jagdish chandra chouhan's Posts (549)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ।। 78 ।।

यत्र– जहाँ;योग-ईश्वरः– योग के स्वामी; कृष्णः– भगवान् कृष्ण; यत्र– जहाँ; पार्थः– पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्वर्य; विजयः– जीत; भूतिः– विलक्षण शक्ति; ध्रुवा– निश्चित; नीतिः– नीति; मतिःमम– मेरा मत।

भावार्थ : जहाँ योगेश्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है। ऐसा मेरा मत है।

तात्पर्य : भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ। वह भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथियों की सहायता से अपने पुत्रों की विजय के प्रति आशावान था। उसे आशा थी कि विजय उसके पक्ष में होगी। लेकिन युद्धक्षेत्र के दृश्य का वर्णन करने के बाद संजय ने राजा से कहा - आप अपनी विजय की बात सोच रहें हैं, लेकिन मेरा मत है कि जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन उपस्थित हैं, वहीं सम्पूर्ण श्री होगी।उसने प्रत्यक्ष पुष्टि की कि धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए। विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्योंकि उसमें कृष्ण हैं। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सारथी का पद स्वीकार करना एक ऐश्वर्य का प्रदर्शन था। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और इनमें से वैराग्य एक है। ऐसे वैराग्य के भी अनेक उदाहरण हैं, क्योंकि कृष्ण वैराग्य के भी ईश्वर हैं।

युद्ध तो वास्तव में दुर्योधन तथा युधिष्ठिर के बीच था। अर्जुन अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की ओर से लड़ रहा था। चूँकि कृष्ण तथा अर्जुन युधिष्ठिर की ओर थे अतएव युधिष्ठिर की विजय ध्रुव थी। युद्ध को यह निर्णय करना था कि संसार पर शासन कौन करेगा। संजय ने भविष्यवाणी की कि सत्ता युधिष्ठिर के हाथ में चली जाएगी। यहाँ पर इसकी भी भविष्यवाणी हुई है कि इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर उत्तरोत्तर समृद्धि करेंगे, क्योंकि वे न केवल पुण्यात्मा तथा पवित्रात्मा थे, अपितु वे कठोर नीतिवादी थे। उन्होंने जीवन भर कभी असत्य भाषण नहीं किया था।

ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यक्ति हैं, जो भगवद्गीता को युद्धस्थल में दो मित्रों की वार्ता के रूप में ग्रहण करते हैं। लेकिन इससे ऐसा ग्रंथ कभी शास्त्र नहीं बन सकता। कुछ लोग विरोध कर सकते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए उकसाया, जो अनैतिक है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवद्गीता नीति का परम आदेश है। यह नीति विषयक आदेश नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में है – मन्मना भव मद्भक्तः। मनुष्य को कृष्ण का भक्त बनना चाहिए और सारे धर्मों का सार है – कृष्ण की शरणागति (सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज)। भगवद्गीता का आदेश धर्म तथा नीति की परम विधि है। अन्य सारी विधियाँ भले ही शुद्ध करने वाली तथा इस विधि तक ले जाने वाली हों, लेकिन गीता का अन्तिम सन्देश समस्त नीतियों तथा धर्मों का सार वचन है – कृष्ण की शरण ग्रहण करो या कृष्ण को आत्मसमर्पण करो। यह अठारहवें अध्याय का मत है।

भगवद्गीता से हम यह समझ सकते हैं कि ज्ञान तथा ध्यान द्वारा अपनी अनुभूति एक विधि है, लेकिन कृष्ण की शरणागति सर्वोच्च सिद्धि है। यह भगवद्गीता के उपदेशों का सार है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अनुष्ठानों (कर्मकाण्ड) का मार्ग, ज्ञान का गुह्य मार्ग हो सकता है। लेकिन धर्म के अनुष्ठान के गुह्य होने पर भी ध्यान तथा ज्ञान गुह्यतर हैं तथा पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भक्ति में कृष्ण की शरणागति गुह्यतम उपदेश है। यही अठारहवें अध्याय का सार है।

भगवद्गीता की अन्य विशेषता यह है कि वास्तविक सत्य भगवान् कृष्ण हैं। परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है – निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् श्रीकृष्ण। परम सत्य के पूर्ण ज्ञान का अर्थ है, कृष्ण का पूर्ण ज्ञान। यदि कोई कृष्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे विभाग इसी ज्ञान के अंश हैं। कृष्ण दिव्य हैं क्योंकि वे अपनी नित्य अन्तरंगा शक्ति में स्थित रहते हैं। जीव उनकी शक्ति से प्रकट हैं और दो श्रेणी के होते हैं – नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त। ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृष्ण के मूल अंश माने जाते हैं। भौतिक शक्ति चौबीस प्रकार से प्रकट होती है। सृष्टि शाश्वत काल द्वारा प्रभावित है और बहिरंगाशक्ति द्वारा इसका सृजन तथा संहार होता है। यह दृश्य जगत पुनःपुनः प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है।

भगवद्गीता में पाँच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है – भगवान्, भौतिक प्रकृति, जीव, शाश्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म। सब कुछ भगवान् कृष्ण पर आश्रित है। परम सत्य की सभी धारणाएँ – निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियाँ – भगवान् के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं। यद्यपि ऊपर से भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है। लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं से भिन्न है। भगवान् चैतन्य का दर्शन है “अचिन्त्यभेदाभेद”। यह दर्शन पद्धति परम सत्य के पूर्णज्ञान से युक्त है।

जीव अपने मूलरूप में शुद्ध आत्मा है। वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है। इस प्रकार भगवान् कृष्ण की उपमा सूर्य से दी जा सकती है और जीवों की सूर्यप्रकाश से। चूँकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा) या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है। दूसरे शब्दों में, जीव भगवान् की पराशक्ति से है, अतएव उसमें किंचित् स्वतन्त्रता रहती है। इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार वह ह्लादिनी शक्ति की अपनी सामान्य दशा को प्राप्त होता है।

भक्तार्पण : इस प्रकार श्रीमद भगवद्गीता यथारूप के 108 महत्त्वपूर्ण श्लोकों के भक्ति वेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए ।

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कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद अभय चरणारविन्द भक्ति वेदान्त स्वामी श्रील प्रभुपाद

संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ

 

भगवद्गीता माहात्म्य

गीता शास्त्रमिंद पुण्यं य: पठेत् प्रायत: पुमान्-

यदि कोई भगवद्गीताके उपदेशों का पालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा चिन्ताओं से मुक्त हो सकता हैभय शोकादिवर्जित: वह इस जीवन में सारे भय से मुक्त हो जाएगा ओर उसका अगला जीवन आध्यात्मिक होगा । (गीता माहात्म्य 1)

एक अन्य लाभ भी होता है :

गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च

नव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च

"यदि कोई भगवद्गीता को निष्ठा तथा गम्भीरता के साथ पढ़ता है तो भगवान् की कृपा से उसके सारे पूर्व दुष्कर्मों के फ़लों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता" (गीतामाहात्म्य2) भगवान गवद्गीता के अन्तिम अंश (18.66) में जोर देकर कहते है : सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरण व्रज अहं त्वां सार्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच : "सब धर्मो को त्याग कर एकमात्र मेरी ही शरण में आओ मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा तुम डरो मत " इस प्रकार अपनी शरण में आये भक्त का पूरा उत्तरदायित्व भगवान् अपने उपर ले लेते हे और उसके समस्त पापो को क्षमा कर देते हैं

मलिनेमोचनं पुंसां जलस्नान दिने दिने

सकृद्गीतामृतस्नानं संसारमलनाशनम्

"मनुष्य जल में स्नान करके नित्य अपने को स्वच्छ कर सकता हे, लेकिन यदि कोई भगवद्गीता रूपी पवित्र गंगा-जल में एक बार भी स्नान कर ले तो वह भवसागर की मलिनता से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाताहै (गीतामाहात्म्य3)

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैशास्त्रविस्तरै:

यास्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माव्दिनि:सृता

चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी को अन्य वैदिक साहित्य पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहतीउसे केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिएवर्तमान युग में लोग सांसारिक कार्यों में इतने व्यस्त हैं कि उनके लिए समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर पाना सम्भव नहीं रह गया हैपरन्तु इसकी आवश्यकता भी नहीं हैकेवल एक पुस्तक भगवद्गीता ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथों का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है। (गीता माहात्म्य 4)

जैसा कि कहा गया है:

भारतामृतसर्वस्वं विष्णुववक्त्राव्दिनि:सृतम्

गीता-गङ्गोदकं पित्वा पुनर्जन्म नविद्यते

"जो गंगाजल पीता है उसे मुक्ति मिलतीहे ! अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है और इसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु ) ने स्वयं सुनाया है" (गीता महात्म्य 5) भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है और गंगा भगवान् के चरणकमलों से निकली है! निस्सन्देह भगवान् के मुख से तथा चरणों मे कोई अन्तर नहीं है लेकिन निष्पक्ष अध्ययन से हम पाएँगे कि भगवद्गीता गंगा-जल की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:

पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्ध गीतामृतं महत्

"यह गीतोपनिषद्, भगवद्गीता, जो समस्त उपनिषदों का सार है, गाय के तुल्य है और ग्वालबाल के रूप में विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे हैंअर्जुन बछड़े के समान है और सारे विद्वान तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीता के अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं " (गीता माहात्म्य 6)

एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम्

एको देवो देवकीपुत्रएव

एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि

कर्माप्येकंतस्य देवस्य सेवा

आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्वर, एक धर्म तथा एक वृत्ति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं।   अतएव एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् - केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो, जो सारे विश्व के लिये होएको देवो देवकीपुत्र एव - सारे विश्व के लिये एक ईश्वर हो - श्रीकृष्णएको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि और एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो - उनके नाम का कीर्तन -  हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे ।   हरे राम, हरे राम, राम, राम हरे हरे ॥   कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा - और केवल एक ही कार्य हो - भगवान् की सेवा ।  (गीता माहात्म्य 7)

आप सभी भक्तों एवं टीम इस्कॉन डिजायर ट्री.कॉम.

का हार्दिक आभार और धन्यवाद !

(Thanks a lot to ALL DEVOTEE and TEAM IDT.Com.)

***भगवान हरि की जय हो!**

**हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल! ***

-- ::हरि ॐ तत सत:: --

(समर्पित एवं सेवारत-जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

य इदं परमं गुह्यं मद्भकतेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। 68 ।।

यः- जो;इदम्- इस;परमम्- अत्यन्त;गुह्यम्- रहस्य को;मत्- मेरे;भक्तेषु- भक्तों में से;अभिधास्यति- कहता है;भक्तिम्- भक्ति को;मयि- मुझको;पराम्- दिव्य;कृत्वा- करके;माम्- मुझको;एव- निश्चय ही;एष्यति- प्राप्त होता है;असंशय- इसमें कोई सन्देह नहीं।

भावार्थ : जो व्यक्ति भक्तों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भक्ति को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास वापस आएगा ।

तात्पर्य : सामान्यतः यह उपदेश दिया जाता है कि केवल भक्तों के बीच में भगवद्गीता की विवेचना की जाय, क्योंकि जो लोग भक्त नहीं हैं, वे न तो कृष्ण को समझेंगे, न ही भगवद्गीता को। जो लोग कृष्ण को तथा भगवद्गीता को यथारूप में स्वीकार नहीं करते, उन्हें मनमाने ढंग से भगवद्गीता की व्याख्या करने का प्रयत्न करने का अपराध मोल नहीं लेना चाहिए। भगवद्गीता की विवेचना उन्हीं से की जाय, जो कृष्ण को भगवान् के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हों। यह एकमात्र भक्तों का विषय है, दार्शनिक चिन्तकों का नहीं, लेकिन जो कोई भगवद्गीता को यथारूप में प्रस्तुत करने का सच्चे मन से प्रयास करता है, वह भक्ति के कार्यकलापों में प्रगति करता है और शुद्ध भक्तिमय जीवन को प्राप्त होता है। ऐसी शुद्धभक्ति के फलस्वरूप उसका भगवद्धाम जाना ध्रुव है।

 

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। 69 ।।

- कभी नहीं;- तथा;तस्मात्- उसकी अपेक्षा;मनुष्येषु- मनुष्यों में;कश्र्चित्- कोई;मे- मुझको;प्रिय-कृत्-तमः- अत्यन्त प्रिय;भविता- होगा;- न तो;- तथा;मे- मुझको;तस्मात्- उसकी अपेक्षा उससे;अन्यः- कोई;प्रिय-तरः- अधिक प्रिय;भुवि- इस संसार में।

भावार्थ : इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक न तो मुझे अधिक प्रिय है और न कभी होगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ।। 66 ।।

सर्व-धर्मान्- समस्त प्रकार के धर्म;परित्यज्य- त्यागकर;माम्- मेरी;एकम्- एकमात्र;शरणम्- शरण में;व्रज- जाओ;अहम्- मैं;त्वाम्- तुमको;सर्व- समस्त;पापेभ्यः- पापों से;मोक्षयिष्यामि- उद्धार करूँगा;मा- मत;शुचः- चिन्ता करो।

भावार्थ : समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा। डरो मत।

तात्पर्य : भगवान् ने अनेक प्रकार के ज्ञान तथा धर्म की विधियाँ बताई हैं - परब्रह्म का ज्ञान, परमात्मा का ज्ञान, अनेक प्रकार के आश्रमों तथा वर्णों का ज्ञान, संन्यास का ज्ञान, अनासक्ति, इन्द्रिय तथा मन का संयम, ध्यान आदि का ज्ञान । उन्होंने अनेक प्रकार से नाना प्रकार के धर्मों का वर्णन किया है। अब, भगवद्गीता का सार प्रस्तुत करते हुए भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! अभी तक बताई गई सारी विधियों का परित्याग करके, अब केवल मेरी शरण में आओ। इस शरणागति से वह समस्त पापों से बच जाएगा, क्योंकि भगवान् स्वयं उसकी रक्षा का वचन दे रहे हैं।

सातवें अध्याय में यह कहा गया था कि वही कृष्ण की पूजा कर सकता है, जो सारे पापों से मुक्त हो गया हो। इस प्रकार कोई यह सोच सकता है कि समस्त पापों से मुक्त हुए बिना कोई शरणागति नहीं पा सकता है। ऐसे सन्देह के लिए यहाँ यह कहा गया है कि कोई समस्त पापों से मुक्त न भी हो तो केवल श्री कृष्ण के शरणागत होने पर स्वतः मुक्त कर दिया जाता है। पापों से मुक्त होने के लिए कठोर प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को बिना झिझक के कृष्ण को समस्त जीवों के रक्षक के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे चाहिए कि श्रद्धा तथा प्रेम से उनकी शरण ग्रहण करे।

हरि भक्ति विलास में (११.६७६) कृष्ण की शरण ग्रहण करने की विधि का वर्णन हुआ है -

आनुकूल्यस्य सङकल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ।

रक्षिष्यतीति विश्र्वासो गोप्तृत्वे वरणं तथा ।

आत्मनिक्षेप कार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः ।।

भक्तियोग के अनुसार मनुष्य को वही धर्म स्वीकार करना चाहिए, जिससे अन्ततः भगवद्भक्ति हो सके। समाज में अपनी स्थिति के अनुसार कोई एक विशेष कर्म कर सकता है, लेकिन यदि अपना कर्म करने से कोई कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुँच पाता, तो उसके सारे कार्यकलाप व्यर्थ हो जाते हैं। जिस कर्म से कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था न प्राप्त हो सके उससे बचना चाहिए। मनुष्य को विश्वास होना चाहिए कि कृष्ण समस्त परिस्थितियों में उसकी सभी कठिनाइयों से रक्षा करेंगे। इसके विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं कि जीवन-निर्वाह कैसे होगा? कृष्ण इसको सँभालेंगे। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आप को निस्सहाय माने और अपने जीवन की प्रगति के लिए कृष्ण को ही अवलम्ब समझे। पूर्ण कृष्णभावनामृत होकर भगवद्भक्ति में प्रवृत्त होते ही वह प्रकृति के समस्त कल्मष से मुक्त हो जाता है। धर्म की विविध विधियाँ हैं और ज्ञान, ध्यानयोग आदि जैसे शुद्ध करने वाले अनुष्ठान हैं, लेकिन जो कृष्ण के शरणागत हो जाता है, उसे इतने सारे अनुष्ठानों के पालन की आवश्यकता नहीं रह जाती। कृष्ण की शरण में जाने मात्र से वह व्यर्थ समय गँवाने से बच जाएगा। इस प्रकार वह तुरन्त सारी उन्नति कर सकता है और समस्त पापों से मुक्त हो सकता है।

श्रीकृष्ण की सुन्दर छवि के प्रति मनुष्य को आकृष्ट होना चाहिए। उनका नाम कृष्ण इसीलिए पड़ा, क्योंकि वे सर्वाकर्षक हैं। जो व्यक्ति कृष्ण की सुन्दर, सर्वशक्तिमान छवि से आकृष्ट होता है, वह भाग्यशाली है। अध्यात्मवादी कई प्रकार के होते हैं - कुछ निर्गुण ब्रह्म के प्रति आकृष्ट होते हैं, कुछ परमात्मा के प्रति लेकिन जो भगवान् के साकार रूप के प्रति आकृष्ट होता है और इससे भी बढ़कर जो साक्षात् भगवान् कृष्ण के प्रति आकृष्ट होता है, वह सर्वोच्च योगी है। दूसरे शब्दों में, अनन्यभाव से कृष्ण की भक्ति गुह्यतम ज्ञान है और सम्पूर्ण गीता का यही सार है। कर्मयोगी, दार्शनिक, योगी तथा भक्त सभी अध्यात्मवादी कहलाते हैं, लेकिन इनमें से शुद्धभक्त ही सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ पर मा शुचः (मत डरो, मत झिझको, मत चिन्ता करो) विशिष्ट शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सार्थक है। मनुष्य को यह चिन्ता होती है कि वह किस प्रकार सारे धर्मों को त्यागे और एकमात्र कृष्ण की शरण में जाए, लेकिन ऐसी चिन्ता व्यर्थ है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। 65 ।।

मत्-मनाः- मेरे विषय में सोचते हुए;भव- होओ;मत्-भक्तः- मेरा भक्त;मत्-याजी- मेरा पूजक;माम्- मुझको;नमस्कुरु- नमस्कार करो;माम्- मेरे पास;एव- ही;एष्यसि- आओगे;सत्यम्- सच-सच;ते- तुमसे;प्रतिजाने- वायदा या प्रतिज्ञा करता हूँ;प्रियः- प्रिय;असि- हो;मे- मुझको।

भावार्थ : सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो।

तात्पर्य : ज्ञान का गुह्यतम अंश है कि मनुष्य कृष्ण का शुद्ध भक्त बने, सदैव उन्हीं का चिन्तन करे और उन्हीं के लिए कर्म करे। व्यावसायिक ध्यानी बनना कठिन नहीं। जीवन को इस प्रकार ढालना चाहिए कि कृष्ण का चिन्तन करने का सदा अवसर प्राप्त हो। मनुष्य इस प्रकार कर्म करे कि उसके सारे नित्य कर्म कृष्ण के लिए हों। वह अपने जीवन को इस प्रकार व्यवस्थित करे कि चौबीसों घण्टे कृष्ण का ही चिन्तन करता रहे और भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो इस प्रकार कृष्णभावनामय होगा, वह निश्चित रूप से कृष्णधाम को जाएगा जहाँ वह साक्षात् कृष्ण के सान्निध्य में रहेगा। यह गुह्यतम ज्ञान अर्जुन को इसीलिए बताया गया, क्योंकि वह कृष्ण का प्रिय मित्र (सखा) है। जो कोई भी अर्जुन के पथ का अनुसरण करता है, वह कृष्ण का प्रिय सखा बनकर अर्जुन जैसी ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

ये शब्द इस बात पर बल देते हैं कि मनुष्य को अपना मन उस कृष्ण पर एकाग्र करना चाहिए जो दोनों हाथों में वंशीधारण किये, सुन्दर मुखवाले तथा अपने बालों में मोर पंख धारण किये हुए साँवले बालक के रूप में हैं। कृष्ण का वर्णन ब्रह्मसंहिता तथा अन्य ग्रंथों में पाया जाता है। मनुष्य को परम ईश्वर के आदि रूप कृष्ण पर अपने मन को एकाग्र करना चाहिए। उसे अपने मन को भगवान् के अन्य रूपों की ओर नहीं मोड़ना चाहिए। भगवान् के नाना रूप हैं, यथा विष्णु, नारायण, राम, वराह आदि। किन्तु भक्त को चाहिए कि अपने मन को उस एक रूप पर केन्द्रित करे जो अर्जुन के समक्ष था। कृष्ण के रूप पर मन की यह एकाग्रता ज्ञान का गुह्यतम अंश है जिसका प्रकटीकरण अर्जुन के लिए किया गया, क्योंकि वह कृष्ण का अत्यन्त प्रिय सखा है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया ।। 61 ।।

ईश्वरः– भगवान्;सर्व-भूतानाम्– समस्त जीवों के;हृत्-देशे– हृदय में;अर्जुन– हे अर्जुन;तिष्ठति– वास करता है;भ्रामयन्– भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ;सर्व-भूतानि– समस्त जीवों को;यन्त्र– यन्त्र में;आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।

भावार्थ : हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं।

तात्पर्य : अर्जुन परम ज्ञाता न था और लड़ने या न लड़ने का उसका निर्णय उसके क्षुद्र विवेक तक सीमित था। भगवान् कृष्ण ने उपदेश दिया कि जीवात्मा (व्यक्ति) ही सर्वेसर्वा नहीं है। भगवान् या स्वयं कृष्ण अन्तर्यामी परमात्मा रूप में हृदय में स्थित होकर जीव को निर्देश देते हैं। शरीर-परिवर्तन होते ही जीव अपने विगत कर्मों को भूल जाता है, लेकिन परमात्मा जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञाता है, उसके समस्त कार्यों का साक्षी रहता है। अतएव जीवों के सभी कार्यों का संचालन इसी परमात्मा द्वारा होता है। जीव जितना योग्य होता है उतना ही पाता है और उस भौतिक शरीर द्वारा वहन किया जाता है, जो परमात्मा के निर्देश में भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न किया जाता है। ज्योंही जीव को किसी विशेष प्रकार के शरीर में स्थापित कर दिया जाता है, वह शारीरिक अवस्था के अन्तर्गत कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। अत्यधिक तेज मोटरकार में बैठा व्यक्ति कम तेज कार में बैठे व्यक्ति से अधिक तेज जाता है, भले ही जीव अर्थात् चालक एक ही क्यों न हो। इसी प्रकार परमात्मा के आदेश से भौतिक प्रकृति एक विशेष प्रकार के जीव के लिए एक विशेष शरीर का निर्माण करती है, जिससे वह अपनी पूर्व इच्छाओं के अनुसार कर्म कर सके। जीव स्वतन्त्र नहीं होता। मनुष्य को यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भगवान् से स्वतन्त्र है। व्यक्ति तो सदैव भगवान् के नियन्त्रण में रहता है। अतएव उसका कर्तव्य है कि वह शरणागत हो और अगले श्लोक का यही आदेश है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ।58

मत्– मेरी;चित्तः– चेतना में;सर्व– सारी;दुर्गाणि– बाधाओं को;मत्-प्रसादात्– मेरी कृपा से;तरिष्यसि– तुम पार कर सकोगे;अथ– लेकिन;चेत्– यदि;त्वम्– तुम;अहङ्कारात्– मिथ्या अहंकार से;न श्रोष्यसि– नहीं सुनते हो;विनङ्क्ष्यसि– नष्ट हो जाओगे।

भावार्थ : यदि तुम मुझसे भावनाभावित होगे, तो मेरी कृपा से तुम बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जाओगे। लेकिन यदि तुम मिथ्या अहंकारवश ऐसी चेतना में कर्म नहीं करोगे और मेरी बात नहीं सुनोगे, तो तुम विनष्ट हो जाओगे।

तात्पर्य : पूर्ण कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए कर्तव्य करने के विषय में आवश्यकता से अधिक उद्विग्न नहीं रहता। जो मूर्ख है, वह समस्त चिन्ताओं से मुक्त कैसे रहे, इस बात को वह समझ नहीं सकता। जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करता है, भगवान् कृष्ण उसके घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं। वे सदैव अपने मित्र की सुविधा का ध्यान रखते हैं और जो मित्र चौबीसों घंटे उन्हें प्रसन्न करने के लिए निष्ठापूर्वक कार्य में लगा रहता है, वे उसको आत्मदान कर देते हैं। अतएव किसी को देहात्मबुद्धि के मिथ्या अहंकार में नहीं बह जाना चाहिए। उसे झूठे ही यह नहीं सोचना चाहिए कि वह प्रकृति के नियमों से स्वतन्त्र है, या कर्म करने के लिए मुक्त है। वह पहले से कठोर भौतिक नियमों के अधीन है। लेकिन जैसे ही वह कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करता है, तो वह भौतिक दुश्चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। मनुष्य को यह भलीभाँति जान लेना चाहिए कि जो कृष्णभावनामृत में सक्रिय नहीं है, वह जन्म-मृत्यु रूपी सागर के भँवर में पड़कर अपना विनाश कर रहा है। कोई भी बद्धजीव यह सही सही नहीं जानता कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होकर कर्म अन्तर से करता है, वह कर्म करने के लिए मुक्त है, क्योंकि प्रत्येक किया हुआ कर्म कृष्ण द्वारा प्रेरित तथा गुरु द्वारा पुष्ट होता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

 

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्र्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्  ।। 55 ।।

भक्त्या– शुद्ध भक्ति से;माम्– मुझको;अभिजानाति– जान सकता है;यावान्– जितना;यः च अस्मि– जैसा मैं हूँ;तत्त्वतः– सत्यतः;ततः– तत्पश्चात्;माम्– मुझको;तत्त्वतः– सत्यतः;ज्ञात्वा– जानकर;विशते– प्रवेश करता है;तत्-अनन्तरम्– तत्पश्चात्।

भावार्थ : केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है। जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है।

तात्पर्य : भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके स्वांशों को न तो मनोधर्म द्वारा जाना जा सकता है, न ही अभक्तगण उन्हें समझ पाते हैं। यदि कोई व्यक्ति भगवान् को समझना चाहता है, तो उसे शुद्ध भक्त के पथप्रदर्शन में शुद्ध भक्ति ग्रहण करनी होती है, अन्यथा भगवान् सम्बन्धी सत्य (तत्त्व) उससे सदा छिपा रहेगा। जैसा कि भगवद्गीता में (.२५) कहा जा चुका है – नाहं प्रकाशः सर्वस्य – मैं सबों के समक्ष प्रकाशित नहीं होता। केवल पाण्डित्य या मनोधर्म द्वारा ईश्वर को नहीं समझा जा सकता। कृष्ण को केवल वही समझ पाता है, जो कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में तत्पर रहता है। इसमें विश्वविद्यालय की उपाधियाँ सहायक नहीं होती हैं।

जो व्यक्ति कृष्ण विज्ञान (तत्त्व) से पूर्णतया अवगत है, वही वैकुण्ठजगत् या कृष्ण के धाम में प्रवेश कर सकता है। ब्रह्मभूत होने का अर्थ यह नहीं है कि वह अपना स्वरूप खो बैठता है। भक्ति तो रहती ही है और जब तक भक्ति का अस्तित्व रहता है, तब तक ईश्वर, भक्त तथा भक्ति की विधि रहती है। ऐसे ज्ञान का नाश मुक्ति के बाद भी नहीं होता। मुक्ति का अर्थ देहात्मबुद्धि से मुक्ति प्राप्त करना है। आध्यात्मिक जीवन में वैसा ही अन्तर, वही व्यक्तित्व (स्वरूप) बना रहता है, लेकिन शुद्ध कृष्णभावनामृत में ही विशते शब्द का अर्थ है “मुझमें प्रवेश करता है।” भ्रमवश यह नहीं सोचना चाहिए कि यह शब्द अद्वैतवाद का पोषक है और मनुष्य निर्गुण ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। ऐसा नहीं है। विशते का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व सहित भगवान् के धाम में, भगवान् की संगति करने तथा उनकी सेवा करने के लिए प्रवेश कर सकता है। उदाहरणार्थ, एक हरा पक्षी (शुक) हरे वृक्ष में इसलिए प्रवेश नहीं करता कि वह वृक्ष से तदाकार (लीन) हो जाय, अपितु वह वृक्ष के फलों का भोग करने के लिए प्रवेश करता है। निर्विशेषवादी सामान्यतया समुद्र में गिरने वाली तथा समुद्र से मिलने वाली नदी का दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं। यह निर्विशेषवादियों के लिए आनन्द का विषय हो सकता है, लेकिन साकारवादी अपने व्यक्तित्व को उसी प्रकार बनाये रखना चाहता है, जिस प्रकार समुद्र में एक जलचर प्राणी। यदि हम समुद्र की गहराई में प्रवेश करें तो हमें अनेकानेक जीव मिलते हैं। केवल समुद्र की ऊपरी जानकारी पर्याप्त नहीं है, समुद्र की गहराई में रहने वाले जलचर प्राणियों की भी जानकारी रखना आवश्यक है।

भक्त अपनी शुद्ध भक्ति के कारण परमेश्वर के दिव्य गुणों तथा ऐश्वर्यों को यथार्थ रूप में जान सकता है। जैसा कि ग्याहरवें अध्याय में कहा जा चुका है, केवल भक्ति द्वारा इसे समझा जा सकता है। इसी की पुष्टि यहाँ भी हुई है। मनुष्य भक्ति द्वारा भगवान् को समझ सकता है और उनके धाम में प्रवेश कर सकता है।

भौतिक बुद्धि से मुक्ति की अवस्था – ब्रह्मभूत अवस्था – को प्राप्त कर लेने के बाद भगवान् के विषय में श्रवण करने से भक्ति का शुभारम्भ होता है। जब कोई परमेश्वर के विषय में श्रवण करता है, तो स्वतः ब्रह्मभूत अवस्था का उदय होता है और भौतिक कल्मष – यथा लोभ तथा काम – का विलोप हो जाता है। ज्यों-ज्यों भक्त के हृदय से काम तथा इच्छाएँ विलुप्त होती जाती हैं, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है और इस तरह वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। जीवन की उस स्थिति में वह भगवान् को समझ सकता है। श्रीमद्भागवत में भी इसका कथन हुआ है। मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है। इसकी पुष्टि वेदान्तसूत्र से (..१२) होती है – आप्रायणात् तत्रापि हि दृष्टम् इसका अर्थ है कि मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है। श्रीमद्भागवत में वास्तविक भक्तिमयी मुक्ति की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार यह जीव का अपने स्वरूप या अपनी निजी स्वाभाविक स्थिति में पुनःप्रतिष्ठापित हो जाना है। स्वाभाविक स्थिति की व्याख्या पहले ही की जा चुकी है – प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है, अतएव उसकी स्वाभाविक स्थिति सेवा करने की है। मुक्ति के बाद यह सेवा कभी रूकती नहीं। वास्तविक मुक्ति तो देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणा से मुक्त होना है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय अठारह उपसंहार -- संन्यास की सिद्धि

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42 ।।

शमः– शान्तिप्रियता;दमः– आत्मसंयम;तपः– तपस्या;शौचम्– पवित्रता;क्षान्तिः– सहिष्णुता;आर्जवम्– सत्यनिष्ठा;एव– निश्चय ही;– तथा;ज्ञानम्–ज्ञान;विज्ञानम्– विज्ञान;आस्तिक्यम्– धार्मिकता;ब्रह्म– ब्राह्मण का;कर्म–कर्तव्य;स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभाविक।

भावार्थ : शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं।

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।। 54 ।।

ब्रह्म-भूतः– ब्रह्म से तदाकार होकर;प्रसन्न-आत्मा– पूर्णतया प्रमुदित;– कभी नहीं;शोचति– खेद करता है;– कभी नहीं;काङ्क्षति– इच्छा करता है;समः– समान भाव से;सर्वेषु– समस्त;भूतेषु– जीवों पर;मत्-भक्तिम्– मेरी भक्ति को;लभते– प्राप्त करता है;पराम्– दिव्य।

भावार्थ : इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है। वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है। वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है। उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है।

तात्पर्य : निर्विशेषवादी के लिए ब्रह्मभूत अवस्था प्राप्त करना अर्थात् ब्रह्म से तदाकार होना परम लक्ष्य होता है। लेकिन साकारवादी शुद्धभक्त को इससे भी आगे चलकर शुद्ध भक्ति में प्रवृत्त होना होता है। इसका अर्थ हुआ कि जो भगवद्भक्ति में रत है, वह पहले ही मुक्ति की अवस्था, जिसे ब्रह्मभूत या ब्रह्म से तादात्मय कहते हैं, प्राप्त कर चुका होता है। परमेश्वर या परब्रह्म से तदाकार हुए बिना कोई उनकी सेवा नहीं कर सकता। परम ज्ञान होने पर सेव्य तथा सेवक में कोई अन्तर नहीं कर सकता, फिर भी उच्चतर आध्यात्मिक दृष्टि से अन्तर तो रहता ही है।

देहात्मबुद्धि के अन्तर्गत, जब कोई इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है, तो दुख का भागी होता है, लेकिन परम जगत् में शुद्ध भक्ति में रत रहने पर कोई दुख नहीं रह जाता। कृष्णभावनाभावित भक्त को न तो किसी प्रकार का शोक होता है, न आकांक्षा होती है। चूँकि ईश्वर पूर्ण है, अतएव ईश्वर में सेवारत जीव भी कृष्णभावना में रहकर अपने में पूर्ण रहता है। वह ऐसी नदी के तुल्य है, जिसके जल की सारी गंदगी साफ कर दी गई है। चूँकि शुद्ध भक्त में कृष्ण के अतिरिक्त कोई विचार ही नहीं उठते, अतएव वह प्रसन्न रहता है। वह न तो किसी भौतिक क्षति पर शोक करता है, न किसी लाभ की आकांक्षा करता है, क्योंकि वह भगवद्भक्ति से पूर्ण होता है। वह किसी भौतिक भोग की आकांक्षा नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि प्रत्येक जीव भगवान् का अंश है, अतएव वह उनका नित्य दास है। वह भौतिक जगत में न तो किसी को अपने उच्च देखता है और न किसी को निम्न । ये उच्च तथा निम्न पद क्षणभंगुर हैं और भक्त को क्षणभंगुर प्राकट्य तथा तिरोधान से कुछ लेना-देना नहीं रहता। उसके लिए पत्थर तथा सोना बराबर होते हैं। यह ब्रह्मभूत अवस्था है, जिसे शुद्ध भक्त सरलता से प्राप्त कर लेता है। उस अवस्था में परब्रह्म से तादात्मय और अपने अस्तित्व का विलय नारकीय बन जाता है, स्वर्ग प्राप्त करने का विचार मृगतृष्णा लगता है और इन्द्रियाँ विषदंतविहीन सर्प की भाँति प्रतीत होती है। जिस प्रकार विषदंतविहीन सर्प से कोई भय नहीं रह जाता उसी प्रकार स्वतः संयमित इन्द्रियों से कोई भय नहीं रह जाता। यह संसार उस व्यक्ति के लिए दुखमय है, जो भौतिकता से ग्रस्त है। लेकिन भक्त के लिए समस्त जगत् वैकुण्ठ-तुल्य है। इस ब्रह्माण्ड का महान से महानतम पुरुष भी भक्त के लिए एक क्षुद्र चीटीं से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होता। ऐसी अवस्था भगवान् चैतन्य की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है, जिन्होंने इस युग में शुद्ध भक्ति का प्रचार किया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। 19 ।।

यः- जो;माम्- मुझको;एवम्- इस प्रकार;असम्मूढः- संशयरहित;जानाति- जानता है;पुरुष-उत्तमम्- भगवान्;सः- वह;सर्व-वित्- सब कुछ जानने वाला;भजति- भक्ति करता है;माम्- मुझको;सर्व-भावेन- सभी प्रकार से;भारत- हे भरतपुत्र।

भावार्थ : जो कोई भी मुझे संशयरहित होकर पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानता है, वह सब कुछ जानता है। अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यक्ति मेरी पूर्ण भक्ति में रत होता है।

तात्पर्य : जीव तथा भगवान् की स्वाभाविक स्थिति के विषय में अनेक दार्शनिक ऊहापोह करते हैं। इस श्लोक में भगवान् स्पष्ट बताते हैं कि जो भगवान् कृष्ण को परम पुरुष के रूप में जानता है, वह सारी वस्तुओं का ज्ञाता है। अपूर्ण ज्ञाता परम सत्य के विषय में केवल चिन्तन करता जाता है, जबकि पूर्ण ज्ञाता समय का अपव्यय किये बिना सीधे कृष्णभावनामृत में लग जाता है, अर्थात् भगवान् की भक्ति करने लगता है। सम्पूर्ण भगवद्गीता में पग पग-पर इस तथ्य पर बल दिया गया है। फिर भी भगवद्गीता के ऐसे अनेक कट्टर भाष्यकार हैं, जो परमेश्वर तथा जीव को एक ही मानते हैं।

वैदिक ज्ञान श्रुति कहलाता है, जिसका अर्थ है श्रवण करके सीखना। वास्तव में वैदिक सूचना कृष्ण तथा उनके प्रतिनिधियों जैसे अधिकारियों से ग्रहण करनी चाहिए। यहाँ कृष्ण ने हर वस्तु का अंतर सुन्दर ढंग से बताया है, अतएव इसी स्रोत से सुनना चाहिए। लेकिन केवल सूकरों की तरह सुनना पर्याप्त नहीं है, मनुष्य को चाहिए कि अधिकारियों से समझे। ऐसा नहीं कि केवल शुष्क चिन्तन ही करता रहे। मनुष्य को विनीत भाव से भगवद्गीता से सुनना चाहिए कि सारे जीव भगवान् के अधीन हैं। जो भी इसे समझ लेता है, वही श्रीकृष्ण के कथनानुसार वेदों के प्रयोजन को समझता है, अन्य कोई नहीं समझता।
भजति शब्द अत्यन्त सार्थक है। कई स्थानों पर भजति का सम्बन्ध भगवान् की सेवा के अर्थ में व्यक्त हुआ है। यदि कोई व्यक्ति पूर्ण कृष्णभावनामृत में रत है अर्थात् भगवान् की भक्ति करता है, तो यह समझना चाहिए कि उसने सारा वैदिक ज्ञान समझ लिया है। वैष्णव परम्परा में यह कहा जाता है कि यदि कोई कृष्ण-भक्ति में लगा रहता है, तो उसे भगवान् को जानने के लिए किसी अन्य आध्यात्मिक विधि की आवश्यकता नहीं रहती। भगवान् की भक्ति करने के कारण वह पहले से लक्ष्य तक पँहुचा रहता है। वह ज्ञान की समस्त प्रारम्भिक विधियों को पार कर चुका होता है। लेकिन यदि कोई लाखों जन्मों तक चिन्तन करने पर भी इस लक्ष्य पर नहीं पहुँच पाता कि श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं और उनकी ही शरण ग्रहण करनी चाहिए, तो उसका अनेक जन्मों का चिन्तन व्यर्थ जाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। 15 ।।

सर्वस्य- समस्त प्राणियों;- तथा;अहम्- मैं;हृदि- हृदय में;सन्निविष्टः- स्थित;मत्तः- मुझ से;स्मृतिः- स्मरणशक्ति;ज्ञानम्- ज्ञान;अपोहनम्- विस्मृति;- तथा;वेदैः- वेदों के द्वारा;- भी;सर्वैः- समस्त;अहम्- मैं हूँ;एव- निश्चय ही;वेद्यः- जानने योग्य, ज्ञेय;वेदान्त-कृत- वेदान्त के संकलकर्ता;वेदवित्- वेदों का ज्ञाता;एव- निश्चय ही;- तथा;अहम्- मैं।

भावार्थ : मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ। निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ।

तात्पर्य : परमेश्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं। जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है, लेकिन उसे परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मों के साक्षी है। अतएव वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है। इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है। लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है। इस प्रकार भगवान् न केवल सर्वव्यापी हैं, अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं। वे विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं। वे न केवल निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं, अपितु वे वेदों के अवतार के रूप में भी पूजनीय हैं। वेद लोगों को सही दिशा बताते हैं, जिससे वे समुचित ढंग से अपना जीवन ढाल सकें और भगवान् के धाम को वापस जा सकें। वेद भगवान् कृष्ण विषयक ज्ञान प्रदान करते हैं और अपने अवतार व्यासदेव के रूप में कृष्ण ही वेदान्तसूत्र के संकलनकर्ता हैं। व्यासदेव द्वारा श्रीमद्भागवत के रूप में किया गया वेदान्तसूत्र का भाष्य वेदान्तसूत्र की वास्तविक सूचना प्रदान करता है। भगवान् इतने पूर्ण हैं कि बद्धजीवों के उद्धार हेतु वे उसके अन्न के प्रदाता एवं पाचक हैं, उसके कार्यकलापों के साक्षी हैं तथा वेदों के रूप में ज्ञान के प्रदाता हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में भगवद्गीता के शिक्षक हैं। वे बद्धजीव द्वारा पूज्य हैं। इस प्रकार ईश्वर सर्वकल्याणप्रद तथा सर्वदयामय हैं।

अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम् । जीव ज्योंही अपने इस शरीर को छोड़ता है, इसे भूल जाता है, लेकिन परमेश्वर द्वारा प्रेरित होने पर वह फिर से काम करने लगता है। यद्यपि जीव भूल जाता है, लेकिन भगवान् उसे बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह अपने पूर्वजन्म के अपूर्ण कार्य को फिर से करने लगता है। अतएव जीव अपने हृदय में स्थित परमेश्वर के आदेशानुसार इस जगत् में सुख या दुख का केवल भोग ही नहीं करता है, अपितु उनसे वेद समझने का अवसर भी प्राप्त करता है। यदि कोई ठीक से वैदिक ज्ञान पाना चाहे तो कृष्ण उसे आवश्यक बुद्धि प्रदान करते हैं। वे किस लिए वैदिक ज्ञान प्रस्तुत करते हैं ? इसलिए कि जीव को कृष्ण को समझने की आवश्यकता है। इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है - योSसौ सर्वैर्वेदैर्गीयते चारों वेदों , वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों एवं पुराणों समेत सारे वैदिक साहित्य में परमेश्वर की कीर्ति का गान है। उन्हें वैदिक अनुष्ठानों द्वारा, वैदिक दर्शन की व्याख्या द्वारा तथा भगवान् की भक्तिमय पूजा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अतएव वेदों का उद्देश्य कृष्ण को समझना है। वेद हमें निर्देश देते हैं, जिससे कृष्ण को जाना जा सकता है और उनकी अनुभूति की जा सकती है। भगवान् ही चरम लक्ष्य है। वेदान्तसूत्र (..) में इसकी पुष्टि इन शब्दों में हुई है - तत्तु समन्वयात् मनुष्य तीन अवस्थाओं में सिद्धि प्राप्त करता है। वैदिक साहित्य के ज्ञान से भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को समझा जा सकता है, विभिन्न विधियों को सम्पन्न करके उन तक पहुँचा जा सकता है और अन्त में उस परम लक्ष्य श्रीभगवान् की प्राप्ति की जा सकती है। इस श्लोक में वेदों के प्रयोजन, वेदों के ज्ञान तथा वेदों के लक्ष्य को स्पष्टतः परिभाषित किया गया है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।

मम- मेरा;एव- निश्चय ही;अंशः- सूक्ष्म कण;जीव-लोके- बद्ध जीवन के संसार में;जीव-भूतः- बद्ध जीव;सनातनः- शाश्वत;मनः- मन;षष्ठानि- छह;इन्द्रियाणि- इन्द्रियों समेत;प्रकृति- भौतिक प्रकृति में;स्थानि- स्थित;कर्षति- संघर्ष करता है।

भावार्थ : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है।

तात्पर्य : इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है। जीव परमेश्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है। ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्वर से एकाकार हो जाता है। वह सनातन का अंश रूप है। यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है। वेदवचन के अनुसार परमेश्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार विष्णुतत्त्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, विष्णु तत्त्व निजी विस्तार (स्वांश) हैं और विभिन्नांश अर्थात् जीव, सनातन सेवक होते हैं। भगवान् के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं। इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशो के अपने स्वरूप होते हैं। परमेश्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतन्त्रता एक है। प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है। इसी स्वातंत्र्य के दुरूपयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है। दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान् के समान ही सनातन होता है। मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान् की दिव्य सेवा में निरत रहता है। बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है। फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है।

न केवल मनुष्य तथा कुत्ते-बिल्ली जैसे जीव, अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मा-शिव तथा विष्णु तक, परमेश्वर के अंश हैं। ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं। कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है। बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो। वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है। जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं। जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है। लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है। लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है।

माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है - स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति । यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है। यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् हैं, उन्हें समझ सकता है। स्मृति से भी यह ज्ञात होता है- वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः -वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं। जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा विष्णु मूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता। दूसरे शब्दों में, भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है।

ममैवांश शब्द भी अत्यन्त सार्थक है, जिसका अर्थ है भगवान् के अंश। भगवान् का अंश ऐसा नहीं होता, जैसे किसी पदार्थ का टूटा खण्ड (अंश) हम द्वितीय अध्याय में देख चुके हैं कि आत्मा के खण्ड नहीं किये जा सकते। इस खण्ड की भौतिक दृष्टि से अनुभूति नहीं हो पाती। यह पदार्थ की भाँति नहीं है, जिसे चाहो तो कितने ही खण्ड कर दो और उन्हें पुनः जोड़ दो। ऐसी विचारधारा यहाँ पर लागू नहीं होती, क्योंकि संस्कृत के सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है। विभिन्नांश सनातन है। द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में भगवान् का अंश विद्यमान है (देहिनोSस्मिन्यथा देहे) वह अंश जब शारीरिक बन्धन से मुक्त हो जाता है, तो आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठ लोक में अपना आदि आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर लेता है, जिससे वह भगवान् की संगति का लाभ उठाता है। किन्तु ऐसा समझा जाता है कि जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण होते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। 6 ।।

-नहीं;तत्-वह;भासयते-प्रकाशित करता है;सूर्यः-सूर्य;-न तो;शशाङकः-चन्द्रमा;- न तो;पावकः- अग्नि, बिजली;यत्- जहाँ;गत्वा- जाकर;- कभी नहीं;निवर्तन्ते- वापस आते हैं;तत्-धाम- वह धाम;परमम्- परम;मम- मेरा।

भावार्थ : वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चन्द्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत् में फिर से लौट कर नहीं आते।

तात्पर्य : यहाँ आध्यात्मिक जगत् अर्थात् भगवान् कृष्ण के धाम का वर्णन हुआ है, जिसे कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन कहा जाता है। चिन्मय आकाश में न तो सूर्यप्रकाश की आवश्यकता है, न चन्द्रप्रकाश अथवा अग्नि या बिजली की, क्योंकि सारे लोक स्वयं प्रकाशित हैं। इस ब्रह्माण्ड में केवल एक लोक, सूर्य, ऐसा है जो स्वयं प्रकाशित है। लेकिन आध्यात्मिक आकाश में सभी लोक स्वयं प्रकाशित हैं। उन समस्त लोकों के (जिन्हें वैकुण्ठ कहा जाता है) चमचमाते तेज से चमकीला आकाश बनता है, जिसे ब्रह्मज्योति कहते हैं। वस्तुतः यह तेज कृष्णलोक, गोलोक वृन्दावन से निकलता है। इस तेज का एक अंश महत्-तत्त्व अर्थात् भौतिक जगत् से आच्छादित रहता है। इसके अतिरिक्त ज्योतिर्मय आकाश का अधिकांश भाग तो आध्यात्मिक लोकों से पूर्ण है, जिन्हें वैकुण्ठ कहा जाता है और जिनमें से गोलोक वृन्दावन प्रमुख है।

जब तक जीव इस अंधकारमय जगत् में रहता है, तब तक वह बद्ध अवस्था में होता है। लेकिन ज्योंही वह इस भौतिक जगत् रूपी मिथ्या, विकृत वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक आकाश में पहुँचता है, त्योंही वह मुक्त हो जाता है। तब वह यहाँ वापस नहीं आता। इस बद्ध जीवन में जीव अपने को भौतिक जगत् का स्वामी मानता है, लेकिन अपनी मुक्त अवस्था में वह आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश करता है और परमेश्वर का पार्षद बन जाता है। वहाँ पर वह सच्चिदानन्दमय जीवन बिताता है।

इस सूचना से मनुष्य को मुग्ध हो जाना चाहिए। उसे उस शाश्वत जगत् में ले जाये जाने की इच्छा करनी चाहिए और सच्चाई के इस मिथ्या प्रतिबिम्ब से अपने आपको विलग कर देना चाहिए। जो इस संसार से अत्यधिक आसक्त है, उसके लिए इस आसक्ति का छेदन करना दुष्कर होता है। लेकिन यदि वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर ले, तो उसे क्रमशः छूट जाने की सम्भावना है। उसे ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिए जो कृष्णभावनाभावित होते हैं। उसे ऐसा समाज खोजना चाहिए, जो कृष्णभावनामृत के प्रति समर्पित हो और उसे भक्ति करनी सीखनी चाहिए। इस प्रकार वह संसार के प्रति अपनी आसक्ति विच्छेद कर सकता है। यदि कोई चाहे कि केसरिया वस्त्र पहनने से भौतिक जगत् का आकर्षण से विच्छेद हो जाएगा, तो ऐसा सम्भव नहीं है। उसे भगवद्भक्ति के प्रति आसक्त होना पड़ेगा। अतएव मनुष्य को चाहिए कि गम्भीरतापूर्वक समझे कि बारहवें अध्याय में भक्ति का जैसा वर्णन है वही वास्तविक वृक्ष की इस मिथ्या अभिव्यक्ति से बाहर निकलने का एकमात्र साधन है। चौदहवें अध्याय में बताया गया है कि भौतिक प्रकृति द्वारा सारी विधियाँ दूषित हो जाती हैं, केवल भक्ति ही शुद्ध रूप से दिव्य है।

यहाँ परमं मम शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वास्तव में जगत का कोना-कोना भगवान् की सम्पत्ति है, परन्तु दिव्य जगत परम है और छह ऐश्वर्यों से पूर्ण है। कठोपनिषद् (..१५) में भी इसकी पुष्टि की गई है कि दिव्य जगत में सूर्य प्रकाश, चन्द्र प्रकाश या तारागण की कोई आवश्यकता नहीं है, (न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारकम्) क्योंकि समस्त आध्यात्मिक आकाश भगवान् की आन्तरिक शक्ति से प्रकाशमान है। उस परम धाम तक केवल शरणागति से ही पहुँचा जा सकता है,अन्य किसी साधन से नहीं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय पन्द्रह पुरुषोत्तम योग

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ 5

निः-रहित;मान-झूठी प्रतिष्ठा;मोहाः-तथा मोह;जित-जीता गया;सङ्ग-संगति की;दोषाः-त्रुटियाँ;अध्यात्म-आध्यात्मिक ज्ञान में;नित्याः-शाश्वतता में;विनिवृत्तः-विलग;कामाः-काम से;द्वन्द्वैः-द्वैत से;विमुक्ताः-मुक्त;सुख-दुःख-सुख तथा दुख;संज्ञैः-नामक;गच्छन्ति-प्राप्त करते हैं;अमूढाः-मोहरहित;पदम्-पद,स्थान को;अव्ययम्-शाश्वत;तत्-उस।

भावार्थ : जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्त्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना चाहते हैं, वे उस शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं।

तात्पर्य : यहाँ पर शरणागति का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है। इसके लिए जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता है, वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना। चूँकि बद्धजीव अपने को प्रकृति का स्वामी मानकर गर्वित रहता है, अतएव उसके लिए भगवान् की शरण में जाना कठिन होता है। उसे वास्तविक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है, उसका स्वामी तो परमेश्वर है। जब मनुष्य अहंकार से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाता है, तभी शरणागति की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है। जो व्यक्ति इस संसार में सदैव सम्मान की आशा रखता है, उसके लिए भगवान् के शरणागत होना कठिन है। अहंकार तो मोह के कारण होता है, क्योंकि यद्यपि मनुष्य यहाँ आता है, कुछ काल तक रहता है और फिर चला जाता है, तो भी मूर्खतावश वह समझ बैठता है कि वही इस संसार का स्वामी है। इस तरह वह सारी परिस्थिति को जटिल बना देता है और सदैव कष्ट उठाता रहता है। सारा संसार इसी भ्रान्तधारणा के अन्तर्गत आगे बढ़ता है। लोग सोचते हैं कि यह भूमि या पृथ्वी मानव समाज की है और उन्होंने भूमि का विभाजन इस मिथ्या धारणा से कर रखा है कि वे इसके स्वामी हैं। मनुष्य को इस भ्रम से मुक्त होना चाहिए कि मानव समाज ही इस जगत् का स्वामी है। जब मनुष्य इस प्रकार की भ्रान्तधारणा से मुक्त हो जाता है, तो वह पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्नेह से उत्पन्न कुसंगतियों से मुक्त हो जाता है। ये त्रुटि-पूर्ण संगतियाँ ही उसे संसार से बाँधने वाली हैं। इस अवस्था के बाद उसे आध्यात्मिक ज्ञान विकसित करना होता है। उसे ऐसे ज्ञान का अनुशीलन करना होता है कि वास्तव में उसका क्या है और क्या नहीं है। और जब उसे वस्तुओं का सही-सही ज्ञान हो जाता है तो वह सुख-दुख, हर्ष-विषाद जैसे द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है। वह ज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है और तब भगवान् का शरणागत बनना सम्भव हो पाता है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। 27 ।।

ब्रह्मणः- निराकार ब्रह्मज्योति का;हि- निश्चय ही;प्रतिष्ठा- आश्रय;अहम्- मैं हूँ;अमृतस्य- अमर्त्य का;अव्ययस्य- अविनाशी का;- भी;शाश्वतस्य- शाश्वत का;- तथा;धर्मस्य- स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का;सुखस्य- सुख का;एकान्तिकस्य- चरम, अन्तिम,- भी।

भावार्थ : और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्वत है और चरम सुख का स्वाभाविक पद है।

तात्पर्य : ब्रह्म का स्वरूप है अमरता, अविनाशिता, शाश्वतता तथा सुख । ब्रह्म तो दिव्य साक्षात्कार का शुभारम्भ है । परमात्मा इस दिव्य साक्षात्कार की मध्य या द्वितीय अवस्था है और भगवान् परम सत्य के चरम साक्षात्कार हैं। अतएव परमात्मा तथा निराकार ब्रह्म दोनों ही परम पुरुष के भीतर रहते हैं। सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि प्रकृति परमेश्वर की अपरा शक्ति की अभिव्यक्ति है। भगवान् इस अपरा प्रकृति में परा प्रकृति को गर्भस्थ करते हैं और भौतिक प्रकृति के लिए यह आध्यात्मिक स्पर्श है। जब इस प्रकृति द्वारा बद्धजीव आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन करना प्रारम्भ करता है, तो वह इस भौतिक जगत् के पद से ऊपर उठने लगता है और क्रमशः परमेश्वर के ब्रह्म-बोध तक उठ जाता है। ब्रह्म-बोध की प्राप्ति आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रथम अवस्था है। इस अवस्था में ब्रह्मभूत व्यक्ति भौतिक पद को पार कर जाता है, लेकिन ब्रह्म-साक्षात्कार में पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता। यदि वह चाहे तो इस ब्रह्मपद पर बना रह सकता है और धीरे-धीरे परमात्मा के साक्षात्कार को और फिर भगवान् के साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है। वैदिक साहित्य में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। चारों कुमार पहले निराकार ब्रह्म में स्थित थे, लेकिन क्रमशः वे भक्तिपद तक उठ गए। जो व्यक्ति निराकार ब्रह्मपद से ऊपर नहीं उठ पाता, उसके नीचे गिरने का डर बना रहता है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि भले ही कोई निराकार ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त कर ले, किन्तु इससे ऊपर उठे बिना तथा परम पुरुष के विषय में सूचना प्राप्त किये बिना उसकी बुद्धि विमल नहीं हो पाती। अतएव ब्रह्मपद तक उठ जाने के बाद भी यदि भगवान् की भक्ति नहीं की जाती, तो नीचे गिरने का भय बना रहता है। वैदिक भाषा में यह भी कहा गया है - रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति - रस के आगार भगवान् श्रीकृष्ण को जान लेने पर मनुष्य वास्तव में दिव्य आनन्दमय हो जाता है (तैत्तिरीय - उपनिषद् २..)परमेश्वर छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और जब भक्त निकट पहुँचता है तो इन छह ऐश्वर्यों का आदान-प्रदान होता है। राजा का सेवक लगभग राजा के समान ही पद का भोग करता है। इस प्रकार शाश्वत सुख, अविनाशी सुख तथा शाश्वत जीवन भक्ति के साथ-साथ चलते हैं। अतएव भक्ति में ब्रह्म-साक्षात्कार या शाश्वतता या अमरता सम्मिलित रहते हैं। भक्ति में प्रवृत्त व्यक्ति में ये पहले से ही प्राप्त रहते हैं।

जीव यद्यपि स्वभाव से ब्रह्म होता है, लेकिन उसमें भौतिक जगत् पर प्रभुत्व जताने की इच्छा रहती है, जिसके कारण वह नीचे गिरता है। अपनी स्वाभाविक स्थिति में जीव तीनों गुणों से परे होता है। लेकिन प्रकृति के संसर्ग से वह अपने को तीनों गुणों-सतो, रजो तथा तमोगुण - में बाँध लेता है। इन्हीं तीनों गुणों के संसर्ग के कारण उसमें भौतिक जगत् पर प्रभुत्व जताने की इच्छा होती है। पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति में प्रवृत्त होने पर वह दिव्य पद को प्राप्त होता है और उसमें प्रकृति को वश में करने की जो इच्छा होती है, वह दूर हो जाती है। अतएव भक्तों की संगति कर के भक्ति की नौ विधियाँ - श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि का अभ्यास करना चाहिए। धीरे-धीरे ऐसी संगति से तथा गुरु के प्रभाव से मनुष्य की प्रभुता जताने वाली इच्छा समाप्त हो जाएगी और वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में दृढ़तापूर्वक स्थित हो सकेगा। इस विधि की संस्तुति इस अध्याय के बाइसवें श्लोक से लेकर इस अन्तिम श्लोक तक की गई है। भगवान् की भक्ति अतीव सरल है, मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की सेवा में लगे, श्रीविग्रह को अर्पित भोजन का उच्छिष्ट खाए, भगवान् के चरणकमलों पर चढ़ाये गये पुष्पों की सुगंध सूँघे, भगवान् के लीलास्थलों का दर्शन करे, भगवान् के विभिन्न कार्यकलापों और उनके भक्तों के साथ प्रेम-विनिमय के बारे में पढ़े, सदा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । - इस महामन्त्र की दिव्य ध्वनि का कीर्तन करे और भगवान् तथा उनके भक्तों के विर्भाव तथा तिरोधानों को मनाने वाले दिनों में उपवास करे। ऐसा करने से मनुष्य समस्त भौतिक गतिविधियों से विरक्त हो जायेगा। इस प्रकार जो व्यक्ति अपने को ब्रह्मज्योति या ब्रह्म-बोध के विभिन्न प्रकारों में स्थित कर सकता है, वह गुणात्मक रूप से भगवान् के तुल्य है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 26 ।।

माम्- मेरी;- भी;यः- जो व्यक्ति;अव्यभिचारेण- बिना विचलित हुए;भक्ति-योगेन- भक्ति से;सेवते- सेवा करता है;सः- वह;गुणान्- प्रकृति के गुणों को;समतीत्य- लाँघ कर;एतान्- इन सब;ब्रह्म-भूयाय- ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ;कल्पते- हो जाता है।

भावार्थ : जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है।
तात्पर्य : यह श्लोक अर्जुन के तृतीय प्रश्न के उत्तरस्वरूप है। प्रश्न है - दिव्य स्थिति प्राप्त करने का साधन क्या है? जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह भौतिक जगत् प्रकृति के गुणों के चमत्कार के अन्तर्गत कार्य कर रहा है। मनुष्य को गुणों के कर्मों से विचलित नहीं होना चाहिए, उसे चाहिए कि अपनी चेतना ऐसे कार्यों में न लगाकर उसे कृष्ण-कार्यों में लगाए। कृष्णकार्य भक्तियोग के नाम से विख्यात है, जिनमें सदैव कृष्ण के लिए कार्य करना होता है। इसमें न केवल कृष्ण ही आते हैं, अपितु उनके विभिन्न पूर्णांश भी सम्मिलित हैं - यथा राम तथा नारायण । उनके असंख्य अंश हैं। जो कृष्ण के किसी भी रूप या उनके पूर्णांश की सेवा में प्रवृत्त होता है, उसे दिव्य पद पर स्थित समझना चाहिए। यह ध्यान देना होगा कि कृष्ण के सारे रूप पूर्णतया दिव्य और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। ईश्वर के ऐसे रूप सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ होते हैं और उनमें समस्त दिव्यगुण पाये जाते हैं। अतएव यदि कोई कृष्ण या उनके पूर्णांश की सेवा में दृढ़संकल्प के साथ प्रवृत्त होता है, तो यद्यपि प्रकृति के गुणों को जीत पाना कठिन है, लेकिन वह उन्हें सरलता से जीत सकता है। इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में पहले ही की जा चुकी है। कृष्ण की शरण ग्रहण करने पर तुरन्त ही प्रकृति के गुणों के प्रभाव को लाँघा जा सकता है। कृष्णभावनामृत या कृष्ण-भक्ति में होने का अर्थ है, कृष्ण के साथ समानता प्राप्त करना। भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रकृति सच्चिदानन्द स्वरूप है और सारे जीव परम के अंश हैं, जिस प्रकार सोने के कण सोने की खान के अंश हैं। इस प्रकार जीव अपनी आध्यात्मिक स्थिति में सोने के समान या कृष्ण के समान ही गुण वाला होता है। किन्तु व्यष्टित्व का अन्तर बना रहता है अन्यथा भक्तियोग का प्रश्न ही नहीं उठता। भक्तियोग का अर्थ है कि भगवान् हैं, भक्त है तथा भगवान् और भक्त के बीच प्रेम का आदान-प्रदान चलता रहता है। अतएव भगवान् में और भक्त में दो व्यक्तियों का व्यष्टित्व वर्तमान रहता है, अन्यथा भक्तियोग का कोई अर्थ नहीं है। यदि कोई भगवान् जैसे दिव्य स्तर पर स्थित नहीं है, तो वह भगवान् की सेवा नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ, राजा का निजी सहायक बनने के लिए कुछ योग्यताएँ आवश्यक हैं। इस तरह भगवत्सेवा के लिए योग्यता है कि ब्रह्म बना जाय या भौतिक कल्मष से मुक्त हुआ जाय। वैदिक साहित्य में कहा गया है - ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति । इसका अर्थ है कि गुणात्मक रूप से मनुष्य को ब्रह्म से एकाकार हो जाना चाहिए। लेकिन ब्रह्मत्व प्राप्त करने पर मनुष्य व्यष्टि आत्मा के रूप में अपने शाश्वत ब्रह्म-स्वरूप को खोता नहीं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय चौदह प्रकृति के तीन गुण

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। 4

सर्व-योनिषु- समस्त योनियों में;कौन्तेय- हे कुन्तीपुत्र;मूर्तयः- स्वरूप;सम्भवन्ति- प्रकट होते हैं;याः- जो;तासाम्- उन सबों का;ब्रह्म- परम;महत् योनिः- जन्म स्त्रोत;अहम्- मैं;बीज-प्रदः- बीजप्रदाता;पिता- पिता।

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ।

तात्पर्य : इस श्लोक में स्पष्ट बताया गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जीवों के आदि पिता हैं। सारे जीव भौतिक प्रकृति तथा आध्यात्मिक प्रकृति के संयोग हैं। ऐसे जीव केवल इस लोक में ही नहीं, अपितु प्रत्येक लोक में, यहाँ तक कि सर्वोच्च लोक में भी, जहाँ ब्रह्मा आसीन हैं, पाये जाते हैं। जीव सर्वत्र हैं - पृथ्वी, जल तथा अग्नि के भीतर भी जीव हैं। ये सारे जीव माता भौतिक प्रकृति तथा बीजप्रदाता कृष्ण के द्वारा प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह है कि भौतिक जगत् जीवों को गर्भ में धारण किये है, जो सृष्टिकाल में अपने पूर्वकर्मों के अनुसार विविध रूपों में प्रकट होते हैं।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अभ्यासेSप्यसमर्थोSसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। 10

अभ्यासे- अभ्यास में;अपि- भी;असमर्थः- असमर्थ;असि- हो;मत्-कर्म- मेरे कर्म के प्रति;परमः- परायण;भव- बनो;मत्-अर्थम्- मेरे लिए;अपि- भी;कर्माणि- कर्म ;कुर्वन्- करते हुए;सिद्धिम्- सिद्धि को;अवाप्स्यसि- प्राप्त करोगे।

भावार्थ : यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होगे।

तात्पर्य : यदि कोई गुरु के निर्देशानुसार भक्तियोग के विधि-विधानों का अभ्यास नहीं भी कर पाता, तो भी परमेश्वर के लिए कर्म करके उसे पूर्णावस्था प्रदान कराई जा सकती है। यह कर्म किस प्रकार किया जाय, इसकी व्याख्या ग्याहरवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में पहले ही की जा चुकी है। मनुष्य में कृष्णभावनामृत के प्रचार हेतु सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसे अनेक भक्त हैं जो कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्य में लगे हैं। उन्हें सहायता की आवश्यकता है। अतः भले ही कोई भक्तियोग के विधि-विधानों का प्रत्यक्ष रूप से अभ्यास न कर सके, उसे ऐसे कार्य में सहायता देने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रत्येक प्रकार के प्रयास में भूमि, पूँजी, संगठन तथा श्रम की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार किसी भी व्यापार में रहने के लिए स्थान, उपयोग के लिए कुछ पूँजी, कुछ श्रम तथा विस्तार करने के लिए कुछ संगठन चाहिए, उसी प्रकार कृष्णसेवा के लिए भी इनकी आवश्यकता होती है। अन्तर केवल इतना ही होता है कि भौतिकवाद में मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए सारा कार्य करता है, लेकिन यही कार्य कृष्ण की तुष्टि के लिए किया जा सकता है। यही दिव्य कार्य है। यदि किसी के पास पर्याप्त धन है, तो वह कृष्णभावनामृत के प्रचार के लिए कोई कार्यालय अथवा मन्दिर निर्मित कराने में सहायता कर सकता है अथवा वह प्रकाशन में सहायता पहुँचा सकता है। कर्म के विविध क्षेत्र हैं और मनुष्य को ऐसे कर्मों में रूचि लेनी चाहिए। यदि कोई अपने कर्मों के फल को नहीं त्याग सकता, तो कम से कम उसका कुछ प्रतिशत कृष्णभावनामृत के प्रचार में तो लगा ही सकता है। इस प्रकार कृष्णभावनामृत की दिशा में स्वेच्छा से सेवा करने से व्यक्ति भगवत्प्रेम की उच्चतर अवस्था को प्राप्त हो सकेगा, जहाँ उसे पूर्णता प्राप्त हो सकेगी।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ 9

अथ- यदि, अतः;चित्तम्- मन को;समाधातुम्- स्थिर करने में;- नहीं;शक्नोषि- समर्थ नहीं हो;मयि- मुझ पर;स्थिरम्- स्थिर भाव से;अभ्यास-योगेन- भक्ति के अभ्यास से;ततः- तब;माम्- मुझको;इच्छ- इच्छा करो;आप्तुम्- प्राप्त करने की;धनञ्जय- हे सम्पत्ति के विजेता, अर्जुन।

भावार्थ : हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे करने की चाह उत्पन्न करो।

तात्पर्य : इस श्लोक में भक्तियोग की दो पृथक्-पृथक् विधियाँ बताई गई हैं। पहली विधि उस व्यक्ति पर लागू होती है, जिसने दिव्य प्रेम द्वारा भगवान् कृष्ण के प्रति वास्तविक आसक्ति उत्पन्न कर ली है। दूसरी विधि उसके लिए है जिसने इस प्रकार से भगवान् कृष्ण के प्रति आसक्ति नहीं उत्पन्न की। इस द्वितीय श्रेणी के बिना नाना प्रकार के विधि-विधान हैं, जिनका पालन करके मनुष्य अन्ततः कृष्ण-आसक्ति अवस्था को प्राप्त हो सकता है।

भक्तियोग इन्द्रियों का परिष्कार (संस्कार) है। संसार में इस समय सारी इन्द्रियाँ सदा अशुद्ध हैं, क्योंकि वे इन्द्रियतृप्ति में लगी हुई हैं। लेकिन भक्तियोग के अभ्यास से ये इन्द्रियाँ शुद्ध की जा सकती हैं, और शुद्ध हो जाने पर वे परमेश्वर के सीधे सम्पर्क में आ जाती हैं। इस संसार में रहते हुए मैं किसी अन्य स्वामी की सेवा में रत हो सकता हूँ, लेकिन मैं सचमुच उसकी प्रेमपूर्ण सेवा नहीं करता। मैं केवल धन के लिए सेवा करता हूँ। और वह स्वामी भी मुझसे प्रेम नहीं करता, वह मुझसे सेवा कराता है और मुझे धन देता है। अतएव प्रेम का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए मनुष्य को प्रेम की शुद्ध अवस्था तक ऊपर उठना होता है। यह प्रेम अवस्था इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा भक्ति के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती हैं।

यह ईश्वरप्रेम अभी प्रत्येक हृदय में सुप्त अवस्था में है। वहाँ पर यह ईश्वरप्रेम अनेक रूपों में प्रकट होता है, लेकिन भौतिक संगति से दूषित हो जाता है। अतएव उस भौतिक संगति से हृदय को विमल बनाना होता है और उस सुप्त स्वाभाविक कृष्ण-प्रेम को जागृत करना होता है। यही भक्तियोग की पूरी विधि है।

भक्तियोग के विधि-विधानों का अभ्यास करने के लिए मनुष्य को किसी सुविज्ञ गुरु के मार्गदर्शन में कतिपय नियमों का पालन करना होता है - यथा ब्रह्ममुहूर्त में जागना, स्नान करना, मन्दिर में जाना तथा प्रार्थना करना एवं हरे कृष्ण कीर्तन करना, फिर अर्चा-विग्रह पर चढ़ाने के लिए फूल चुनना, अर्चा-विग्रह पर भोग चढ़ाने के लिए भोजन बनाना, प्रसाद ग्रहण करना दि। ऐसे अनेक विधि-विधान हैं, जिनका पालन आवश्यक है। मनुष्य को शुद्ध भक्तों से नियमित रूप से भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत सुनना चाहिए। इस अभ्यास से कोई भी ईश्वर-प्रेम के स्तर तक उठ सकता है और तब भगवद्धाम तक उसका पहुँचना ध्रुव है। विधि-विधानों के अन्तर्गत गुरु के आदेशानुसार भक्तियोग का यह अभ्यास करके मनुष्य निश्चय ही भगवत्प्रेम की अवस्था को प्राप्त हो सकेगा।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ 8

मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;मनः- मन को;आधत्स्व- स्थिर करो;मयि- मुझमें;बुद्धिम्- बुद्धि को;निवेश्य- लगाओ;निवसिष्यसि- तुम निवास करोगे;मयि- मुझमें;एव- निश्चय ही;अतः-अर्ध्वम्- तत्पश्चात्;- कभी नहीं;संशयः- सन्देह।

भावार्थ : मुझ भगवान् में अपने चित्त को स्थिर करो और अपनी साड़ी बुद्धि मुझमें लगाओ। इस प्रकार तुम निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे।

तात्पर्य : जो भगवान् कृष्ण की भक्ति में रत रहता है, उसका परमेश्वर के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। अतएव इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि प्रारम्भ से ही उसकी स्थिति दिव्य होती है। भक्त कभी भौतिक धरातल पर नहीं रहता - वह सदैव कृष्ण में वास करता है। भगवान् का पवित्र नाम तथा भगवान् अभिन्न हैं। अतः जब भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करता है, तो कृष्ण तथा उनकी अन्तरंगाशक्ति भक्त की जिह्वा पर नाचते रहते हैं। जब वह कृष्ण को भोग चढ़ाता है, जो कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करते हैं और इस तरह इस उच्छिष्ट (जूठन) को खाकर कृष्णमय हो जाता है। जो इस प्रकार सेवा में ही नहीं लगता, वह नहीं समझ पाता कि यह सब कैसे होता है, यद्यपि भगवद्गीता तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में इसी विधि की संस्तुति की गई है।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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भगवद्गीता यथारूप 108 महत्त्वपूर्ण श्लोक

अध्याय बारह भक्तियोग

क्लेशोSधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते ।। 5

क्लेशः- कष्ट;अधिकतरः- अत्यधिक;तेषाम्- उन;अव्यक्त- अव्यक्त के प्रति;आसक्त- अनुरक्त;चेतसाम्- मन वालों का;अव्यक्ता- अव्यक्त की ओर;हि- निश्चय ही;गतिः- प्रगति;दुःखम्- दुख के साथ;देह-वद्भिः- देहधारी के द्वारा;अवाप्यते- प्राप्त किया जाता है।

भावार्थ : जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त हैं, उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यन्त कष्टप्रद है। देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है।

तात्पर्य : अध्यात्मवादियों का समूह, जो परमेश्वर के अचिन्त्य, अव्यक्त, निराकार स्वरूप के पथ का अनुसरण करता है, ज्ञान-योगी कहलाता है, और जो व्यक्ति भगवान् की भक्ति में रत रहकर पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहते हैं, वे भक्ति-योगी कहलाते हैं। यहाँ पर ज्ञान-योग तथा भक्ति-योग में निश्चित अन्तर बताया गया है। ज्ञान-योग का पथ यद्यपि मनुष्य को उसी लक्ष्य तक पहुँचाता है, किन्तु है अत्यन्त कष्टकारक, जबकि भक्ति-योग भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा होने के कारण सुगम है, और देहधारी के लिए स्वाभाविक भी है। जीव अनादि काल से देहधारी है। सैद्धान्तिक रूप से उसके लिए यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि वह शरीर नहीं है। अतएव भक्ति-योगी कृष्ण के विग्रह को पूज्य मानता है, क्योंकि उसके मन में कोई शारीरिक बोध रहता है, जिसे इस रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। निस्सन्देह मन्दिर में परमेश्वर के स्वरूप की पूजा मूर्तिपूजा नहीं है। वैदिक साहित्य में साक्ष्य मिलता है कि पूजा सगुण तथा निर्गुण हो सकती है। मन्दिर में विग्रह-पूजा सगुण पूजा है, क्योंकि भगवान् को भौतिक गुणों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन भगवान् के स्वरूप को चाहे पत्थर, लकड़ी या तेलचित्र जैसे भौतिक गुणों द्वारा क्यों न अभिव्यक्त किया जाय वह वास्तव में भौतिक नहीं होता। परमेश्वर की यही परम प्रकृति है।

यहाँ पर एक मोटा उदाहरण दिया जा सकता है। सड़कों के किनारे पत्रपेटिकाएँ होती हैं, जिनमें यदि हम पत्र डाल दें, तो वे बिना किसी कठिनाई के अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाते हैं। लेकिन यदि कोई ऐसी पुरानी पेटिका, या उसकी अनुकृति कहीं देखे, जो डाकघर द्वारा स्वीकृत न हो, तो उससे वही कार्य नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार ईश्वर ने विग्रहरूप में, जिसे अर्चा-विग्रह कहते हैं, अपना प्रमाणिक (वैध) स्वरूप बना रखा है। यह अर्चा-विग्रह परमेश्वर का अवतार होता है। ईश्वर इसी स्वरूप के माध्यम से सेवा स्वीकार करते हैं। भगवान् सर्वशक्तिमान हैं, अतएव वे अर्चा-विग्रह रूपी अपने अवतार से भक्त की सेवाएँ स्वीकार कर सकते हैं, जिससे बद्ध जीवन वाले मनुष्य को सुविधा हो।

इस प्रकार भक्त को भगवान् के पास सीधे और तुरन्त ही पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं होती, लेकिन जो लोग आध्यात्मिक साक्षात्कार के लिए निराकार विधि का अनुसरण करते हैं, उनके लिए यह मार्ग कठिन है। उन्हें उपनिषदों जैसे वैदिक साहित्य के माध्यम से अव्यक्त स्वरूप को समझना होता है, उन्हें भाषा सीखनी होती है, इन्द्रियातीत अनुभूतियों को समझना होता है, और इन समस्त विधियों का ध्यान रखना होता है। यह सब एक सामान्य व्यक्ति के लिए सुगम नहीं होता। कृष्णभावनामृत में भक्तिरत मनुष्य मात्र गुरु के पथप्रदर्शन द्वारा, मात्र अर्चाविग्रह के नियमित नमस्कार द्वारा, मात्र भगवान् की महिमा के श्रवण द्वारा तथा मात्र भगवान् पर चढ़ाये गये उच्छिष्ट भोजन को खाने से भगवान् को सरलता से समझ लेता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि निर्विशेषवादी व्यर्थ ही कष्टकारक पथ को ग्रहण करते हैं, जिसमें अन्ततः परम सत्य का साक्षात्कार संदिग्ध बना रहता है। किन्तु सगुणवादी बिना किसी संकट, कष्ट या कठिनाई के भगवान् के पास पहुँच जाते हैं। ऐसा ही संदर्भ श्रीमद्भागवत में पाया जाता है। यहाँ यह कहा गया है कि अन्ततः भगवान् की शरण में जाना ही है (इस शरण जाने की क्रिया को भक्ति कहते हैं) तो यदि कोई, ब्रह्म क्या है और क्या नहीं है, इसी को समझने का कष्ट आजीवन उठाता रहता है, तो इसका परिणाम अत्यन्त कष्टकारक होता है। अतएव यहाँ पर यह उपदेश दिया गया है कि आत्म-साक्षात्कार के इस कष्टप्रद मार्ग को ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि अन्तिम फल अनिश्चित रहता है।

जीव शाश्वत रूप से व्यष्टि आत्मा है और यदि वह आध्यात्मिक पूर्ण में तदाकार होना चाहता है तो वह अपनी मूल प्रकृति के शाश्वत (सत्) तथा ज्ञेय (चित्) पक्षों का साक्षात्कार तो कर सकता है, लेकिन आनन्दमय अंश की प्राप्ति नहीं हो पाती। ऐसा अध्यात्मवादी जो ज्ञानयोग में अत्यन्त विद्वान होता है, किसी भक्त के अनुग्रह से भक्तियोग को प्राप्त होता है। इस समय निराकारवाद का दीर्घ अभ्यास कष्ट का कारण बन जाता है, क्योंकि वह उस विचार को त्याग नहीं पाता। अतएव देहधारी जीव, अभ्यास के समय या साक्षात्कार के समय, अव्यक्त की प्राप्ति में सदैव कठिनाई में पड़ जाता है। प्रत्येक जीव अंशतः स्वतन्त्र है और उसे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वह अव्यक्त अनुभूति उसके आध्यात्मिक आनन्दमय आत्म (स्व) की प्रकृति के विरुद्ध है। मनुष्य को चाहिए कि इस विधि को न अपनाये। प्रत्येक जीव के लिए कृष्णचेतना की विधि श्रेष्ठ मार्ग है, जिसमें भक्ति में पूरी तरह व्यस्त रहना होता है। यदि कोई भक्ति की अपेक्षा करना चाहता है, तो नास्तिक होने का संकट रहता है। अतएव अव्यक्त विषयक एकाग्रता की विधि को, जो इन्द्रियों की पहुँच के परे है, जैसा कि इस श्लोक में पहले कहा जा चुका है, इस युग में प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिए। भगवान् कृष्ण ने इसका उपदेश नहीं दिया।

(समर्पित एवं सेवारत - जगदीश चन्द्र चौहान)

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