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अध्याय तिरपन – कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण (10.53)

1 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: इस तरह कुमारी वैदर्भी का गुप्त सन्देश सुनकर यदुनन्दन ने ब्राह्मण का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुसकाते हुए उससे इस प्रकार बोले।

2 भगवान ने कहा: जिस तरह रुक्मिणी का मन मुझ पर लगा है उसी तरह मेरा मन उस पर लगा है। मैं रात्रि में निद्रा लाभ नहीं ले पा रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि द्वेषवश रुक्मी ने हमारा विवाह रोक दिया है।

3 वह अपने आपको एकमात्र मेरे प्रति समर्पित कर चुकी है और उसका सौन्दर्य निष्कलंक है। मैं उसे, उन अयोग्य राजाओं को युद्ध में मथकर उसी तरह यहाँ लाऊँगा जिस तरह काठ से प्रज्ज्वलित अग्नि उत्पन्न की जाती है।

4 श्रील शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान मधुसूदन रुक्मिणी के विवाह के लग्न का सही सही समय भी जान गये। अतः उन्होंने अपने सारथी से कहा, “हे दारुक, मेरा रथ तुरन्त तैयार करो।

5 “ दारुक भगवान का रथ ले आया जिसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक घोड़े जुते थे। फिर वह अपने हाथ जोड़कर भगवान कृष्ण के सामने खड़ा हो गया।

6 भगवान शौरी अपने रथ में सवार हुए, फिर ब्राह्मण को चढ़ाया और शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा एक रात में ही आनर्त जिले से विदर्भ पहुँच गये।

7 कुण्डिन के स्वामी राजा भीष्मक ने अपने पुत्र-स्नेह के वशीभूत होकर अपनी कन्या का विवाह शिशुपाल से कराने हेतु समस्त आवश्यक तैयारियाँ पूरी कर ली।

8-9 राजा ने मुख्य मार्गों, व्यापारिक सड़कों तथा चौराहों को ठीक से साफ करवाकर, जल छिड़कवाया। उसने विजय तोरणों तथा खम्भों पर रंगबिरंगी झण्डियों से नगर को सजवाया। नगर के स्त्री पुरुषों ने साफ-सुथरे वस्त्र पहने, सुगन्धित चन्दन-लेप लगाया, बहुमूल्य हार, फूल की मालाएँ तथा रत्नजटित आभूषण धारण किये। उनके घर अगुरु की सुगन्ध से भर गये।

10 हे राजन, महाराज भीष्मक ने पितरों, देवताओं तथा ब्राह्मणों को भलीभाँति भोजन कराकर उनकी विधिवत पूजा की और परम्परागत मंत्रों का उच्चारण करवाया।

11 सुशोभित दाँतोंवाली परम सुन्दरी रुक्मिणीजी को स्नान करवाया। तत्पश्चात उन्हें उत्तम कोटि के नये वस्त्रों की जोड़ी पहनाई गई और अत्यन्त सुन्दर रत्नजटित गहनों से सजाया गया।

12 उत्तमोत्तम ब्राह्मणजनों ने वधू की रक्षा के लिए ऋग, साम तथा यजुर्वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया और अथर्ववेद में पटु पुरोहित ने नियन्ता ग्रहों को शान्त करने के लिए आहुतियाँ दीं।

13 राजा ने विधि-विधानों के ज्ञान में दक्ष व अद्वितीय ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, गौवें तथा गुड़-मिश्रित तिलों की दक्षिणा दी।

14 चेदि नरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र की समृद्धि सुनिश्चित करने के लिए समस्त कृत्यों को सम्पन्न करने के लिए मंत्रोच्चार में पटु ब्राह्मणों को लगाया था।

15 राजा दमघोष ने मद टपकाते हाथियों, लटकती सुनहरी साँकलों वाले रथों तथा असंख्य घुड़सवार और पैदल सैनिकों के साथ कुण्डिन की यात्रा की।

16 विदर्भराज भीष्मक नगर से बाहर गये और राजा दमघोष से विशेष सत्कार-प्रतिकों के साथ मिले। फिर भीष्मक ने दमघोष को इस अवसर के लिए विशेष रूप से निर्मित आवास-गृह में ठहराया।

17 शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्र तथा विदूरथ जो शिशुपाल के समर्थक थे, वे सभी पौन्ड्रक तथा हजारों अन्य राजाओं के साथ आये।

18-19 कृष्ण तथा बलराम से ईर्ष्या करने वाले राजाओं ने परस्पर यह निश्चय किया कि कृष्ण यदि बलराम तथा अन्य यदुओं के साथ राजकुमारी का अपहरण करने यहाँ आता है, तो हम सब मिलकर उससे युद्ध करेंगे। अतः वे ईर्ष्यालु राजा अपनी चतुरंगी सेनाएँ लेकर विवाह में गये।

20-21 जब बलराम ने विपक्षी राजाओं की इन तैयारियों तथा कृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण करने के लिए अकेले ही प्रस्थान किये जाने के बारे में सुना तो उन्हें शंका होने लगी कि कहीं युद्ध न ठन जाय। अतः वे अपने भाई के स्नेह में निमग्न होकर विशाल सेना के साथ तेजी से कुण्डिन के लिए कूच कर गये। उनकी सेना में पैदल तथा हाथी, घोड़े और रथ पर सवार सैनिक थे।

22 भीष्मक की सुप्रिया पुत्री कृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा उत्सुकता-पूर्वक कर रही थी किन्तु जब उसने ब्राह्मण को वापस आए हुए नहीं देखा तो इस प्रकार सोचा।

23 राजकुमारी रुक्मिणी ने सोचा: हाय! रात बीत जाने पर मेरा विवाह होना है! मैं कितनी अभागिनी हूँ! कमलनेत्र कृष्ण अभी भी नहीं आये। मैं नहीं जानती क्यों? यहाँ तक कि ब्राह्मण-दूत भी अभी तक नहीं लौटा।

24 लगता है कि निर्दोष प्रभु ने यहाँ आने के लिए तैयार होते समय मुझमें कुछ घृणित बात देखी हो, जिससे वे मेरा पाणिग्रहण करने नहीं आये।

25 मैं घोर अभागिनी हूँ क्योंकि न तो स्रष्टा विधाता मेरे अनुकूल है, न ही महेश्वर (शिवजी) अथवा शायद शिव-पत्नी देवी जो गौरी, रुद्राणी, गिरिजा तथा सती नाम से विख्यात हैं, मेरे विपरीत हो गई हैं।

26 इस तरह से सोच रही तरुण बाला ने, जिसका मन कृष्ण ने चुरा लिया था, यह सोचकर कि अब भी समय है, अपने अश्रुपूरित नेत्र बन्द कर लिये।

27 हे राजन, जब रुक्मिणी गोविन्द के आगमन की इस तरह प्रतीक्षा कर रही थी तो उसे लगा कि उसकी बाँईं जाँघ, भुजा तथा आँख फड़क रही है। यह इसका संकेत था कि कुछ प्रिय घटना होने वाली है।

28 तभी वह शुद्धतम विद्वान ब्राह्मण, कृष्ण के आदेशानुसार दिव्य राजकुमारी रुक्मिणी से भेंट करने राजमहल के अन्तःपुर में आया।

29 ब्राह्मण के प्रसन्न मुख तथा शान्त चाल को देखकर ऐसे लक्षणों की दक्ष-व्याख्या करने वाली रुक्मिणी ने शुद्ध मन्द-हास के साथ उन ब्राह्मण से पूछा।

30 ब्राह्मण ने उनसे यदुनन्दन के आगमन की सूचना सुनाई और उनके साथ विवाह करने के भगवान के वचन को कह सुनाया।

31 राजकुमारी वैदर्भी कृष्ण का आगमन सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुई। पास में देने योग्य कोई उपयुक्त वस्तु न पाकर उसने ब्राह्मण को केवल नमस्कार किया।

32 जब राजा ने सुना कि कृष्ण तथा बलराम आये हैं और वह उसकी पुत्री का विवाह देखने के लिए उत्सुक हैं, तो वह बाजे-गाजे के साथ उनका सत्कार करने के लिए पर्याप्त भेंटे लेकर आगे बढ़ा।

33 उन्हें मधुपर्क, नये वस्त्र तथा अन्य वांछित भेंटें देकर उसने निर्धारित विधियों के अनुसार उनकी पूजा की।

34 उदार राजा ने दोनों प्रभुओं के लिए तथा उनकी सेना एवं उनके संगियों के लिए भव्य आवासों की व्यवस्था की। इस तरह उनको समुचित आतिथ्य प्रदान किया।

35 इस तरह भीष्मक ने इस अवसर पर एकत्र हुए राजाओं को सारी वांछित वस्तुएँ प्रदान कीं और उनकी राजनैतिक शक्ति, आयु, शारीरिक बल तथा सम्पत्ति के अनुसार उनका सम्मान किया।

36 जब विदर्भवासियों ने सुना कि भगवान कृष्ण आए हैं, तो वे सब उनका दर्शन करने गये। अपनी आँखों की अंजुली से उन्होंने भगवान के कमलमुख के मधु का पान किया।

37 नगरवासियों ने कहा - एकमात्र रुक्मिणी उनकी पत्नी बनने के योग्य हैं और वे भी दोषरहित सौन्दर्यवान होने से राजकुमारी भैष्मी के लिए एकमात्र उपयुक्त पति हैं।

38 हम लोगों ने जो भी पुण्य कर्म किये हों उनसे त्रिलोक विधाता भगवान हम पर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर कृष्ण ही राजकुमारी रुक्मिणी का पाणिग्रहण करें।

39 अपने उमड़ते प्रेम से बँधकर नगर के निवासी इस तरह की बातें कर रहे थे, तभी अंगरक्षकों से संरक्षित रुक्मिणीजी देवी अम्बिका के मन्दिर जाने के लिए अन्तःपुर से बाहर आई।

40-41 रुक्मिणी मौन होकर देवी भवानी के चरणकमलों का दर्शन करने पैदल ही चल पड़ी। उनके साथ माताएँ तथा सखियाँ थीं और वे राजा के बहादुर सैनिकों द्वारा संरक्षित थीं जो अपने हथियार ऊपर उठाये हुए सन्नद्ध थे। रुक्मिणी केवल कृष्ण के चरणकमलों में अपने मन को ध्यानस्थ किये थीं। मार्ग-भर में मृदंग, शंख, पणव, तुरही तथा अन्य बाजे बजाये जा रहे थे।

42-43 राजकुमारी के पीछे पीछे हजारों प्रमुख गणिकाएँ थीं जो नाना प्रकार की भेंटें लिये थीं। उनके साथ ब्राह्मणों की सजी-धजी पत्नियाँ गीत गा रही थीं और स्तुतियाँ कर रही थीं। वे माला, सुगन्ध, वस्त्र तथा आभूषण की भेंटें लिये थीं। साथ ही पेशेवर गवैये, संगीतज्ञ, सूत, मागध तथा वन्दीजन थे।

44 देवी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणी ने सबसे पहले अपने कमल सदृश हाथ-पैर धोये और तब शुद्धि के लिए आचमन किया। इस प्रकार पवित्र एवं शान्त भाव से वे माता अम्बिका के समक्ष पधारीं।

45 ब्राह्मणों की बड़ी बूढ़ी पत्नियाँ जो विधि-विधान में पटु थीं, रुक्मिणी को भवानी को नमस्कार कराने ले गईं जो अपने प्रियतम भगवान भव (शिवजी) के साथ प्रकट हुईं।

46 राजकुमारी रुक्मिणी ने प्रार्थना की: हे शिवपत्नी माता अम्बिका! मैं बारम्बार आपको तथा आपकी सन्तान को नमस्कार करती हूँ। कृपया यह वर दें कि भगवान कृष्ण मेरे पति होएँ।

47-48 रुक्मिणी ने जल, सुगन्धि, अन्न, धूप, वस्त्र, माला, हार, आभूषण तथा अन्य संस्तुत उपहारों से और दीपकों की पंक्तियों से देवी की पूजा की। तदनन्तर रुक्मिणी ने उन्हीं वस्तुओं से और नमकीन, पूए, पान-सुपारी, जनेऊ, फल तथा ईख से सुहागिन ब्राह्मणियों की भी पूजा की। ब्राह्मणियों ने रुक्मिणी को प्रसाद दिया और आशीर्वाद प्रदान किया।

49 रुक्मिणी ने उन्हें तथा देवी को नमस्कार किया और प्रसाद ग्रहण किया।

50 तब राजकुमारी ने अपना मौन-व्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से सुशोभित करकमल के द्वारा दासी का हाथ पकड़कर वे अम्बिका मन्दिर से बाहर आई।

51-55 रुक्मिणी भगवान की उस मायाशक्ति की तरह मोहने वाली प्रतीत हो रही थीं जो बड़े बड़े धीर-गम्भीर पुरुषों को भी मोह लेती हैं। राजागण उनके सुकुमार सौन्दर्य तथा कुण्डलों से सुशोभित मुख को निहारने लगे। उनके कूल्हे पर रत्नजटित करधनी शोभा पा रही थी, उनकी आँखें लटकती केशराशि से चंचल लग रही थीं, वे मधुर हँसी से युक्त थीं और उनके चमेली की कली जैसे दाँतों से बिम्ब जैसे लाल लाल होंठों की चमक प्रतिबिम्बित हो रही थी। जब वे राजहंस जैसी चाल से चलने लगीं तो रुनझुन करते पायलों के तेज से उनके चरणों की शोभा बढ़ गई। उन्हें देखकर एकत्रित वीरजन पूर्णतया मोहित हो गये। जब राजाओं ने उनकी विस्तृत मुसकान तथा लजीली चितवन देखी तो वे सम्मोहित हो गये, उन्होंने अपने हथियार डाल दिये और मूर्छित होकर हाथियों, रथों तथा घोड़ों पर से जमीन पर गिर पड़े। जुलूस के बहाने रुक्मिणी ने अकेले कृष्ण के लिए ही अपना सौन्दर्य प्रदर्शित किया। उन्होंने भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए धीरे-धीरे चलायमान कमलकोश रूपी दो चरणों को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने बाएँ हाथ के नाखुनों से अपने मुख पर लटकते केशगुच्छों को हटाया और अपने समक्ष खड़े राजाओं की ओर कनखियों से देखा। सहसा रुक्मिणी को श्यामसुन्दर भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। रुक्मिणी जो भगवान कृष्ण के रथ पर चढ़ने को आतुर थी, भगवान ने शत्रुओं के देखते-देखते राजकुमारी को अपने रथ पर बिठा लिया।

56 राजकुमारी को उठाकर अपने गरुड़ध्वज वाले रथ में बैठाकर माधव ने राजाओं के घेरे को पीछे धकेल दिया। वे बलराम को आगे करके धीरे से उसी तरह बाहर निकल गये जिस तरह सियारों के बीच से अपना शिकार उठाकर सिंह चला जाता है।

57 भगवान के जरासन्ध जैसे शत्रु राजा इस अपमानजनक हार को सहन नहीं कर सके। वे चीख पड़े, “ओह! हमें धिक्कार है। यद्यपि हम बलशाली धनुर्धर हैं, किन्तु इन ग्वालों मात्र ने हमसे हमारा सम्मान उसी तरह छीन लिया है, जिस तरह छोटे छोटे पशु सिंहों का सम्मान हर लें।"

(समर्पित एवं सेवारत – जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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Comments

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