कन्व, मैत्रेय, कवष, तथा त्रित को चुना। उन्होंने विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल तथा पराशर एवं गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, भृगुवंशी, परशुराम, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन तथा अकृतव्रण को भी चुना।
10-11 हे राजन, जिन अन्य लोगों को आमंत्रित किया गया था उनमें द्रोण, भीष्म, कृप, पुत्रों सहित धृतराष्ट्र, महामति विदुर तथा यज्ञ देखने के लिए उत्सुक अन्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सम्मिलित थे। हाँ, सारे राजा दल-बल सहित वहाँ पधारे थे।
12 तत्पश्चात ब्राह्मण पुरोहितों ने यज्ञस्थली की सोने के हल से जुताई की और प्रामाणिक विद्वानों द्वारा नियत प्रथाओं के अनुसार यज्ञ के लिए राजा युधिष्ठिर को दीक्षा दी।
13-15 यज्ञ के निमित्त पात्र सोने के बने थे जिस तरह कि प्राचीनकाल में भगवान वरुण द्वारा सम्पन्न हुए यज्ञ में थे। इन्द्र, ब्रह्मा, शिव और अनेक लोकपाल, सिद्ध तथा गन्धर्व एवं उनके पार्षद, विद्याधर, महान सर्प, मुनि, यक्ष, राक्षस, दैवी पक्षी, किन्नर, चारण तथा पार्थिव राजा--सभी को आमंत्रित किया गया था और वे पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सभी दिशाओं से आये थे। वे यज्ञ के ऐश्वर्य को देखकर रंचमात्र भी चकित नहीं हुए, क्योंकि कृष्णभक्त के लिए यही सर्वथा उपयुक्त था।
16 देवताओं के सदृश शक्तिसम्पन्न पुरोहितों ने वैदिक आदेशों के अनुसार राजा युधिष्ठिर के लिए उसी तरह राजसूय यज्ञ सम्पादित किया जिस तरह पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण के लिए किया था।
17 सोमरस निकालने के दिन राजा युधिष्ठिर ने अच्छी तरह तथा बड़े ही ध्यानपूर्वक पुरोहितों की एवं सभा के श्रेष्ठ पुरुषों की पूजा की।
18 तब सभासदों ने विचार-विमर्श किया कि उनमें से किसकी सबसे पहले पूजा की जाय, क्योंकि अनेक व्यक्ति इस सम्मान के योग्य थे अतः वे निश्चय कर पाने में असमर्थ थे। अन्त में सहदेव बोल पड़े।
19 सहदेव ने कहा: निश्चय ही भगवान अच्युत तथा यादवों के प्रमुख ही इस सर्वोच्च पद के योग्य हैं। सच तो यह है कि वे यज्ञ में पूजे जाने वाले समस्त देवताओं से तथा साथ ही पूजा के पवित्र स्थान, समय तथा साज-सामान जैसे पक्षों से समन्वित हैं।
20-21 यह समस्त ब्रह्माण्ड उन्हीं पर टिका है, महान यज्ञों का सम्पन्न किया जाना, उनकी पवित्र अग्नियाँ, आहुतियाँ तथा मंत्र भी उन्हीं पर टिकी हैं। सांख्य तथा योग दोनों ही उन अद्वितीय को अपना लक्ष्य बनाते हैं। हे सभासदों, वह अजन्मा भगवान एकमात्र अपने पर निर्भर रहते हुए इस जगत को अपनी निजी शक्तियों से उत्पन्न करता है, पालता और विनष्ट करता है। इस तरह इस ब्रह्माण्ड का अस्तित्व एकमात्र उन्हीं पर निर्भर करता है।
22 वे इस जगत में विभिन्न कर्मों को उत्पन्न करते हैं और इस तरह उनकी ही कृपा से सारा संसार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के आदर्शों के लिए प्रयत्नशील रहता है।
23 इसलिए हमें चाहिए कि भगवान कृष्ण को सर्वोच्च सम्मान दें। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम सारे जीवों का सम्मान तो करेंगे ही, साथ ही अपने आपको भी सम्मान देंगे।
24 जो भी व्यक्ति यह चाहता हो कि दिये गये सम्मान का असीम प्रतिदान मिले उसे कृष्ण का सम्मान करना चाहिए जो पूर्णतया शान्त हैं। समस्त जीवों की पूर्ण आत्मा भगवान हैं, जो किसी भी वस्तु को अपने से पृथक नहीं मानते।
25 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: यह कहकर, भगवान कृष्ण की शक्तियों को समझने वाले सहदेव मौन हो गये और उनके शब्द सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी सज्जनों ने "बहुत अच्छा, बहुत अच्छा" कहकर उन्हें बधाई दी।
26 राजा ब्राह्मणों की इस घोषणा से अत्यन्त प्रसन्न हुए क्योंकि वे इससे सम्पूर्ण सभा की मनोदशा को समझ गये। उन्होंने प्रेम से विभोर होकर इन्द्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की पूजा की।
27-28 भगवान कृष्ण के चरण पखारने के बाद महाराज युधिष्ठिर ने प्रसन्नतापूर्वक उस जल को अपने सिर पर छिड़का और उसके बाद अपनी पत्नी, भाइयों, अन्य पारिवारिक जनों तथा मंत्रियों के सिरों पर छिड़का। वह जल सारे संसार को पवित्र करने वाला है। जब उन्होंने पीले रेशमी वस्त्रों तथा बहुमूल्य रत्नजटित आभूषणों की भेंटों से भगवान को सम्मानित किया, तो राजा के अश्रुपूरित नेत्र भगवान को देख पाने में बाधक बन रहे थे।
29 कृष्ण को इस तरह सम्मानित होते देखकर वहाँ पर उपस्थित प्रायः सभी लोग सम्मान में अपने हाथ जोड़कर बोल उठे, "आपको नमस्कार, आपकी जय हो" और तब उन्हें शीश नवाया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी।
30 दमघोष का असहिष्णु पुत्र कृष्ण के दिव्यगुणों की प्रशंसा होते सुनकर क्रुद्ध हो उठा। वह अपने आसन से उठकर खड़ा हो गया और क्रोध से अपने हाथ हिलाते हुए निर्भय होकर सारी सभा के समक्ष भगवान के विरुद्ध निम्नानुसार कटु शब्द कहने लगा।
31 शिशुपाल ने कहा: वेदों का यह कथन कि समय ही सबका अनिवार्य ईश्वर है निस्सन्देह सत्य सिद्ध हुआ है, क्योंकि बुद्धिमान गुरुजनों की बुद्धि निरे बालक के शब्दों से अब चकरा गई है।
32 हे सभा-नायकों, आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि सम्मान किये जाने के लिए उपयुक्त पात्र कौन है। अतः आप लोग इस बालक के वचनों की परवाह न करें कि वह यह दावा कर रहा है कि कृष्ण पूजा के योग्य हैं।
33-34 आप लोग इस सभा के सर्वाधिक उन्नत सदस्यों को – ब्रह्म के प्रति समर्पित तपस्या की शक्ति, दैवी अन्तर्दृष्टि तथा कठोर व्रत में लगे रहने वाले, ज्ञान से पवित्र हुए तथा ब्रह्माण्ड के शासकों द्वारा भी पूजित सर्वोच्च ऋषियों को – कैसे छोड़ सकते हैं? यह ग्वालबाल, जो कि अपने कुल के लिए कलंक है, आप लोगों की पूजा के योग्य कैसे हो सकता है? क्या कौवा पवित्र प्रसाद की खीर खाने का पात्र बन सकता है?
35 जो वर्ण तथा आश्रम के या पारिवारिक शिष्टाचार के किसी भी सिद्धान्त का पालन नहीं करता, जो सारे धार्मिक कर्तव्यों से बहिष्कृत कर दिया गया है, जो मनमाना आचरण करता है तथा जिसमें कोई सद्गुण नहीं है, भला ऐसा व्यक्ति किस तरह पूजा किये जाने योग्य हो सकता है?
36 ययाति ने इन यादवों के कुल को शाप दिया था, तभी से ये लोग ईमानदार व्यक्तियों द्वारा बहिष्कृत कर दिये गये और इन्हें सुरापान की लत पड़ गई। तब भला कृष्ण पूजा के योग्य कैसे हैं?
37 इन यादवों ने ब्रह्मर्षियों द्वारा बसाई गई पवित्र भूमि को छोड़ दिया है और समुद्र में एक किले में जाकर शरण ली है, जहाँ ब्राह्मण-नियमों का पालन नहीं होता। वहाँ ये चोरों की तरह अपनी प्रजा को तंग करते है।
38 श्रील शुकदेव गोस्वामी कहते हैं: समस्त सौभाग्य से वंचित शिशुपाल ऐसे ही अन्य अपमानसूचक शब्द बोलता रहा, किन्तु भगवान ने कुछ भी नहीं कहा, जिस तरह सिंह सियार के रोदन की परवाह नहीं करता।
39 भगवान की ऐसी असह्य निन्दा सुनकर सभा के कई सदस्यों ने अपने कान बन्द कर लिये और गुस्से में चेदि-नरेश को कोसते हुए बाहर चले गये।
40 जिस स्थान पर भगवान या उनके श्रद्धावान भक्त की निन्दा होती हो, यदि मनुष्य उस स्थान को तुरन्त छोड़कर चला नहीं जाता, तो निश्चय ही वह अपने पुण्यकर्मों के फल से वंचित होकर नीचे आ गिरेगा।
41 तब पाण्डु-पुत्र क्रुद्ध हो उठे और मत्स्य, कैकय तथा सृञ्जय वंशों के योद्धाओं के साथ वे अपने अपने स्थानों पर शिशुपाल को मारने के लिए तत्पर हथियार उठाते हुए खड़े हो गये।
42 हे भारत, तब शिशुपाल ने किसी की परवाह न करते हुए वहाँ पर जुटे सारे राजाओं के बीच अपनी तलवार तथा ढाल ले ली और वह भगवान कृष्ण के पक्षधरों का अपमान करने लगा।
43 उस समय भगवान उठ खड़े हुए और उन्होंने अपने भक्तों को रोका। फिर उन्होंने क्रुद्ध होकर अपने तेज धार वाले चक्र को चलाया और आक्रमण कर रहे शत्रु का सिर काट दिया।
44 जब इस तरह शिशुपाल मार डाला गया तो भीड़ में से भारी शोर उठने लगा। इस उपद्रव का लाभ उठाकर शिशुपाल के समर्थक कुछ राजा तुरन्त ही अपने प्राणों के भय से सभा छोड़कर भाग गये।
45 शिशुपाल के शरीर से एक तेजोमय प्रकाशपुञ्ज उठा और सबके देखते देखते वह भगवान कृष्ण में उसी तरह प्रविष्ट हो गया, जिस तरह आकाश से गिरता हुआ पुच्छल तारा पृथ्वी में समा जाता है।
46 तीन जन्मों से भगवान कृष्ण के प्रति द्वेष में अभिवृद्धि से शिशुपाल को भगवान का दिव्यरूप प्राप्त हुआ। दरअसल मनुष्य की चेतना से उसका भावी जन्म निश्चित होता है।
47 सम्राट युधिष्ठिर ने यज्ञ के पुरोहितों को तथा सभासदों को उदार भाव से उपहार दिये और वेदों में संस्तुत विधि से उन सबका समुचित सम्मान किया। तत्पश्चात उन्होंने अवभृथ स्नान किया।
48 इस प्रकार योग के समस्त ईश्वरों के स्वामी श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की ओर से इस महान यज्ञ का सफल समापन करवाया। तत्पश्चात अपने घनिष्ठ मित्रों के हार्दिक अनुरोध पर वे कुछ महीनों तक वहाँ रुके रहे।
49 तब देवकी-पुत्र भगवान ने, न चाहते हुए भी, राजा से अनुमति ली और वे अपनी पत्नियों तथा मंत्रियों सहित अपनी राजधानी लौट आये।
50 मैं पहले ही तुमसे वैकुन्ठ के उन दो वासियों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ, जिन्हें ब्राह्मणों द्वारा शापित होने से भौतिक जगत में बारम्बार जन्म लेना पड़ा।
51 अन्तिम अवभृथ्य अनुष्ठान में, जो कि राजसूय यज्ञ के सफल समापन का सूचक था, पवित्र होकर राजा युधिष्ठिर एकत्र ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बीच इस तरह चमक रहे थे, मानो साक्षात देवराज इन्द्र हों।
52 राजा द्वारा समुचित सम्मान दिये जाकर देवता, मनुष्य तथा मध्यलोक के निवासी प्रसन्नतापूर्वक कृष्ण तथा महान यज्ञ की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने लोकों के लिए रवाना हो गये।
53 पापी दुर्योधन को छोड़कर सारे लोग संतुष्ट थे, क्योंकि वह तो साक्षात कलिकाल था और कुरुवंश का रोग था। वह पाण्डु-पुत्र के वृद्धिमान ऐश्वर्य का देखना सहन नहीं कर सका।
54 जो व्यक्ति भगवान विष्णु के इन कार्यकलापों को, जिनमें शिशुपाल वध, राजाओं का मुक्त किया जाना तथा राजसूय यज्ञ का निष्पादन सम्मिलित है, सुनाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है।
(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)
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